दिन कटे हैं धूप चुनते
रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते।
प्यास लेकर
जी रहीं हैं
आज समिधाएँ नई
कुण्ड में
पड़ने लगीं हैं
क्षुब्ध आहुतियां कई
भक्ति बैठी रो रही अब
तक धुंए का मन्त्र सुनते ।
छाँव के भी
पाँव में अब
अनगिनत छाले पड़े
धुन्ध-कुहरे
धूप को फिर
राह में घेरे खड़े
देह की निष्ठा अभागिन
जल उठी संकोच बुनते ।
सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना
वस्त्र के
झीने झरोखे
टांकती अवहेलना
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते ।
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक
स्वप्नों की
समिधाएं लेकर
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित
नैतिकता के घर
आओ हवन करें।।
शमित सूर्य
सा बोझिल तर्पण
आयासित सम्बोधन,
आवेशित
कुछ घनी चुप्पियां
निरानन्द आवाहन।
निराकार
साकार व्यवस्थित
ईश्वर का अन्वेषण,
अंतरिक्ष
के पृष्ठों पर भी
क्षैतिज चयन करें।।
आरोपित
आलम्बित हर क्षण
आशाओं के आसन,
शापित
अनुरोधों का ही अब
होता है निष्पादन,
त्रुटियों का
विश्लेषण करतीं
आहत मनोव्यथाएँ,
अर्थहीन
वाचन की पद्धति
चिन्तन-मनन करें।।
बरगद के नीचे
पौधों का
टूट रहा सम्मोहन,
भोजपत्र की
देवनागरी
लिपि जैसा है जीवन।
संस्कृत-सूक्ति
विवेचन-दर्शन
सूत्र-न्याय सम्प्रेषण,
नैसर्गिक
व्याकरण व्यवस्था
बौद्धिक यजन करें।।
आओ समकालीन बनें
चुभन
बहुत है वर्तमान में
कुछ विमर्श की बातें हों अब,
तर्क-वितर्कों
से पीड़ित हम
आओ समकालीन बनें।
सोच हमारी
नहीं बदलती
अरसा पहलेवाली है,
अंतिम
सोच विचारों वाली
क्षैतिज कार्य प्रणाली है।
वर्तमान
को खूब संजोया
निश्छल होते अनुरागों ने,
जो यथार्थ
की धुन बजवाये
आओ ऐसी बीन बनें।।
नैसर्गिकता
खँडहर जैसी
अवशेषी दहलीजों पर,
रेखाएँ
सीमायें-खाँचे
हर घावों में नश्तर,
कथ्यों को
प्रामाणिक कर दें
गढ़ दें अब अक्षर-अक्षर,
अंधकूप से
बाहर निकलें
थोड़ा और नवीन बनें।
घटनाओं
से जुड़कर ही
तारीखें बदलीं जाएं,
मुखड़े पर
मुखड़े को रखकर
तस्वीरें खींचीं जाएं,
कथनी करनी
कूटनीति से
शब्द हो रहे घायल,
दर्द समझकर
मुँह लटका लें
आओ कुछ ग़मगीन बनें।
आँगन की बूढ़ी खाँसी
सही नहीं
जाती है घर को
आँगन की बूढ़ी खाँसी।।
दरवाजे पर करती रहती
साँसों से प्रतिवाद,
बाँच पोथियाँ ज्ञानी जैसा
करती है संवाद,
दीवारें,खिड़कियां
सीढियां
लेने लगीं उबासी।।
धोखे में ही बीत गया है
अरसा लम्बा हिस्सा,
बीमारी के दलदल में ही
जीवन भर का किस्सा,
वसा विटामिन
रहित सदा ही
मिलता भोजन बासी।।
सहयात्री के साथ नया
अनुबन्ध नहीं हो पाया,
छतें,झरोखे,अलगनियों
के साथ नहीं रो पाया।
पीड़ाओं का
अंतर भी अब
है घनघोर उदासी।
5. कब उठेगा शोर,किस दिन
चुप्पियों के मरुस्थल में
बड़बड़ाती हैं हवाएँ
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
अट्टहासों की नटी के
हाथ काली तख्तियाँ हैं
हर सड़क पर उलझनें हैं
दर्पणों में भ्रांतियाँ हैं
टेक घुटने गिड़गिड़ाती
संस्कारी वर्जनायें
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
हर समय आखेट का भय
अग्निपंखी बस्तियों में
चोट खाये शब्द व्याकुल
हैं सुबह की सुर्खियों में
अवसरों की ताक में हैं
भीड़ की भौतिक दशायें
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
कहकहों के क्रूर चेहरे
क्रोध में सारी दिशायें
रक्तरंजित हो चुकीं हैं
विश्ववन्दित सभ्यतायें,
शीतयुद्धों में झुलसती
जा रही संवेदनायें
कब उठेगा शोर,किस दिन ?
रात लम्बी है बहुत ही
और है गहरा अँधेरा
मौन बैठा है क्षितिज पर
ऊँघता सा फिर सवेरा,
साजिशों के पास गिरवी
अस्मिता की धारणाएँ
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
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परिचय : कवि अवनीश त्रिपाठी की कविता व गीत के तीन संग्रह प्रकाशित हैं.
स्थाई पता : पता-ग्राम/पत्रालय-गरएं, जनपद-सुलतानपुर, उप्र, पिन-227304