स्त्री और प्रकृति के अंतर्संबंधों के गीत : सत्यम भारती

पुस्तक समीक्षा

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स्त्री और प्रकृति के अंतर्संबंधों के गीत

  • सत्यम भारती

प्रकृति और स्त्री में  बहुत हद तक एकरूपता है, दोनों का उद्देश्य  परोपकार,  समर्पण, दया और सद्भाव रहा है । और हम उसके उपकार का यह सिला दे रहे हैं कि दोनों अपने ही घर में  प्रवासिनी बन गई है  । गृहस्थ- रूपी यज्ञ की ज्वाला में दोनों आहुति बनकर नित्य जल रहे हैं लेकिन हम उनके इस योगदान को शून्य समझते हैं । प्रकृति और स्त्री की साम्यता का सुंदर वर्णन जैनेंद्र की कहानी एवं पंत की कविता दोनों में मिलता है; कुछ ऐसा ही वर्णन डॉ मंजु लता श्रीवास्तव के नवगीत संग्रह ” फिर पलाशी मन हुए ” पुस्तक में दिखाई देता है  । लेखिका  गीतों के माध्यम से स्त्री और प्रकृति दोनों के संघर्ष, पीड़ा एवं आत्मकथा का सजीव चित्रण करती नजर आती है । स्त्रियों के प्रति दोहरी मानसिकता, स्वार्थपूर्ण रवैया, वस्तुकरण, भोग- विलास का उपकरण मानना, आर्थिक विषमता आदि जो पितृसत्तात्मक समाज की उपलब्धि है,उसे लेखिका कभी बिंब प्रतीक के सहारे तो कभी व्यंग्य एवं किस्सागोई शैली के माध्यम से  कहती है । “सरबतिया ” के दुख दर्द का एक वर्णन देखें –

पेट काट हँसुली बनवायी

सरबतिया दिन फेर रही

उम्र कटी दिन चार बचे हैं

पल-पल हंँसुली  हेर रही ।

प्रकृति के साथ होने वाले अत्याचार, वनों की कटाई, ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण, मौसम का असमय परिवर्तन और इन सारे कुचक्रों से होने वाले जलवायु परिवर्तन, महामारी, प्राकृतिक आपदा आदि का सुंदर वर्णन इनके गीतों में मिलता है  ।मानव के स्वार्थपूर्ण रवैये के कारण ही प्रकृति शोषित एवं दमित हो रही है-

सदियों से ही

मना रहे हैं

मानव जंगल में भी मंगल

अब समाज

ठेकेदारों संग

खेल रहा है खुलकर दंगल ।

वनों की कटाई से निर्वासित  हुए पशु – पक्षियों का दर्द एवं असमय मौसम परिवर्तन का एक चित्र देखें –

नीड़ में

दुबके परिंदे

गुम हुईं चंदन हवायें

है उबलते

ताल के जल

जल रही चारों दिशायें ।

समाज और उसकी सोच स्त्रियों के शोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है  । दुख-दर्द का यह सिलसिला है कि अब स्त्रियाँ  खुद को दुख सहने की आदी बना चुकी हैं-

पीर का अभ्यस्त होकर

नित्य मैं निर्भय रहा  ।

कुछ ऐसा ही यह समाज प्रकृति के साथ भी  कर रहा है ।स्वार्थ की पूर्ति और ‘कुछ और की चाह ‘ ने मानव को विकसित तो बना दिया लेकिन प्रकृति के तत्वों के साथ खिलवाड़ किया है । परिणाम यह हुआ कि धुंध, महामारी ,सुनामी ,भूकंप, भूस्खलन ,बाढ़, बिजली गिरना आदि जो कभी – कभार यहाँ हुआ करता था अब उनका भय निरंतर लोगों को भयभीत किए रहता है-

धुंँध के आतंक

ने डाला

धरा पर रोज डेरा

वह बेचारा

सूर्य दे पता

नहीं निर्मल सवेरा  ।

हम भले ही क्यों न प्रकृति और स्त्री पर अत्याचार कर रहे हो पर वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग रही है । स्त्रियाँ जहाँ घर तथा ऑफिस दोनों संभाल रही है- वहीं प्रकृति भी अपने प्राणियों का पालन – पोषण बखूबी कर रही है । मानो उनका पीठ और कंधा जिम्मेदारियों से झुक गया हो –

झुकी पीठ

बोझा लादे

जर्जर तन कांँप रहा ।

जब किसी घटना या वृत्ति की जीवन में लगातार आवृत्ति हो और हम उसके अभ्यस्त हो जायें तो वह वृत्ति हमारी आदत बन जाती है । लेकिन जब यही आदत आपके जीवन, दिनचर्या और मन में नकारात्मक ऊर्जा भरने लगे और आप स्वयं को अवसाद ग्रस्त महसूस करने लगें तब असंतोष पैदा होता है । यहीअसंतोष  एक समय बाद आक्रोश, विरोध या बदले की भावना में तब्दील हो जाता है। यही स्थिति अब स्त्रियाँ एवं प्रकृति दोनों के साथ होने लगी है । प्रकृति जहाँ रूद्र रूप धारण कर पृथ्वी पर प्रलय मचा रही है तो वहीं स्थानीय कानून का सहारा लेकर और आत्मनिर्भर बन कर स्त्रियाँ पुरुषवादी सामंती सोच और क्रूर दरिंदों को सबक सिखाने लगी है ।  प्रकृति के रौद्र रूप का एक उदाहरण देखें –

बदला मौसम

ताप बहुत है

सूरज हुआ निरंकुश है

ठूंँठ खड़ी

शाखाएँ दुख में

दु:ख का गड़ता अंकुश है ।

स्त्रियाँ भी अब सजग हो रही हैं, जागृति की मशाल जला रही हैं और पुरुषों से कंधे- से- कंधा मिलाकर काम भी कर रही हैं । यह बदलाव देखकर समाज का एक वर्ग जो हमेशा से कुत्सित मनोवृति वाला रहा है वह अचंभित हो रहा है –

हैं चकित सब

तीर पर बैठे मछेरे

जाल के वे डाल

लें कितने भी फेरे

बुद्धि बल से,  युक्ति से

साहस से अपने

तोड़ती हैं

रूढ़ियों के क्रूर घेरे

जागृति की ले  मशालें

सजग अब वे हो गई हैं ।

स्त्री और प्रकृति के अंतर्संबंध, समर्पण, योगदान, संघर्ष ,वर्तमान स्थिति आदि का जीवंत चित्रण इस पुस्तक में देखने को मिलता है जो औरों से अलग है । इस पुस्तक में विषयों का विस्तार है जिसे एक साथ समेट पाना मुश्किल है  । बाजारवाद से उत्पन्न कृत्रिमता, प्रतिस्पर्धा, चकाचौंध,कथनी – करनी में  फर्क, स्वार्थपूर्ण रवैया आदि आज के मानवों की मुख्य प्रवृत्ति बन गई है । संयुक्त परिवार बिखरने लगे हैं ,वैचारिक मतभेद होने लगे हैं, रिश्तों में बिखराव आने लगा है तथा घर में वृद्धों की स्थिति दयनीय होने लगी है  । पश्चिमी सभ्यता की छाप हमारे मन – मस्तिष्क पर ऐसा पड़ी  कि हम बोलने से लेकर पहनने तक, खाने से लेकर पढ़ने तक, उसी के गुलाम होते जा रहे हैं ।  परिणाम यह हुआ कि लघु उद्योग, मातृभाषा, भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति और देशी ज्ञान – परंपरा अपने ही घर में प्रवासी हो गए । लेखिका इन सारे मुद्दों को अपने गीतों में पूरी जागरूकता के साथ स्थान देती है और सुंदर लयात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करती हैैैै-

शहर नहीं बन पाए हैं पर

ग्राम्य- संस्कृति दफन हो गई

कहते हैं ग्रामीण स्वयं को

पर आत्मा-संक्रमित हो गई ।

रिश्तों एवं परिवार में आए बदलाव का एक उदाहरण देखें-

एकाकी परिवार बीच अब

संबंधों के अर्थ हवन हैं ।

मानव ने अपनी प्रवृत्ति में अहंकार को शामिल कर लिया है, जिससे उसके सोचने – समझने की शक्ति और उसके ज्ञान पर तम का पर्दा पड़ गया है-

ज्ञान पर

छाया अहं

मूरख गले अब पड़ गए हैं ।

लेखिका की संवेदना समाज में शोषित हो रहे लोगों के प्रति तथा गरीब ,मजदूरों ,किसानों के प्रति भी है । बाढ़ में फंसे गरीब – मजदूर का सुंदर वस्तुवर्णन देखें-

घुटनों  ऊपर

पानी आया

चुन्नू को

कांधे बैठाया

कांख में साधे है मुन्नी को

इंदर ने है कोप दिखाया

देव तरस तुम कुछ तो खाओ

अर्थबिना अधमरे लोग हैं ।

गीतों में ” किस्सागोई शैली ”  का अद्भुत प्रयोग यहाँ देखने को मिलता है । लेखिका ‘सरबतिया’ पात्र के द्वारा एक गृहस्थ-स्त्री का जीवन उकेरती है, ‘रामदीन’ के द्वारा बेरोजगार युवक का, ‘रामू’ के द्वारा गरीब – मजदूर का तथा ‘ गिन्नी ‘ के द्वारा महंगाई की मार का चित्रण करती है । रामदीन के द्वारा वो आज के बेरोजगार शिक्षित नवयुवकों की मनोदशा कुछ यूँ बयांँ करती हैं-

रामदीन का जीवन जैसे

कर्जे का पर्याय हो गया

रोज खोजता नई नौकरी

बिन खूँटे की गाय हो गया।

देशज भाषा के शब्द जो जनजीवन के काफी करीब हैं और जो विलुप्त होने के कगार पर हैं, उसका भी सुंदर प्रयोग यहाँ मिलता है  । कुछ क्षेत्रीय शब्दों का प्रयोग गीतों में देखें-  अगहन, अदहन, हंँसुली,  छाछ, तलैया, छूंछे , फुदकना आदि । देशज, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का एक प्रयोग देखें-

छूंछे- बर्तन हवा परोसें

लुढ़क रहे आंगन

अंतड़ियों में फदक रहा है

एसिड का अदहन  ।

इसके अतिरिक्त इनके गीतों में मुहावरों तथा जनजीवन में प्रचलित  लोकोक्ति और कहावतों का प्रयोग भी काव्यात्मक सौंदर्य में अभिवृद्धि कर रहा है, जैसे-  ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’, ‘घर का जोगी जोगड़ा’, ‘कोल्हू का बैल’ ,सोते ‘चना चबैना खाकर’ आदि । प्रतीक और बिंब के सहारे बहुत सारी बातें कही गई हैं । बादल, नदी, सूरज, समुद्र, मछली आदि उनके प्रिय प्रतीक हैं तो वहीं बिंब मनोरम, दृश्य ,स्पर्श और गंभीर हैं  । प्रतीकों एवं बिंबों के सहारे “अप्रस्तुत योजना”  का एक उदाहरण देखें-

चटनी रोटी

वाला जीवन

बिना बिना दूध की चाय हो गया ।

व्यंजना शब्द-शक्ति  का एक उदाहरण देखें –

एक रेतीली

नदी अब

शहर में बहने लगी है  ।

प्रकृति के विविध रूपों का  चित्रण इनके गीतों में मिलता है । मानवीकरण, प्रस्तुत-अप्रस्तुत योजना, प्रतीक योजना, बिंब योजना आदि का सुंदर वर्णन यहाँ किया गया है । प्रकृति का मानवीकरण  उनका प्रिय अलंकार है-

रंगदारी सूरज की

बांँच  रहा है गगन

हिटलर- सा

जेठ हुआ

जल उठी दिशा – दिशा

शीतलता मांग रही

हो विकल निशा- निशा  ।

अंतत: यह कहा जा सकता है कि पुस्तक ”  फिर पलाशी मन हुए ” प्रकृति और स्त्री के अंतर संबंधों का सुंदर वर्णन प्रस्तुत करती है । इस पुस्तक में संकलित गीत परिस्थितिजन्य पीड़ा तथा सामाजिक जीवन की कविता है, नये मूल्यों की खोज की कविता है तथा जन – जागृति की कविता है । लेखिका आधुनिक युगबोध को कविता में चित्रित करने के लिए पुराने पैरामीटर को बदलने और नए मार्ग बनाने की बात करती है-

निर्वसन

निर्वास जीवन

खोजती नव- सर्जनाएं

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कृति
फिर पलाशी मन हुए
गीतकारडॉ. मंजु लता श्रीवास्तव

समीक्षक

सत्यम भारती

परास्नातक द्वितीय वर्ष

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

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