समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में समाज
– डॉ. नितिन सेठी
कोई भी कला अपने समय,अपने समाज और अपनी परिस्थितियों से कटकर अपना सम्यक् विकास नहीं कर सकती। साहित्य के संदर्भ में भी यही सत्य है।साहित्य समाज का ही प्रतिरूप होता है और समाज को प्रतिबिम्बित भी करता है। अपने सामाजिक परिवेश से हटकर रचा जाने वाला साहित्य चिरस्थायी नहीं होता।साहित्य की अनेक विधाएँ यह कार्य करती आ रही हैं। वर्तमान में अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यमों में हिंदी ग़ज़ल का अपना अलग स्थान है। समकालीन हिंदी ग़ज़ल अपनी अभिव्यक्ति में आज अनेक तथ्य और कथ्य समेटे हुए है। किसी भी अन्य साहित्यिक विधा की तरह हिंदी ग़ज़ल में भी वर्तमान समाज की प्रखर अभिव्यक्ति हुई है। समाज की स्थूलतम और सूक्ष्मतम–दोनों ही अनुभूतियाँ हिंदी ग़ज़ल में स्थान पाती हैं। समाज सामाजिक संबंधों के जाल का नाम है। समाज एक विस्तृत और व्यापक संरचना है। इसकी मूल इकाई मनुष्य है। मनुष्य के बीच अनेक कार्य व्यवहार होते हैं, क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होती हैं, संबंधों व्यापारों के संदर्भ में आपसी लेनदेन होते हैं। इसी आधार पर समाज का विघटन और संगठन एक संतुलित स्तर पर बना रहता है। समाज की क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ, एक-दूसरे पर आश्रित होती हैं। साहित्य भी समाज की एक प्रतिक्रिया के रूप में ही हमारे समक्ष आता है। साहित्यिकार भी समाज का ही एक अंग है, एक हिस्सा है। परंतु कुछ अर्थों में वह सामान्य से थोड़ा अलग कहा जा सकता है। समाज में होने वाली घटनाओं पर साहित्यकार अपनी पैनी दृष्टि रखता है। इन घटनाओं को साहित्यकार केवल स्थूल रूप से ही नहीं देखता अपितु इनके गहरे जाकर इनका सूक्ष्म अन्वेषण करता है और इन घटनाओं के पीछे छिपे संदर्भ सूत्रों की पड़ताल करता है। साहित्यकार समाज में घटित होने वाली घटनाओं को अपने साहित्यिक शब्दों का आवरण पहनाकर उन्हें मूर्त रूप प्रदान करता है। भावनाओं को वह तथ्यात्मक रूप से उपलब्ध करवाकर उन्हें समाज के ही सम्मुख प्रस्तुत करता है। साहित्य की अनेकानेक विधाएँ इस दायित्व को बखूबी निभाती आ रही हैं। युग बदलता है तो परिस्थितियाँ भी बदलती हैं। बदलती परिस्थितियाँ नवीन अभिव्यक्तियों के आयामों के आगमन की गवाह बनती हैं। पिछले चालीस-पचास वर्षों में हिंदी साहित्य में अपने समाज,अपने कालखंड की अभिव्यक्ति करने में हिंदी ग़ज़ल का भरपूर आश्रय लिया है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि नवीन काव्यानुभूतियों को सामाजिक जनचेतना से यदि किसी भी विधा ने जोड़ा है तो वह है हिंदी ग़ज़ल। श्रृंगारिकता और सौन्दर्यान्वेषण के साँचे से बाहर आकर समसामयिकता,वैयक्तिक चेतना और युग चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति हिंदी ग़ज़ल ने की है। समाज के संदर्भ में हिंदी ग़ज़ल ने इतना कुछ रचा-कहा है कि एक प्रकार से आज हिंदी ग़ज़ल सामाजिक चेतना को मुखरित करने वाली सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्यविधा बन कर हमारे सामने आई है। दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों में सामाजिक सरोकार पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। तब से लेकर आज तक हिंदी ग़ज़ल में समाज, सामाजिक सरोकार, सामाजिकता, सामाजिक भावना जैसे अनेक चिंतन स्थान पाते रहे हैं। वरिष्ठ हिंदी ग़ज़लकार कमलेश भट्ट ‘कमल’ के शब्दों में, “दुष्यन्तोत्तर परिदृश्य में हमें सामाजिक सरोकारों के अनेक आयाम गहरे और चटक रंगों में खुलते दिखाई देते हैं। इन सरोकारों में घर,परिवार, रिश्ते-नाते, शोषण, गरीबी, फटेहाली ही नहीं;त्रासद विसंगतियाँ, राजनीतिक छल-छद्म,आतंक और पर्यावरण पर आसन्न संकट जैसी कितने ही मुद्दे शामिल दिखाई देते हैं। और तो और, सोशल मीडिया के विकास और प्रसार से जुड़ी जीवन की कौतूहलपूर्ण स्थितियाँ और विडंबनाएँ और अनेक वैश्विक महत्व के मुद्दे भी हिंदी ग़ज़लकारों की ग़ज़लों के विषय बने हैं।आप पूछ सकते हैं यदि विषयवस्तु की ही बात थी तो प्रयोगवादी कविता में तो यह सब पहले से ही आ रहा था, नवगीत भी कुछ इन विषयों पर लिखे जा रहे थे तो हिंदी में ग़ज़लों की आवश्यकता ही क्या थी। आवश्यकता थी और आज भी बनी हुई है। क्योंकि संवेदना को जिस प्रबल आवेग के साथ ग़ज़लों में व्यक्त किया जा सकता है, वैसा हिंदी की दूसरी विधाओं के साथ संभव नहीं है। दुष्यन्त कुमार ने अपने संग्रह ‘साये में धूप’ में लिखा था,“ मैंने अपनी तकलीफ को सच्चाई और समग्रता के साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए ग़ज़ल कही है।”(कमलेश भट्ट कमल,हिन्दी ग़ज़लःसरोकार,चुनौतियाँ और संभावनाएँ,पृ.57)।
आज के दौर की यदि बात की जाए तो पिछली इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से साहित्य ने अनेक नए रंग-रूप देखे हैं। हिंदी ग़ज़ल भी इससे अछूती नहीं रही। बल्कि पिछले बीस वर्षों में तो अभिव्यक्ति की प्रखरतम और सर्वाधिक प्रसिद्ध विधा बनकर पाठकों के समक्ष आई है। तेजी से बदलते जा रहे समाज इस के रहन-सहन, इसकी परिस्थितियों को हिंदी ग़ज़ल ने बड़े ध्यान से महसूस किया है और इसे शब्दायित भी किया है। वर्तमान हिंदी ग़ज़ल में समाज का यथार्थ है,विद्रोह है,संघर्ष है। समाज की विद्रूपता और अव्यवस्था का सटीक चित्रण आज की हिंदी ग़ज़ल करती दिखाई देती है।समाज की आधुनिकता और नया भावबोध भी हिंदी ग़ज़ल हमारे सामने लाई है। मानवीय मूल्यों का तिरोहित होना समकालीन हिंदी ग़ज़ल से छिपा नहीं है। आज का हिंदी ग़ज़लकार अपने यथार्थवादी दृष्टिकोण में अपने समाज और समय के युगसत्य को हमारे सामने लाता है। तेजी से बदलते जा रहे इस दौर में भूमंडलीकरण-औद्योगिकीकरण-भूगौली करण जैसे शब्द भरपूर मात्रा में प्रयोग किए जा रहे हैं। आधुनिक ग़ज़लकार इन सब बातों को अपनी ग़ज़ल का कथ्य और विषय बनाता है और समसामयिक चेतना की अभिव्यक्ति करता है।
विज्ञान ने हमें आधुनिक बातों से परिचित करवाया है। बदलती जीवनशैली, सुविधाजनक रहन-सहन, लेटेस्ट गैजेट्स आदि ने मानव जीवन के रहन-सहन का स्तर भी ऊँचा किया है। अनेक ग़ज़लकारों ने इस विषय को आधार बनाकर अपने शेर कहे हैं। इस आधुनिकता का एक दूसरा पहलू भी है। जो मजदूर ऊँची-ऊँची इमारतें बनाता है, उसी के भाग्य में इमारतों की छाँव में खड़े होने तक का सुख भी तो नहीं है। वशिष्ठ अनूप इसे इन शब्दों में बयाँ करते हैं–
एक धनवान की तो हवेली बनी
गरीबों के मुँह का निवाला गया (वशिष्ठ अनूप)
नया समाज प्राकृतिक सौंदर्य और सुषमा को भूल गया है।ए.सी. में बैठकर अपने मोबाइल के कीपैड पर ही आदमी आज सारी दुनिया नाप लेना चाहता है। इसी बात पर द्विजेन्द्र द्विज का भाव है–
बंद खिड़कियों के लिए ताजा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हों हर तरफ ऐसी दुआ लिखते हैं हम (द्विजेन्द्र द्विज)
बेरोजगारी का आलम यह है कि हर साल लाखों युवा एक से एक अच्छी डिग्री लेकर निकलता है लेकिन उसे कोई राह नहीं सूझती।अंधकारपूर्ण भविष्य उसे न जाने कहाँ-कहाँ भटकाता है। इस बात को दिनेश सिंघल यूँ अभिव्यक्त करते हैं–
रोजगारी दफ्तरों में अर्जियाँ पहने हुए
यह युवा नंगा खड़ा है डिग्रियां पहने हुए (दिनेश सिंघल)
युवा शायर के.पी. अनमोल का भी कुछ ऐसा ही भाव है–
डिग्रियां देकर कहा अब खुद बनाओ रोजगार
और हुनर की कद्र भी तुमने ना जानी सो अलग (के.पी.अनमोल)
इन्हीं सब परिस्थितियों को कमलेश भट्ट कमल अपने इस शेर में दर्शाते हैं—
बहुत उम्मीद रखता है जमाना नौजवानों से
वे सोते हैं मगर तकिए के नीचे खुदकुशी रखकर (कमलेश भट्ट कमल)
युवा पीढ़ी के रहन-सहन और समस्याओं पर एहतराम इस्लाम का शेर द्रष्टव्य है—
जी रही है अपने भूखे पेट में बारूद भरकर
यह युवा पीढ़ी जो कुंठाओं के आंगन में पली है (एहतराम इस्लाम)
लेकिन इन सबका जिम्मेदार कौन है? ध्यान से सोचा जाए तो हमारी शिक्षा व्यवस्था भी बाजारवाद के हाथों बिकी हुई है। हम पढ़-लिख तो बहुत गए हैं,शैक्षिक रूप से तो बहुत आगे बढ़ गए हैं लेकिन ज्ञान पाने का जो उद्देश्य था वह बहुत पीछे छूट गया है। अभिनव अरुण के शब्दों में—
किताबें मानता हूँ रट गया है
वो बच्चा जिंदगी से कट गया है (अभिनव अरुण)
अखबार देश-दुनिया से परिचय कराने का सफल माध्यम है। मगर आज का समाज देखकर दुख होता है कि आज के अखबार बहुत सारी ऐसी बातों से भरे और रंगे हुए हैं जिन्हें पढ़कर क्षोभ होता है, व्यथा और बढ़ जाती है। इस विषय को लेकर बहुत से शायरों ने अपनी बात कही है–
शहर की रात में सड़कों पर इतने डर निकलते हैं
सुबह अखबार के पन्ने भी खूँ से तर निकलते हैं (दिनेश सिंघल)
एक या दो दिन नहीं हर रोज डरता काँपता है
जब सुबह अखबार पढ़ता हूँ कलेजा काँपता है (कमलेश भट्ट कमल)
इंसानियत के खून की भरमार देखकर
हैरान हूँ मैं आज का अखबार देखकर (के.पी.अनमोल)
सोशल मीडिया आज के समाज की जरूरत बन चुकी है। टीवी, फेसबुक, व्हाट्सएप-मोबाइल आदि गैजेट्स बच्चों को जहाँ बहुत कुछ सिखाते हैं, वहीं उनके कोमल मन पर अनेक प्रकार के कुप्रभाव भी डालते हैं। अनेक ऐसी बातों को देख-सुनकर बच्चों के नैतिक मूल्य प्रभावित होते हैं। आज का बच्चा समय से पहले ही जवान होता नजर आता है। शारीरिक रूप से न सही, मानसिक रूप से ही। निम्नलिखित शेर में इसकी अभिव्यक्ति देखिए—
जो असर टीवी का बच्चों पर हुआ होना ही था
कार्बाइड वक्त से पहले पका देता है फल (ओमप्रकाश नदीम)
नदीम आगे भी कहते हैं—
इधर टीवी के माया जाल में उलझा दिया सबको
इधर घर-घर में दाखिल हो गया बाजार का लश्कर (ओमप्रकाश नदीम)
टीवी अपने साथ मनोरंजन तो लाता है लेकिन साथ ही साथ आकर्षक विज्ञापनों के रूप में पूरा बाजार हमारे सामने चलता-फिरता टीवी स्क्रीन पर नज़र आता है। स्वाभाविक सी बात है कि हमारा मन इन चीजों की तरफ आकर्षित होगा ही। गैजेट्स की दुनिया ने एक दूसरे के हाल-चाल पल भर में पहुँचाने का काम किया है। लेकिन चिट्ठियों के लिखने से लेकर उनका इंतजार और फिर उनके आने का मजा आज के सोशल मीडिया के गैजेट्स नहीं दे सकते हैं। कुमार विनोद के शब्द हैं—
अब नहीं लिखता कोई भी खत मुझे
डाकिया आकर मेरे घर क्या करे (कुमार विनोद)
अपने पुराने दिनों को याद करते हुए के.पी. अनमोल भी कुछ ऐसी ही बात करते हैं—
खेल मस्ती दोस्त बचपन अब भी हैं दिल में बसे
दिन मगर चलते बने हैं एक कमी को छोड़कर (के.पी. अनमोल)
गैजेट्स की दुनिया से हम इतने बंध गए हैं कि डॉ. चंद्र त्रिखा अब इन्हीं गैजेट्स पर दो पल का सुकून ढूँढना चाहते हैं। उनका एक बहुत खूबसूरत शेर है—
मन का बोझिलपन धो लें
चलो नई वेबसाइट खोलें (डॉ. चंद्र त्रिखा)
डॉ. भावना भी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं—
फूल पत्ती पर अब तक लिखा है बहुत
आदमी है तो हम आदमी पर लिखें (डॉ. भावना)
विज्ञान पर हम इतना आश्रित हो गए हैं कि हमारी संस्कृति भी अब अपना रूप बदलने लगी है।हाईटेक कल्चर दर्शाता अभिनव अरुण का शेर है—
दर्शनों को नेट पे भी आने लगे हैं
देवता अब फूल फल खाने लगे हैं
भक्तजन के घर नहीं जाते पुरोहित
एटीएम से दक्षिणा पाने लगे हैं (अभिनव अरुण)
उफ अकेलापन ये कितना बढ़ गया है
सब के मोबाइल में केवल सेल्फियाँ हैं (प्रताप सोमवंशी)
महानगरीय सभ्यता किसी भी देश के विकास और वैभव का प्रमाण होती है। कोई देश कितना विकसित है, यह उसके महानगर और उसमें रहने वाले उसके निवासी ही दर्शाते हैं। अच्छी बात है कि आज के महानगरों में सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ, जीने के सामान चुटकी बजाते ही उपलब्ध हैं। लेकिन कहीं न कहीं इस भागदौड़ वाले महानगरों में ऐसा जरूर हुआ है कि अपने दिल का चैन खो सा गया है। ऐसी परिस्थितियों पर ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं—
कोई समझता नहीं दोस्त बेबसी मेरी
महानगर ने चुरा ली है जिंदगी मेरी (ज्ञानप्रकाश विवेक)
आदमी दो पैसे कमाने के लिए अपने काम में दिन-रात खटता है। घर जाकर भी उसे अपने परिवारीजनों के बीच सुख-चैन पाने की फुर्सत नहीं है।यहाँ भी तो ऑफिस उसका पीछा नहीं छोड़ता। विज्ञान व्रत कहते हैं–
पापा घर मत लेकर आना
रात गए बातें दफ्तर की (विज्ञान व्रत)
यहाँ ‘रात गए’ अपने आप में एक बहुत बड़ी त्रासदी,बंधन और काम के बोझ तले दबे हुए आदमी की अभिव्यक्ति करता है। महानगरों में भले ही सुख-सुविधाएँ बहुत हैं लेकिन इन सुख-सुविधाओं के लिए एक बड़ी कीमत भी तो चुकानी पड़ती है–
बहुत दिलकश है तेरा शहर लेकिन
यहाँ घर का किराया काटता है (विकास शर्मा राज)
आदमी की जिंदगी एक अंधी दौड़ की तरह बनकर रह गई है। भागता-दौड़ता शहर और उस शहर में एक लाचार सा आदमी। आचार्य सारथी रूमी का शेर है–
देखता हूँ हर घड़ी हर एक सड़क हर मोड़ पर
एक अँधी दौड़ में लाचार होता आदमी (सारथी रूमी)
महानगरों का जीवन धन की दौड़ का जीवन है और यह दौड़ भी अकेले ही आदमी को लड़नी है। अशोक अंजुम इस बात को यूँ अभिव्यक्त करते हैं–
सभी रिश्तों औ’ दीवारो-दर से दूर रखता है
यह चक्कर पेट का कितनों को घर से दूर रखता है (अशोक अंजुम)
बड़े शहरों में रहन-सहन की समस्याएँ भी होती ही हैं। अक्सर ऐसा होता है कि गाँव में रहने वाले लोग थोड़ा सा धन लेकर शहर की ओर कूच कर जाते हैं। गाँव के घर को या तो बेच दिया जाता है या अपने हिस्से को लेकर लोग अलग हो जाते हैं। बँटवारे के नाम पर अक्सर मनमुटाव जैसी स्थितियाँ भी पैदा हो जाती हैं। बँटवारा केवल जमीन-जायदाद का ही नहीं होता बल्कि घर का और दिलों का भी होता है। कृष्ण शलभ का शेर है—
यह पुरखों का घर बँटते ही कितना कुछ बँट जाएगा
इस अनहोनी की आहट से डरती रामजनम की माँ (कृष्ण शलभ)
बेजुबां रह गया यकलख़्त जो भाई बोला
तेरा कमरा है उधर और इधर मेरा है (डॉ. महेंद्र अग्रवाल)
दिनभर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी इस महंगाई के दौर में आदमी को दो वक्त की रोटी कमाना दूभर है। तनख्वाह तो जैसे पूर्णिमा का चाँद है जो माह में एक-दो दिन की ही खुशी देती है। कृष्ण कुमार ’नाज़’के शब्दों में—
घर में सबकी अपनी ख्वाहिश सबकी अपनी फरमाइश
आज हमें तनख्वाह मिली है हम भी इज्जतदार हो गए (कृष्ण कुमार ‘नाज़’)
हिंदी ग़ज़ल ने समय की धड़कन को पहचाना है और इसकी यथार्थ अभिव्यक्ति दी है। जनधर्मिता और जीवन की सच्चाइयाँ हिंदी ग़ज़ल ने पूर्णतया अभिव्यक्त की हैं। आज के समाज का एक महत्वपूर्ण सत्य है बाजार। बाजार जब बाजार रहता है लोग इसमें खरीदारी करते हैं। परंतु एक समय ऐसा भी आ जाता है कि आदमी स्वयं बाजार के हाथों बिकने लगता है। उस समय उपभोक्ता स्वयं उपभोग की वस्तु बनकर रह जाता है।आज का बाजार इंसान के साथ-साथ इंसानियत को भी बेचने पर आमादा है। हस्तीमल हस्ती अपने शेर में इसे यूँ अभिव्यक्ति देते हैं—
किसी महफिल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गई बाजार में बिकती हुई चीजें (हस्तीमल हस्ती)
कृष्ण कुमार ’नाज़’ के शब्दों में—
जेहन से उलझा हुआ है मुद्दतों से यह सवाल
आदमी सामान है या आदमी बाजार है (कृष्ण कुमार नाज़)
विनय मिश्र मीठी यादों के सरमाये को लेकर दुनिया के बाजार में आकर व्यथित हैं। उनका शेर देखिए–
कभी यादों के झुरमुट में जहाँ चौपाल सजती थी
वहीं मैं देखता हूं अब खुला बाजार लगता है (विनय मिश्र)
रिश्ते-नातों की कड़वी सच्चाई अशोक अंजुम के इस शेर में भी है–
जिस तरफ देखिए रिश्तों की बोलियाँ हैं उधर
सारी दुनिया मुझे बाजार नज़र आती है (अशोक अंजुम)
समाज का बनावटीपन इतना अधिक है कि हम कुछ नया सोच ही नहीं पाते हैं।बाजार हमें अपने हाथों से हमारे रहन-सहन को दुनिया में धकेल रहा है। ए.एफ. नज़र का निम्नलिखित शेर बहुत महत्वपूर्ण बात कहता है—
घुटन है यास है लाचारियाँ हैं
नये युग की नई बीमारियाँ हैं
ये विज्ञापन का नीला दौर जिसमें
खयालों पर भी पहरेदारियाँ हैं (ए.एफ.नजर)
बाजार के इस भूमंडलीकरण के दौर में वैश्वीकरण का असली रंग दर्शाते हुए रोशन लाल ‘रौशन’ लिखते हैं–
यहाँ वैश्वीकरण का अर्थ इतना ही निकलता है
कहीं पर जाल फेंका है कहीं बैठा शिकारी है (रोशन लाल ’रौशन’)
कुमार नयन भी आदमी की पहचान को लेकर चिंतित नजर आते हैं–
घर से लेकर मंडियों तक है खरीदारों की भीड़
खुद को बिकने से बचाने के जमाने आ गए (कुमार नयन)
कामगार मजदूर दिनभर की हाड़-तोड़ कठिन मेहनत के बाद दो वक्त की रोटी कमा पाते हैं। जैसे उनके जीवन का लक्ष्य केवल रोटी कमाना और खाना ही रह गया है। मजदूरों का जीवन दर्शाता वरिष्ठ ग़ज़लकार महेश कटारे ‘सुगम’ का यह शेर द्रष्टव्य है—
काम पर एक फूँक लेकर चल पड़े कल्लू मियाँ
बस सुबह की भूख लेकर चल पड़े कल्लू मियाँ
छोड़ना घर पड़ रहा है पेट की खातिर उन्हें
दर्द का संदूक लेकर चल पड़े कल्लू मियाँ (महेश कटारे ‘सुगम’)
देवेंद्र आर्य मजदूरों के नाम पर होने वाले आयोजनों का सच दर्शाते हैं–
बदला तो कई बार किताबों में ये मौसम
मजदूर के माथे का पसीना नहीं बदला (देवेंद्र आर्य)
बी.आर. विप्लवी समाज के इस बदलाव को इस तरह दर्शाते हैं—
ठहरे हुए पानी में लहर देख रहे हैं
अमृत की सुराही में जहर देख रहे हैं (बी.आर. विप्लवी)
डॉ सुरेंद्र सिंघल मशीनी होती हुई जिंदगी को यूँ दर्शाते हैं—
एक पगडंडी जो आँखों में बिछी है अब तक
आज उस पर भी लपकती हैं शहर की सड़कें (डॉ. सुरेंद्र सिंघल)
आज की बनावटी दुनिया अपने बाहरी रूप और रंग में तो बहुत चित्ताकर्षक लगती है लेकिन इसका सच कुछ और है। बेजान जिस्मों पर नकली मुस्कानें सजाए आदमी अपनी जिंदगी जिए जा रहा है।रामकुमार कृषक की दृष्टि इस तथ्य को देखती है। तभी वे लिखते हैं—
चेहरे तो मासूम मुखौटों पर मुस्कानें दुनिया की
शोकेसों में सजी हुई खाली दुकानें दुनिया की (रामकुमार कृषक)
इसी तरह अपनी बनावट की दुनिया की सजावट में हमने कुदरती अमानतों को भी भुला दिया है। हर चीज में नकल को सफल करने के असफल प्रयास हम करने में व्यस्त हैं। इस बात को राम मेश्राम के शब्दों में देखिए—
फाइबर का पेड़ हमको किस तरह प्यारा लगे
आज कुदरत का हरापन हमको नाकारा लगे (राम मेश्राम)
स्पष्ट है की समकालीन हिंदी ग़ज़ल अपने सामाजिक सरोकारों से दूर नहीं है बल्कि समाज के प्रत्येक रंग रूप और आयाम को अभिलेखित करती आज की हिंदी ग़ज़ल अपनी अभिव्यक्ति में पूर्ण ईमानदारी से समाज का प्रतिचित्रण कर रही है। हिंदी ग़ज़लकार इस दिशा में सदैव प्रयासरत रहे हैं कि यथार्थ का शाब्दीकरण हिंदी ग़ज़ल में हो । समाज का सच्चा रूप हिंदी ग़ज़ल में मिलता भी है।
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परिचय : डॉ. नितिन सेठी, सी-231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005), मो. 9027422306
हिंदी ग़ज़ल का जनधर्मी पक्ष पाठक के सामने प्रस्तुत करता है यह लेख। नितिन जी को हार्दिक साधुवाद।