जन सरोकारों से लबरेज़ ग़ज़लों का गुलदस्ता :: डॉ भावना

जब ग़ज़ल की बात आती है तो, कहीं न कहीं एक कोमलता का एहसास होता है और मन वीणा के तार झंकृत हो उठते हैं। हुस्न और इश्क के लिए जानी पहचानी जाने वाली ग़ज़लें जैसे-जैसे जनता के सुख-दुःख के करीब आई वैसे-वैसे उसकी कोमलता में तल्खियां समाहित होने लगीं । साहित्य की हर एक विधा की तरह ग़ज़ल भी पानी की ही तरह तरल होती है, जहां जाती है, उस परिवेश के सांचे में ढल जाती है ।जिस तरह किसी कथाकार का कहानी का पात्र राजस्थान का हो तो उसके वेशभूषा, बोली ,खानपान सभी कुछ राजस्थानी ही होंगे। ठीक उसी तरह ग़ज़ल जब अरबी, फारसी ,उर्दू से होते हुए हिंदी में आई तो उसके ढब, मुहावरे,बिम्ब और प्रतीक हिंदुस्तानी मिज़ाज के अनुरूप ढल गए। बी आर विप्लवी की ग़ज़लें हिन्दुस्तानी जुबान की ग़ज़लें हैं ।
स्त्री- विमर्श को स्वर देते वे जो बात कहते हैं वह दरअसल सभी लड़कियों के दिलों में उठने वाले प्रश्न हैं । लड़कियों के घर कहां होते हैं? और इस प्रश्न के उत्तर में बस सबके दिलों में एक टीस-सी उठती है और सब गडमड होने लगता है। वह जिस घर में जन्म लेती है, वह घर तो उसका होता ही नहीं। वह किसी घर में पलती और संस्कारित होती है और ब्याह दी जाती है किसी और के साथ, छोड़ना पड़ता है उसे वह अपना घर ,जहां वह जन्म लेती है। यह कैसा विधान है? भारत में जन्म लेने वाले बच्चे भारत की नागरिकता पा लेते हैं! पर, मां की गोद में जन्म लेने वाली बेटी संवैधानिक अधिकार के बावजूद उस घर की नागरिक नहीं हो पाती! उनका एक शेर है देखें-
उड़ जायेंगी दूर देश को,दाना-पानी की खातिर
बहन-बेटियां तो शाखों की चिड़ियाँ हैं, माँ कहती थीं
पर्यावरण की चिंता आज कमोबेश हर ग़ज़लकार की प्राथमिकता में शामिल है और यह होना भी चाहिए। जिस तरह विकास के नाम पर पेड़ काटे जा रहे हैं वह न तो मनुष्य के हित में है और न ही पशु- पक्षी या धरती के किसी अन्य जीव के हित में। ज़रा सोचिए जब जिंदगी ही खतरे में हो जाएगी तो हम विकास को लेकर क्या करेंगे? विप्लवी जी की चिंता बिल्कुल वाजिब है। शेर देखें-
आप ही कहिए ,ये आखिर किस तरह का दौर है ?
बस्तियां हैं शोर में, जंगल हुए वीरान से
या
कटे दरख्त ,ये पूछे हैं पासबानों से
ये लोग कौन हैं जो आरियां चलाते हैं ?
जीवन में अनुवांशिकता की बड़ी भूमिका होती है। हम भले इस दुनिया को छोड़ कर चले जाते हैं, पर हमारी संतति हमारे गुणों को वहन करते हुए धरती पर रहती है और इस तरह हम अपने बच्चों में जीवित रह जाते हैं ।ठीक वैसे ही जैसे हम अपने दादा -दादी, नाना- नानी एवं माता- पिता से थोड़ा-थोड़ा गुण लेकर इस दुनिया में आए हैं। हमारी शक्ल या फिर गुणों में कहीं न कहीं पूर्वजों से समानता जरूर होती है ।शेर देखें-
चलता है, पीढ़ी दर पीढ़ी
कहने को जीवन थोड़ा है
यह शेर निश्चित रूप से विप्लवी जी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचायक है। इस तरह के शेर वही कर सकता है, जो कि डूब कर शायरी करता हो।जिसके लिए शेर कहना महज शौक का निर्वहन नहीं हो।
इस संग्रह से गुजरते हुए कहीं- कहीं मुझे शिल्पगत कमजोरी नज़र आती है लेकिन कहन की मजबूती से वज़ह से उसे नजरअंदाज किया जा सकता है।
मुहब्बत, बाहरी किरदार में है
बिना भीतर उतारे क्या मिलेगा?
वस्तुतः संग्रह को डूब कर पढ़ने पर बहुत कुछ हासिल हो जाता है ,जो इस संग्रह की उपलब्धि कही जायेगी।
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पुस्तक- प्यास ही प्यास(ग़ज़ल-संग्रह)
रचनाकार- बी आर विप्लवी
समीक्षक-डाॅ भावना
प्रकाशन-विपल्वी प्रकाशन,गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
मूल्य-300,पेपर बैक-150