महका हरसिंगार
खुली रह गई खिड़की मन की,
महका हरसिंगार रात भर।
शीतल मलयानिल रजनी के,
जूड़े में ध्रुव टाँक रहा था।
बिखराता ज्योत्स्ना अजिर में,
सुघर चंद्रमा झांक रहा था।
सिकता-कण रख अधराधर पर,
तुला सकल व्यापार रात भर।
साँस-साँस पर मुखरित रागों ने,
प्रशांत चुप्पी साधी थी।
सीमित थे अधिकार अधिप के,
उर पर विधि की निधि बाँधी थी।
अनुमानों के आरोहण ने,
लाँघे पारावार रात भर।
यह सुरभित तट नहीं लिखा जाता,
किंचित जीवन प्रबन्ध में।
बस जाता है धीरे-धीरे,
एक अनलिखे मरु निबन्ध में।
निद्राओं से चिरनिद्रा तक,
स्वप्नों का संसार रात भर।
एक अंजलि धूप
एक अंजलि धूप पीकर गुनगुना लो,
कौन जाने रात फिर कितनी बड़ी हो।
हो चुका अपराह्न सन्ध्या चल चुकी है,
प्राण के पक्षी बसेरा चाहते हैं।
तप रहे तरु नग्न नव पल्लव प्रतीक्षित,
किसलयी फिर से सबेरा चाहते हैं।
क्यों न सुरभित कोष पी लें मधु अभी ही,
चाँदनी फिर साथ ले आँधी खड़ी हो।
बिन नहाए लौट आये धार से जो,
छू रही थी तट लहर से बात कब की।
भग्न निष्पन्दित हृदय की वल्लरी तो,
सरसती पर नयन ने बरसात कब की।
बन्धनों से मुक्ति क्या मिलना असम्भव,
हो न हो यह फूल वाली हथकड़ी हो।
यह कथा का सर्ग हो अंतिम सुवासित,
या दुखांतों से भरा आँसू पिए हो।
है यही पल जी सको जीवंत कर लो,
प्रेम पावन है करो जो कुछ किये हो।
वांछित अमरत्व यदि सुकरात पी ले
गरल, तब अनुभूति की अंतिम घड़ी हो।
निद्राएँ निःशेष
टूटे सपने, रूठे अपने, यह ही हुआ विशेष।
निद्राएँ निःशेष।
अंध प्रगति की लँगड़ी दौड़ें
और हवा प्रतिकूल।
कंकरीट पर बिछे नुकीले
स्पर्धा के शूल।
सोंधी मिट्टी स्वप्न हो गई गाँव हुआ परदेश।
निद्राएँ निःशेष।
फागुन की रसवन्ती होली
नकलों भरी धमार।
तरस गईं भेंटना भुजाएँ
वह निर्मल व्यवहार।
मतलब के कुछ यार शहर का मौन कुटिल परिवेश।
निद्राएँ निःशेष।
चाहों के अनगिनत मोर्चे
सम्भावित दुर्धर्ष।
रात गये तक बिना सारथी
अर्जुन का संघर्ष।
लाक्षागृह से निकल यक्ष प्रश्नों से अनगिन क्लेश।
निद्राएँ निःशेष।
पाँखुरी भर गीत
महकता उपवन, मिले यह पाँखुरी भर गीत।
गा न पाया कंठ स्वर की बाँसुरी भर गीत।
एक स्वर आकाश गंगा
एक स्वर धरती।
प्राण हैं व्याकुल कहीं पर
साधना डरती।
रूप के घनघोर सावन बीजुरी भर गीत।
जो अधर पर डाल डेरा
हृदय तक पैठे।
आँधियों को कर समर्पित
याद ले बैठे।
प्रेम की उस पीर वाली माधुरी भर गीत।
चाह चहकी, चाहती
रससिक्त वह उद्गार।
तान की संतृप्ति भर
नाचे सकल संसार।
हो न पाए किन्तु सुष्मित की धुरी भर गीत।
[
निरंकुश उन्माद4
निरंकुश उन्माद के पथ पर कुचलकर
क्या कहूँ सौहार्द कितनी बार रोये।
मर गए सपने अभागी एकता के
तथ्य निकला कामना ने छद्म ढोये।
पक्ष के करतल अभागे लौट आये
तालियाँ नि:शब्द मुखरित गालियों सी।
त्रिपथगा संस्कृति प्रदूषित हो गई जो
दे रही दुर्गंध गँदली नालियों सी।
क्यों न चिंतन हो पुरा विश्वास पर अब
मरुस्थल में क्यों गये जलजात बोए।
दासता के दंश, अत्याचार, सर दे
शेष जो जीवित बचे, दृढ आस्था थी।
दिव्य आहुति अस्मिता जलती चिताएँ
तेज, व्रत था ज्वाल जौहर की प्रथा थी।
शौर्य वह राणा, शिवा, गोविन्द गुरु का
रक्त सरि में कायरों के शीश धोए।
देश का वैविध्य विकसित हो धरा पर
शांति, समता और सीमा रीतियों की।
एक अंकुश हो सजग सर्वत्र विधि का
हो समीक्षा फिर अपाहिज नीतियों की।
राष्ट्र का परिवेश निर्मल बंधुता का
स्वप्न सुंदर शांति मन माला सँजोये।
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परिचय : कमल किशोर मिश्र ( कमल ‘मानव’) का एक गीत-संग्रह चन्द्रमा के मधु शिविर में प्रकाशित है. पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती है.
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