1
प्रिय मल गए गुलाल
पतझर-सा यह जीवन जो था
क्लांत, दुखद, बेहाल
उसमें तुम फागुन-सा आकर
प्रिय मल गए गुलाल
ग़म को निर्वासित कर तुमने
मेरा मोल बताया
जो भी था अव्यक्त उसे
अभिव्यक्त किया समझाया
उत्तर तुम हो और तुम्हारे
बिन मैं सिर्फ सवाल
आज प्यार का स्वाद मिला है
जिह्वा फिसल रही है
थिरक रहे अंतर के घुँघरू,
चाहत मचल रही है
चुप थे जो मधु-वचन हृदय के
हुए पुन: वाचाल
कहाँ बीतते थे दिन पल में,
युग जैसे दिन थे वो
नहीं घड़ी की प्रिय वो सुइयाँ
चुभते से पिन थे वो
आए हो तुम तो लगता है
पल-पल रखूँ सँभाल
2
सारे दिन की
थकन मिटाते
तुम ज्यों मेरी चाय
बातों में
अक्सर परोसना
मीठा औ नमकीन
कितनी खुशियाँ
भर देते हैं
फ्लेश बैक के सीन
मुस्कानों का
तुम बन जाते
हो अक्सर पर्याय
कितना कुछ
हल कर देती है
अदरक जैसी बात
लौंग, इलायची
बन जाते हैं
प्रेम भरे जज्बात
जितनी भी
जो भी शिकायतें
हो तुम सबका न्याय
तुम बिन कहाँ
शाम भर पाती
इस मन में उल्लास
सच पूछो तो
मेरे होने
का तुम हो आभास
पल दो पल
जो साथ मिल रहे
वह ही मेरी आय
3
जब-जब मैंने गीत लिखे तो
हरसिंगार झरे गीतों से
आँखों से आँखों की बातें
मन से मन का नेह बताते
गीत, प्रीत के कमल कोष में
अक्सर बन मधुकर सुस्ताते
जिसने मन को तृप्त कर दिया
वे अभिसार झरे गीतों से
गीत हृदय के अहसासों का,
स्वर ध्वनियों का शब्द-चित्र है
भागदौड़ में वक़्त खुरचकर
सुख-दुख की आपीधापी में
साथ रहा जो वही मित्र है
जीवन के इस महाग्रंथ के
सारे सार झरे गीतों से
जितना प्यार चाहती जग से
सारा प्यार गीत में भरकर
गीत सदृश मैं स्वयं हो गई
गीतों में दिन-रात उतकर
शाख हिलायी जब गीतों की
हृद आभार झरे गीतों से
4
बिना नमक की सब्जी-सा
था फीका-फीका दिन
मीत तुम्हारे बिन
मन का मानसरोवर गुमसुम
चुप-चुप था ठहरा
लहरों की आवाजाही पर
नींदों का पहरा
नहीं चली पुरवाई कोई
पेड़ नहीं झूमा
बिना तुम्हारे मुस्कानों ने
ज्यों पारा चूमा
घड़ियों की भी चाल हुई थी
किसी दुल्हन जैसी
बढ़ती सुइयाँ आगे हौले-हौले
पग गिन-गिन
मीत तुम्हारे बिन
बिना तुम्हारे मन-मरुथल में
उड़ती थी रेती
मुरझाईं खुशियाँ जैसे बिन
पानी के खेती
बिन पंछी के जैसे सूना-सूना
पड़ा गगन
बिना तितलियों के जैसे फूलों
वाला उपवन
चाहा काम करूँ कुछ लेकिन
मन ही नहीं लगा
चुभा रही थीं यादें भी रह-रह
कर मुझको पिन
मीत तुम्हारे बिन
कोई स्वाद नहीं था जैसे
कोई रंग नहीं
अँधियारे जंगल में जैसे
कोई संग नहीं
कुहरे वाले दिन में जैसी
होती हैं गलियाँ
जेठ महीने में जैसे
दुबलाती हैं नदियाँ
एक उदासी बादल बनकर
मेरे साथ रही
बिन काजल के बैठी थीं ये
आँखें बंजारिन
मीत तुम्हारे बिन
5
माँ के घर जाकर आती हूँ,
बहुत दिवस बीते
थोड़ा रखना ध्यान स्वयं का
जल्दी आऊँगी
घड़ी, चाभियाँ, मोजा, पर्स
रुमाल चिढ़ाएँगे
आँखमिचौली खेल-खेलकर
तुम्हें सताएँगे
कहीं नमक के धोखे में
चीनी ना पड़ जाये
यही सोचकर हर डिब्बे पर
लेबल चिपकाये
नहीं मिले सामान अगर
हैरान नहीं होना
मुझे लगाना कॉल प्रिये
मैं जानूँ हर कोना
मोबाइल पर मैं सारी
मुश्किल सुलझाऊँगी
थोड़ा रखना ध्यान स्वयं का
जल्दी आऊँगी
तुलसी में जल और साँझ को
दीपक धर आना
शीशे पर चिपकी बिंदिया से
कुछ पल बतियाना
स्वर्णिम यादों की एल्बम
को यूँ ही दुहराना
‘दूरी लाती पास’ यही
तुम मन को समझाना
खिड़की, आँगन, दीवारें
होंगे गुमसुम सारे
बातों के मौसम लेकर
फिर आऊँगी प्यारे
अधिक दिनों तक दूर नहीं
मैं भी रह पाऊँगी
6
बेटी ! तुम हो ख़ुशी हमारी
तुम हो हरसिंगार
किलकारी से तुम करती हो
घर-आँगन ग़ुलज़ार
तुम पापा जैसी दिखती हो
उनकी लघु प्रतिरूप
तुम सूरज की किरणों-सी हो
तुम हो नन्ही धूप
तुमको बढ़ते देख बढ़ रहा
रोज़ हमारा प्यार
है बेहद अनमोल तुम्हारी
भोली-सी मुस्कान
तुममें ही तो बसी हुई है
हम दोनों की जान
हम दोनों को करने आयी
तुम ज्यों एकाकार
तुमसे ही उत्सव है हर पल
त्योहारों- सी भोर
बाँधे रखती है जो हमको
तुम वो नेहिल डोर
तुमको पाकर रोज़ करूँ मैं
ईश्वर का आभार
…………………………………………..
परिचय : गरिमा सक्सेना दो काव्य और दोहा संकलन प्रकाशित हो चुका है. कई पत्र-पत्रिकाओें में इनकी रचनाएं प्रकाशित हैं.
वर्तमान संपर्क : मकान संख्या- 212 ए- ब्लॉक, सेंचुरी सरस अपार्टमेंट, अनंतपुरा रोड, यलहंका, बैंगलोर, कर्नाटक-560064
मो : 7694928448
जितना प्यार चाहती जग से
सारा प्यार गीत में भरकर
गीत सदृश मैं स्वयं हो गई
गीतों में दिन-रात उतकर
शाख हिलायी जब गीतों की
हृद आभार झरे गीतों से
4
बिना नमक की सब्जी-सा
था फीका-फीका दिन
मीत तुम्हारे बिन
मन का मानसरोवर गुमसुम
चुप-चुप था ठहरा
लहरों की आवाजाही पर
नींदों का पहरा
नहीं चली पुरवाई कोई
पेड़ नहीं झूमा
बिना तुम्हारे मुस्कानों ने
ज्यों पारा चूमा
घड़ियों की भी चाल हुई थी
किसी दुल्हन जैसी
बढ़ती सुइयाँ आगे हौले-हौले
पग गिन-गिन
मीत तुम्हारे बिन
बिना तुम्हारे मन-मरुथल में
उड़ती थी रेती
मुरझाईं खुशियाँ जैसे बिन
पानी के खेती
बिन पंछी के जैसे सूना-सूना
पड़ा गगन
बिना तितलियों के जैसे फूलों
वाला उपवन
चाहा काम करूँ कुछ लेकिन
मन ही नहीं लगा
चुभा रही थीं यादें भी रह-रह
कर मुझको पिन
मीत तुम्हारे बिन
कोई स्वाद नहीं था जैसे
कोई रंग नहीं
अँधियारे जंगल में जैसे
कोई संग नहीं
कुहरे वाले दिन में जैसी
होती हैं गलियाँ
जेठ महीने में जैसे
दुबलाती हैं नदियाँ
एक उदासी बादल बनकर
मेरे साथ रही
बिन काजल के बैठी थीं ये
आँखें बंजारिन
मीत तुम्हारे बिन
5
माँ के घर जाकर आती हूँ,
बहुत दिवस बीते
थोड़ा रखना ध्यान स्वयं का
जल्दी आऊँगी
घड़ी, चाभियाँ, मोजा, पर्स
रुमाल चिढ़ाएँगे
आँखमिचौली खेल-खेलकर
तुम्हें सताएँगे
कहीं नमक के धोखे में
चीनी ना पड़ जाये
यही सोचकर हर डिब्बे पर
लेबल चिपकाये
नहीं मिले सामान अगर
हैरान नहीं होना
मुझे लगाना कॉल प्रिये
मैं जानूँ हर कोना
मोबाइल पर मैं सारी
मुश्किल सुलझाऊँगी
थोड़ा रखना ध्यान स्वयं का
जल्दी आऊँगी
तुलसी में जल और साँझ को
दीपक धर आना
शीशे पर चिपकी बिंदिया से
कुछ पल बतियाना
स्वर्णिम यादों की एल्बम
को यूँ ही दुहराना
‘दूरी लाती पास’ यही
तुम मन को समझाना
खिड़की, आँगन, दीवारें
होंगे गुमसुम सारे
बातों के मौसम लेकर
फिर आऊँगी प्यारे
अधिक दिनों तक दूर नहीं
मैं भी रह पाऊँगी
6
बेटी ! तुम हो ख़ुशी हमारी
तुम हो हरसिंगार
किलकारी से तुम करती हो
घर-आँगन ग़ुलज़ार
तुम पापा जैसी दिखती हो
उनकी लघु प्रतिरूप
तुम सूरज की किरणों-सी हो
तुम हो नन्ही धूप
तुमको बढ़ते देख बढ़ रहा
रोज़ हमारा प्यार
है बेहद अनमोल तुम्हारी
भोली-सी मुस्कान
तुममें ही तो बसी हुई है
हम दोनों की जान
हम दोनों को करने आयी
तुम ज्यों एकाकार
तुमसे ही उत्सव है हर पल
त्योहारों- सी भोर
बाँधे रखती है जो हमको
तुम वो नेहिल डोर
तुमको पाकर रोज़ करूँ मैं
ईश्वर का आभार
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परिचय : गरिमा सक्सेना दो काव्य और दोहा संकलन प्रकाशित हो चुका है. कई पत्र-पत्रिकाओें में इनकी रचनाएं प्रकाशित हैं.
वर्तमान संपर्क : मकान संख्या- 212 ए- ब्लॉक, सेंचुरी सरस अपार्टमेंट, अनंतपुरा रोड, यलहंका, बैंगलोर, कर्नाटक-560064
मो : 7694928448