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दर्द से, रंज से, तकलीफ़ से हलकान हैं हम,
इतनी आबादी में रहते हुए वीरान हैं हम।
इन दिनों ख़ौफ़ का बेचैनी का उन्वान हैं हम,
एक बे-देखे से दुश्मन से परेशान हैं हम।
ग़म की ये धुंध छटेगी तो खुलेगा ये भी,
किन मसाइल के सबब दर्द का दीवान हैं हम।
इस मुसीबत में भी लोगों का बुरा चाहते हैं,
शर्म आती है ये कहते हुए इंसान हैं हम।
जिसको देखो वो हिफाज़त की क़सम खाए है,
ऐसा लगता है कि लूटा हुआ सामान हैं हम।
हद तो तब हो गई ‘अन्जुम’ कि कोरोना के लिये,
हैरतें चीख़ के कहने लगीं हैरान हैं हम।