लाल दुख.. | रोशनी या ताप | स्त्री..... |
---|---|---|
दुःख तो हमेशा से ही सदाबहार रहा है पर उसमें खिलने वाले फूल .... वो फूल... जो किसी स्त्री की देह के लिए ही खिलते हैं निश्चित ही.... सुर्ख़ लाल रंग के होते होंगे सटा के देखिये ...कोई भी स्त्री से लाल रंग बेहद फबेगा ... चाहे शरीर से रिसता हो या ...सिंदूर सा चिपका हुआ ये लाल फूल वालाः दुःख ही है ..... जिसे धारण कर वो अपने होने का सुख बांचती फिरती है वो इम्तेहान देती रहती है उस पल ..... हर माह .... हर उम्र में और परिणाम भी ... परिमाण भी रक्त सा सुर्ख़ ही लगता है उसके दामन में ये सुर्ख़ फूल किसी और का सुख होता तो जरूर होगा वर्ना ... हर मौसम हर सदी स्त्री खूबसूरत कैसे लग सकती है ? वो भी...... बिना श्रृंगार फूल किसके लिए बोझ हुए हैं भला ? और स्त्री के लिए.... उसकी देह के लिए .... कभी सोचना भी मत लाल दुःख उसके वजूद में घुल गया है उसके अंतर्मन में रिस गया है लाल दुःख स्त्री ने अपने केश में टांक दिया है | मैं अटारी पर रखी रोशनी ही हूँ ... ये तो तुम्हारी सहूलियत है कि तुम मुझे दिन के उजियारे में दमकता कम ..... रात की कालिख में टिमटिमाता देख कर खुशी जाहिर करते हो मैं भी खुश हो लेती हूँ.... जवाब नहीं मांगती ना रोशनी सुकून में रहो जिस रोज़ तक दीये कि लौ ताप नहीं बनती ताप रात दिन नहीं देखता .... बस झुलसा जाता है जरा खुद को बचा के चलना मुझसे उस रोज़ किसी रोज़ तो शब्द खर्च करूँगी ना अटारी पर शब्दों की ढेरियां भी तो जमा है रोशनी वाली अलग और ........वो ताप वाली अलग | अपनी रत्ती भर राख आज आखिरकार उसने कागज़ पर धर ही दी इक लौ जंगलों तक पैदल पैदल पहुंची फिर दावानल रच दिया शहर आसमान दरिया सब सेंक कर रख दिया वो आज भभकी नहीं .....सूखी घास सी लौ में कुंदन सी दूर तक आंच ले गई आंचल में सुन्दर ....सुर्ख़ ....शब्दों में बेबाक हो गई लोग आहत बेहद आहत कुछ मूक विस्मित भी तुम आज कागज़ पर शब्दों सी प्रखर हो रूमानी अग्नि सी ..... बेहद ठोस स्त्री तुम लिखने लगीं तभी चुभने भी लगीं यलगार हो...... |
सफ़र.... | मैं...... | औरत..... |
अक्सर कॉफी टेबल को छोड़ कर जाते हुए हम अपना एक बड़ा हिस्सा खाली कप की तह पर छोड़ आते हैं मुलाकात शब्दों की होती है और तो और कॉफी भी शायद आंखें ही पीती हैं जुड़ती तो सिर्फ़ मुस्कान है मिलना तय नहीं होता तय तो सफर होते हैं बैठे बैठे अगले ... पिछले ... और शायद आने वाले सभी उसी कॉफ़ी टेबल पर | रूह का मोती.... सिर्फ मैं ही महसूस कर सकती हूँ सिर्फ इस लिए कि ......मेरी बूँद तुम्हारे सीप में तुम्हारे समुन्दर की तुम्हारी गहराईयों में तुम्हारी हिसाब से बंद हो गयी और मेरे मोती होने को प्रमाणित करेगी ऐसा कत्तई नहीं होगा मैं ऐसा होने नहीं दे सकती सीप की घुटन पी है मैंने उसका अँधेरा जिया है मैंने उसकी जकड़न पता है मुझे उस एकाकीपन को जानती हूँ मैं तभी मोती बन पायी हूँ खुद से खुद को तराशा है मैंने मल मल के चमकाया है खुद को इसीलिए तुमसे जरा अलग हूँ मैं पीला टूटा सीप हो गए हो तुम पर अब भी चमकती हुई मोती हूँ मैं | सुनो! बूझो मत उसे ,महसूस करो छू कर देखो ये जो कुछ मैं अगली पंक्तियों में लिखूंगी ... इक गीत है पर मीठा नहीं इक किस्सा जो होता नहीं करीब है मेरे .... बेहद करीब तह में ....कभी सतह में वो वज्र भी है ....मोम भी निर्वात भी और.... व्योम भी टूटी .... झुलसी ... कुरेदी हुई.... फिर भी इक शक्ति गुलाब नहीं ... कोई कंटक जंगली लगे औरत सी कभी देवी ....पत्थर सरीखी इधर उधर बिकती हुई रोज़ रोज़ दिखती हुई .. उसे पूछा जाना मायने नहीं रखता वो कहती भी नहीं बस रह जाना चाहती है इन आँखों में.....इस आसपास की चुप में उसे हो जाने दो उसे रह जाने दो मुझे रोक लो अब इससे ज्यादा कुछ कहने से उससे प्रेम कत्तई ना करो बस मेरी पंक्तियों में उसे इक बार सुन भर लो |
……………………………………………….
परिचय : मुख्य अध्यापिका, केंद्रीय विद्यालय, प्रगति विहार, लोधी रोड, दिल्ली
मो.- 09899809960
ब्लॉग – mukharkalpana.blogspot.in