कला में चिंतन का दृष्टि बोध :: डा.अफ़रोज़ आलम
कला में चिंतन का दृष्टि बोध
- डा.अफ़रोज़ आलम
एक बुकलेट के रूप में अपने सुंदर कलेवर में आकर्षित करती है ये छोटी सी पुस्तक। इसके अंदर की सामग्री में चंद पंक्तियों के सहारे जो विचार प्रस्तुत किए गए हैं वह छोटी बल्कि बहुत छोटी नज़्म की शक्ल अख़्तियार कर गए हैं ।आप इसे नज़्म के रवायती सांचे में न देखकर ख़ूबसूरत फ़िक्र की पेशकश के तौर पर ‘फ़िक्र ओ फ़न’ का मज़ा ले सकते हैं। मैं इसमें शायरी का नया रूप देख रहा हूं जो संक्षेप में अपनी बात कहने का हुनर रखतीं हैं।इनमें जीवन की विडंबना ,अंतर्विरोध और रिक्ति में सृजन के साथ जीने का अर्थ खोजती हैं। संग्रह आकृतिमूलक सुंदरता में भव्य है।दर्द,अवसाद और अंदर की यात्रा इन्हें सच बनाती है और जीवन को अधिक निकट व गहराई से देखने का आग्रह करतीं हैं।
ख़ुदेजा लिखतीं हैं- “फ़िक्र ओ फ़न वह ख़्यालात हैं जो हर उस इंसान के दिल में ज़रूर पैदा हुए होंगे जो अपनी जिंदगी के साथ-साथ इस दुनिया को भी बेहतर बनाने की सोच रखते हैं।
इस सोच में एक फ़िक्र भी है और अपनी बात कहने का हुनर भी।ये जज़्बात नुमाइंदगी करते हैं कि-
“ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और इसे ख़ूबसूरती से जीने का हक़ दुनिया के हर शख़्स को है”।
फ़िक्र ओ फ़न के कुछ नमूने यहां पेश हैं-
रास्ते पक्के थे
और मकसद सच्चे
चलने वाले इस पर
मगर कच्चे निकले
जल,जंगल, ज़मीन
कर रहे थे बातें
बड़ी ख़ुदग़र्ज़ होती है
आदमी की ज़ात
हर बार
ख़बरदार किया
बदबख़्त वक़्त ने
गलतियां बार-बार
फिर भी दोहराई गईं
हमारे महापुरूषों, संतो, पूर्वजों ने जो रास्ता हमें दिखाया वह सत्य, अहिंसा और सद्भावना का था। जिन पर चलकर जीवन को आसानी से गुज़ारा जा सकता था। लेकिन हमारा मनोबल और स्वाभिमान इतने पक्के नहीं निकले कि हम सच्चाई की राह पर चलते हुए आगे बढ़ते। हम तो बस दुनिया के प्रपंचों में फंसकर रह गए और उसी के साथ धरे रह गए सारे उसूल और कर्तव्य निष्ठा के प्रतिमान।
प्रकृति ने हमें सब कुछ दिया जीने-खाने- रहने के सारे संसाधन मगर हमने उसका दोहन करने के सिवा और क्या किया?
हर सदी अपना इतिहास लिखते हुए उन दुर्घटनाओं से दो-चार होती है जो पूर्व में भी घटित हो चुकी हैं, फिर भी उनसे सीख लेने के बजाय उनके दोहराव में लग जाते हैं। भले ही फिर दुष्परिणाम के चक्र में क्यों न उलझते चले जाएं।
यह कुछ ऐसी बातें हैं जिन पर सोच-विचार की ज़रूरत है।
मुझे लगता है ‘फ़िक्र ओ फ़न’उसी सोच की एक बानगी है, जो पढ़ने वाले के मन में हिलोर लाने के लिए लिखी गईं हैं।
बड़ी बेरुखी से
छीन लेती है
मासूमियत ये दुनिया
सादगी को
सिंगार बना देती है
बाज़ारवाद ने बचपन छीन लिया है। मासूमियत कहीं खो गई है आधुनिकता और टेक्नोलॉजी की चपेट में आकर। अपनी -अपनी
गुत्थियों को
सुलझाने में
लोग यहां बदस्तूर
उलझे हुए हैं
कैसी अजब पहली है जितना जीवन सुविधा सम्पन्न होता जा रहा है। उतनी जटिलताएं पैदा हो रहीं हैं। हर हाथ में मोबाइल है, जानकारी और सूचनाओं की कमी नहीं। कहीं ये मनुष्य को एकांगी और व्यस्त तो नहीं बना रहा ?
सुविधा के साथ सवाल भी उत्पन्न होते हैं।
दोपायो की भीड़ में
पहचानना था मुश्किल
देखने में सब यहां
इंसान जैसे लगते थे
सिर्फ इंसान का शरीर मिल जाना इंसान होना नहीं होता इंसान में जब तक इंसानियत का जज़्बा न हो ,वो मानवीय गुण और संवेदनाएं जो दूसरे के प्रति हमें संवेदनशील और सहिष्णु बनाती हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि ‘फ़िक्र ओ फ़न’ कला में विचार और चिंतन के नए आयाम खोलती है,इस अति व्यस्त जीवन में ठहरकर सोचने को बाध्य करती है।
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संपर्क : S/o डा. रियाज़ अहमद, यूनियन चौक-बथुआ बाज़ार
गोपालगंज (बिहार), पिन-841425