1
थक गई संवेदना को
पंख दे दो
प्यार के खिलते कँवल
कुम्हिला रहे हैं ।
आँख का पानी
सिमटता जा रहा है
अंकुरित श्रद्धा
शिथिल होने लगी है
समय के केंचुल अपरिमित रंग के हैं
आँसुओं से भी निसरती सावनी है
प्रेम के अनुभाव में छाले छिछोरे
मुकुर रिश्तों के धवल धुँधला रहे हैं ।
वासुकी की वेदना मंदर से लिपटी गौतमी-सी
माँ की ममता भी हुई है जेठ की सूखी नदी-सी
विंध्यगिरि का बोझ शापित
भूख कबतक ढो सकेगी
अंजली में सांत्वना के शूल लेकर
घाव को सहला रहे हैं ।
जुगनुओं को सूर्य कहने की
प्रथा सदियों पुरानी
फूँक घर, देखे तमासा
अब न वह संयोग-युग है
ठोकरें देकर विभव को जो चले
उन कबीरों की कमी है
धमकियाँ देकर अँधेरे
सूर्य को पिघला रहे हैं ।
थक गयी संवेदना को
पंख दे दो
प्यार के खिलते कँवल
कुम्हिला रहे हैं ।
2
सहज नहीं है ठुकरा देना
सजल नयन की पाती
एक कंकड़ी से हिल जाती
है सागर की छाती ।
जल के उथले जीव सँभल कर
चौकन्ने हो जाते
ठहर एक पल मगरमच्छ
मन की आपा खो जाते
जल से बनी दामिनी गिरती
अडिग शीला थर्राती ।
वे कंधे झुक गए अनय को
जिसने दिए सहारा
कह दो कभी काठ की हांडी
चढ़ती नहीं दुबारा
तनिक हवा से भी हिल जाती
है दिए की बाती ।
कब पाया है सुगा अपेक्षित
धर सेमल पर ठोर
जो बादल जल हीन बावरे
देख न उनकी ओर
बची भुजंगो के घर में कब
दादुर कुल की थाती ।
एक कंकड़ी से हिल जाती
है सागर की छाती ।
3
जाने अब क्यों डर लगता है सूरज चाँद सितारों से ।
राम निबाहें कब निभती है रूई की अंगारों से ।
लक्ष्मण रेखा बनी हृदय में ,मरा आँख का पानी अपने-अपने इंद्रधनुष की गाते सभी कहानी ।
तारे देने लगे दंश सूरज को कुटिल इशारों से ।
अब जाने क्यों डर लगता है सूरज चाँद सितारों से।
पर्वत से मिलने में डरने लगीं मिहिर की किरणें।
कब गहराये रैन, चंद्रमा लगें मेघ से घिरने ।
अंतहीन दुख की गाथाएँ मिलती हैं त्योहारों से ।
अब जाने क्यों डर लगता है सूरज-चाँद, सितारों से।
पढ़े पपीहा कहाँ सोरठा, चातक किसे निहारे
कपटी मेघ, निरकुंश अंबर दिखते साँझ-सकारे सिसक रही अँगनाई पुरुवा-पछुआँ के बटवारो से।
जाने अब क्यों डर लगता है सूरज-चाँद,सितारों से।
मौन हुई वीणा को कोई उदयन झंकृत कर दे
पाषाणी को वाणी देे मघवा को दंडित कर दे
कुंभज कोई न्याय दिलाए कुररी को हत्यारों से।
जाने अब क्यों डर लगता है सूरज चाँद सितारों से।
4
थूप झरे चाँदनी
सुधीर न सशंक हो
सुबीर न कुवंक हो
उठा तुणीर -तीर हाथ
धूप झरे चाँदनी ।
बदल गई दिशा- दिशा
उगल रही गरल निशा
ब्याल उगे फूल में
विषाणु चुभे शूल में
क्लान्त-श्रान्त मेदिनी
दिखाए आँख दामिनी ।
उठा तूणीर-तीर हाथ
धूप झरे चाँदनी ।
फिसल रही सधी नसल
खेत चर रहा फसल
अनेक छेद नाव में
उठी लुकारी छाँव में ।
हरित धरा को घेर ली
घोर घनी यामिनी
उठा तूणीर-तीर हाथ
धूप झरे चाँदनी ।
थरथरा रहे मुकुर
शूर सब गए सिकुर
सुलग रहा सघन विजन
निहारते तृषित नयन
उखाड़ फेंक दो तनी
तुषार कि ये छावनी ।
उठा तूणीर-तीर हाथ
धूप झरे चाँदनी ।
हीरालाल मधुकर वाराणसी
5
तेरी आँखें बड़ी वाचाल है
जीने नहीं देतीं
न तुम कातिक बनो तो
गुनगुनाना भूल जाता हूँ।
तुम्हारे रूप सागर में
कभी जब डूबता मन है
कला बाहर निकलने की
जब अक्सर भूलता मन है
हैं बातें अनकही कितनी
सुनाना भूल जाता हूँ।
तुम्हारे रूप को छिप छिप के
चंदा देखता रहता
उदित होता न,मन ही मन में
कुढ़ता झेपता रहता
हँसी छिटके तेरी दीए
जलाना भूल जाता हूं ।
कलित कोकिल-की कोमल
काकली अनमोल- सी लगती
न जाने कौन सा जादू
ऋचाओं में भरे रहती
चलें उस पथ, कहो जो तुम
बहाना भूल जाता हूँ ।
न तुम कातिक बनो तो
गुनगुनाना भूल जाता हूं।
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परिचय : हीरालाल मिश्र मधुकर