समकालीन कविता में रश्मिरेखा ने बनायी थी विशिष्ट पहचान :: चितरंजन
एकांत में जीवन की तलाश जोखिम भरा कार्य है. यह तलाश तब और कठिन हो जाती है, जब हमारी संवेदनशीलता मनुष्यता के रक्षार्थ खड़ी होती है. इंसान के न्याय के लिए यूं तो कई लोग मिलें परंतु रश्मिरेखा का मिलना विशिष्ट था. एक ऐसी बुद्धिजीवी जो बिना किसी लाग लपेट के यथार्थ व्यक्त कर देती थीं. उनकी शालीनता दिखावा नहीं थी, वे स्वाभाविक रूप से शालीन थीं. वास्तव में वे एक कवयित्री, एक कुशल आलोचक से आगे बढ़ कर एक सहज-सरल इंसान थीं. इंसानियत में ऐसी प्रतिमा का 15 नवंबर को दिवंगत होना, साहित्य जगत के लिए एक बड़ी क्षति है. वर्तमान समय की सबसे बड़ी चुनौती है. आडंबर रहित मानव की तलाश, इसमें रश्मिरेखा अपवाद थीं. रश्मिरेखा किसी विचारधारा से परहेज नहीं करतीं, बल्कि उसी विचारधरा की गइराई में उतरने का प्रयास करती हैं. सभी तरह के वैचारिक झंझावतों से मुठभेड़ करती, अपने आप को सामान्य बनाए रखने की कला में वे प्रवीण थीं. इन्हीं कारणों से अपने से वरिष्ठ साहित्यकारों का स्नेह उन्हें हमेशा प्राप्त होता रहा. इस संदर्भ में पहल पत्रिका के संपादक ज्ञानरंजन का नाम लिया जा सकता है. साहित्य में वे अपनी पहचान लिखकर बनाती हैं, किसी लॉबी या गुट में शामिल होकर नहीं. ‘सीढ़ियों का दुख’ (कविता संग्रह) हो या विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलोचनात्मक आलेख इसका प्रमाण है. साहित्य जगत में समकालीन कविता की विशिष्ट समझ के लिए वे जानी जाती थीं.
रश्मिरेखा का दृष्टि फलक बहुत व्यापक है. उनकी दृष्टि में सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय विद्रूपताएं बच नहीं पाती. आजादी के बाद से भारतीय लोकतंत्र के साथ निरंतर जिस प्रकार खिलवाड़ हुआ है, वह भारत की जनता के लिए बड़ी चुनौती है. सत्ता के साथ पूंजीपति उसी प्रकार चिपके हुए हैं, जिस प्रकार गुड़ के साथ चीटियां. भारतीय जनता निरीह स्थित कवयित्री के अंदर विनम्र आक्रोश को जन्म देती है. यह आक्रोश उनकी कविता कब तक में आकार पाता है. एक आम आदमी का दर्द और देश की दयनीय स्थिति को कच्चे माल की तरह कविता में इस्तेमाल करते हुए, व्यक्त करती हैं –
वादे, नारे और जुलूस की राजनीति के बीच/शब्दों के अर्थ/तस्वीरों के रंग से सूखने लगते हैँ/और मुझे नहीं मालूम/इस तिरंगे आकाश के नीचे/दुरंगी होती देश की अधिकांश राजनीति के बीच/मुझे कब तक झेलनी है/उनके अपराधों की बनती/लंबी फेहरिस्त.
सीढ़ियों का दुख कविता संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं, जो हमारे अंदर अस्तित्व-बोध पैदा करती है. चमक-दमक वाली इस दुनिया में मनुष्य निरंतर किन-किन बिंदुओं पर टूट रहा है और क्यों, इसकी पड़ताल रश्मिरेखा बखूबी करती हैं. वे मानती हैं कि मनुष्य अपने बेहतर जीवन की परिकल्पना अपनी क्षमताओं के आधार पर भी कर सकता है. रश्मिरेखा की किसी कविता को एक दूसेर से कम करके आंकना कठिन है. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ईंख कविता के मुकाबले इतनी उदास क्यों हो, कविता कम महत्वपूर्ण है. मत आना इस धरती पर, उस सुबह के लिए, समय का सच, लुकाठी, आईना आदि कविताएं भी अपना विशेष महत्व रखती हैं.
समकालीन कवियों ने कविता के जिस रूप को गढ़ा है, उसे कवयित्री एक कदम और आगे तक ले जाती हैं. कविता में भाव का संप्रेषण हो, इसके लिए जहां एक ओर ठेठ लोक प्रचलित शब्दों का प्रयोग करती हैं तो दूसरी ओर अंग्रेजी के शब्दों से भी उन्हें कोई परहेज नहीं है. रश्मिरेखा के शब्दकोश में झोला जैसे शब्द हैं, तो यूज एंड थ्रो जैसे शब्द भी. कविता में अिार् पैदा हो, इसके लिए सही शब्दों का चयन और कविता में सही जगह उन्हें नत्थी करना एक कुशल कवि का काम है, जिसे रश्मिरेखा प्रमाणित करती हैं. कविता की प्रौढ़़ता को देखकर यह नहीं लगता कि यह रश्मिरेखा का पहला कविता-संग्रह है. इस संग्रह की संवेदनात्मक विशेषता यह भी है कि कवियत्री ने यह संग्रह अपने पिता को समर्पित किया है. इससे यह स्पष्ट होता है कि रश्मिरेखा को उन संस्कारों से प्रेम है, जिनसे इंसानियत को बचाया जा सके.
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परिचय : लेखक कवि और आलोचक हैं.
संप्रत्ति : प्राध्यापक, हिंदी विभाग, ललित नारायण तिरहुत महाविद्यालय