सवालों से टकराती गज़लें :: स्वप्निल श्रीवास्तव
सवालों से टकराती गज़लें
- स्वप्निल श्रीवास्तव
हिन्दी के कतिपय कवि – लेखक अक्सर न लिखने के कारण ढ़ूंढ़ते रहते हैं । कभी मौसम ठीक नही है – या स्थिति मनोकूल नही है । यह लिखने से बचाव का रास्ता हैं । गज़लगों डी एम मिश्र के पास न लिखने की कोई वजह नही है – उनका लेखन नियमित चलता रहता है । वे समय के सवालों से टकराते रहते है और सत्ता को चुनौती देते रहते हैं । उनकी गज़लों की किताब -लेकिन सवाल टेड़ा है – इन्ही सवालों की पड़ताल करती है । कवि का उद्देश्य सवालों का जबाब देना नही है बल्कि जनता के सामने उन सवालों को रखना है जिसका हम सामना कर रहे हैं ।
उनकी गज़लों को पढ़ते हुये मुझे भवानी प्रसाद मिश्र की आपातकाल में लिखी त्रिकाल – संध्या सिरीज की कविताओं की याद आती है – वे आपातकाल के विरोध में रोज कवितायें लिखते रहते थे । आज की स्थिति भिन्न नही है- उससे ज्यादा संकट से घिरे हुये हैं । 2014 के बाद जो हालात पैदा हुये हैं , वे कम घातक नही हैं । डी. एम. मिश्र नियम से गज़लें लिखते है , उनकी गज़लें पत्र – पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर प्रकाशित होती रहती है । पाठकों का एक वर्ग आज भी गज़ल को प्रिय विधा मानता है । हम जानते हैं कि किस तरह हमारे नेता – राजनेता और प्रतिपक्ष दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी का उपयोग राजनीतिक उद्देश्य के लिये करते रहते हैं ।
सवाल यह है कि हम क्यों लिखते हैं, वे कौन सी स्थितियां जो हमें लिखने के लिये प्रेरित करती हैं । आज के समय में जो चुप है क्या उन्होने हर स्थिति को कुबूल कर लिया है या उनके भीतर कोई बेचैनी नही होती । ये सवाल हमारे मौजूद हैं । कुछ लोग तो इस तरह से लिखते है – सांप मर जाये और लाठी भी न टूटे – ये उस्ताद लोग है – वे सत्ता के खिलाफ भी है और उससे जुड़े हुये भी है । यह मध्यमार्ग कम संदिग्ध नही है ।
डी एम मिश्र की प्रकृति अलग है जो जो कुछ भी कहते हैं , साफ – साफ कहते हैं – कोई दुराव – छिपाव नही हैं । वे गज़लों के लिये कोई वितान नही तानते – वे बिम्ब और प्रतीक का ज्यादा इस्तेमाल नही करते । उनकी गज़लों को समझने के लिये उनकी पृष्ठभूमि को जानना जरूरी हैं – वे सुल्तानपुर के उस इलाके के रहवासी हैं , जहां रामनरेश त्रिपाठी ,त्रिलोचन, मजरूह सुल्तानपुरी . मानबहादुर सिंह जैसी विभूतियां पैदा हुई है । उनकी गज़लों को जरूर उनसे रोशनी मिली होगी । उनकी गज़लों के भीतर अवध का वह आदमी मौजूद है जो बिना लाग – लपेट के अपनी बात को सीधें कहने के लिये मशहूर हैं , वह लोक भाषा और मुहावरे में बात करता है । यह संवाद – अदायगी उनके लिखने में दिखाई देती है ।
उनकी गज़लें आम बोलचाल की भाषा में लिखी हुई हैं – जो गज़लों से नफासत और नजाकत की उम्मीद करते हैं , वे जरूर निराश होगे । यह बात बार – बार दोहरायी जाती है कि साहित्य की कोई भी विधा हो – वह पाठकों को सम्प्रेषित होनी चाहिये नही तो यह सवाल उठेगा कि हम किसके लिये लिखते हैं ।
2014 के बाद का समय हमारे इतिहास का कठिन समय है – केवल सत्ता – परिवर्तन नही हुआ है , संस्कृति और समाज के इलाके में बड़े बदलाव हुये हैं- उनके इस संग्रह के पहले संग्रह में हम इसकी बानगी देख सकते है लेकिन अब स्थिति आगे बढ़ चुकी है , यह कोविड – समय जहां हमें संकट में डाल दिया है – दूसरी तरफ हमारे सामाजिक सम्बधों को समाप्तप्राय: कर दिया है । हुकूमत अचानक रात में लाकडाउन की घोषणा कर देती है – लोग जहां तहां हैं वही ठहर जाते हैं । कवि कहता है- यूं अचानक हुक्म आया लाकडाउन हो गया/ यार से मिल भी न पाया लाकडाऊन हो गया . / गांव से लेकर शहर तक हर सड़क वीरान है / किसने ये दिन दिखाया लाकडाउन हो गया ..।
इस भयानक मंजर को गजलकार सहज भाषा में प्रकट करता है जो हमे भीतर तक बेध देता है । किसी अभिव्यक्ति के लिये भारी भरकम शब्दावली की जरूरत नही होती बल्कि उसे ऐसी भाषा में व्यक्त करना चाहिये जिसे पाठक समझ सके । यह हुनर डी. एम. मिश्रा के पास है , वे जटिल यथार्थ को आम बोलचाल की भाषा में व्यक्त करते हैं ।
डी एम मिश्र जानते है कि हमारे जीवन को दुरूह बनाने के पीछे व्यवस्था कम जिम्मेदार नही है – जिन्हें हम अपना रहनुमा चुनते है , उनका ध्यान अपने मतदाताओं पर नही होता बल्कि वे अपनी सत्ता मे बने रहने और बनाये रखने के लिये तमाम तरह कवायद करते रहते है । वे जनता को जाति – धर्म में बाट कर अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हैं । वे फरमाते हैं- कदम – कदम पे दोस्तों यहां पे खतरा है / जिधर देखता हूं कातिलों का पहरा है ../ कहां गुहार लगाऊं , कहां अर्जी डालूं / यहां का हुक्मरां कुछ सुनता नही बहरा हैं.। देखा जाय तो हुकूमत लोगों को गूंगा – बहरा बना रही है और लोग उसके खूबसूरत जाल में फंसते जा रहे हैं । दुष्यंत कुमार भी लिख चुके है – यहां गूंगे और बहरे लोग बसते हैं / खुदा जाने यहां पर किस तरह तमाशा हुआ होगा …. । इस बात को डी. एम. मिश्रा दूसरे अंदाज से कहते हैं । हम यह भी जानते हैं कि किस तरह लोगों को दिमागी रूप से गूंगा – बहरा बनाने के लिये अरबों डालर खर्च किये जाते हैं । यह किसी एक देश की स्थिति नही है , यह वैश्विक साजिश हैं ।
डी एम मिश्र दुष्यंत कुमार नही अदम गोंडवी के पथ के मुसाफिर है – दोनों का इलाका अवध है लेकिन उनका अंदाज- ए- बयां अलग – अलग है । हर शायर के मिजाज जुदा होते हैं – हर एक शायर अपने समाज और जीवन से अनुभव अर्जित करते है- उसे अपनी शायरी में ढ़ालते है – हर की अपनी टकसाल होती हैं ।
इस संग्रह को पढ़ते हुये हमें कुछ असुविधाजनक सवालों का सामना करना पड़ सकता – शायर खुद कहते है लेकिन सवाल टेड़ा है । जहां हुकूमत बेदर्द हो , वहां इस तरह के सवाल लाजिमी हैं । बहरहाल जैसे जैसे सत्ता की नृशंसता बढ़ती जायेगी , शायर को अपनी कवि मुद्रा बदलनी पड़ेगी । कवि के लिये किसी किंतु और परंतु की जरूरत नही होती , वे प्रतिरोध का रास्ता खोज लेते हैं । इस शायर में इस तरह का बांकपन तो है ही ।
………………………..
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक – लेकिन सवाल टेढ़ा है
समकालीन गज़ल संग्रह
ग़ज़लकार – डी एम मिश्र
समीक्षक – स्वप्निल श्रीवास्तव
510 – अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल – 09415332326