होमी जहांगीर भाभा :: प्रेमकुमार मणि

होमी जहांगीर भाभा

  • प्रेमकुमार मणि

सुमंत जी के एक रिपोस्ट से जानकारी मिली कि आज वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा का जन्मदिन है । यह भी जान सका कि कुछ समय पहले दिवंगत हुए कम्युनिस्ट नेता गणेशशंकर विद्यार्थी ने अपने छात्र जीवन में उन्हें पटना बुलवाया था । दिलचस्प घटना यह थी कि विद्यार्थी जी के पास कोई वाहन नहीं था , जिससे भाभा को सभास्थल पर ले जा सकें । आयोजकों की दुविधा भांपते हुए भाभा पैदल ही सभास्थल चलने केलिए तैयार हो गए । गए भी । इस घटना को पढ़ते हुए मेरी आँखे उनके सम्मान में नम हो गईं ।

भाभा की मौत 1966 के जनवरी महीने में हुई थी । पश्चिमी यूरोप के मॉन्ट ब्लाँक की पहाड़ियों के पास हुई एक हवाई दुर्घटना में । उसी महीने पखवारा भर पहले देश के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु भी रहस्यमयी स्थितियों में ताशकंद में हुई थी । मैं तब हाई स्कूल का छात्र था । शास्त्री के निधन को लेकर तो केवल छुट्टी हुई थी , लेकिन भाभा की मृत्यु के बाद हमारे स्कूल में शोक सह श्रद्धांजलि सभा हुई थी , जिसमें हमारे विद्यालय के दो विज्ञान शिक्षकों ने उनके महत्व पर प्रकाश डाला था । कुछ ही समय पहले भारत -पाक युद्ध हुआ था , जिसमें पाकिस्तान को भारत ने घुटना टेकने केलिए मजबूर कर दिया था । 1962 के चीनी आक्रमण में भारतीय फ़ौज ने घुटने टेक दिए थे । इसे लेकर पूरा देश आहत -आक्रोशित था । भारत -पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत की जनता का मनोबल वापस हुआ था । लेकिन जीत के इस माहौल में ही 11 जनवरी को शास्त्री जी और 24 जनवरी को भाभा की मौत ने सबको दुखी कर दिया था ।
मैं नहीं जानता भाभा को आज की पीढ़ी किस रूप में याद करती है । हमारे देश के स्कूली पाठ्यक्रम में अधिकतर जीवनियां राजनेताओं की ही पढाई जाती हैं । गांधी ,नेहरू ,पटेल ,जेपी वगैरह -वगैरह के इतने ब्योरे होते हैं कि कभी -कभार एक क्षोभ उभरता है । अब तो उन्हें सावरकर ,श्यामाप्रसाद और गोडसे की जीवनियां भी पढ़नी होंगी । ऐसे में, नई पीढ़ी भाभा को भूलने लग जाय तो कोई आश्चर्य नहीं ।
लेकिन भाभा को हमें याद रखना चाहिए । उनकी चर्चा से हम अपने देश -समाज के बुद्धि -विवेक को वैज्ञानिक चेतना से निम्मजित करेंगे । इससे ज्ञान -विज्ञान के नए क्षितिज उभरेंगे । समाज की वैज्ञानिक चेतना जय विज्ञान के जाप से नहीं , वैज्ञानिक सोच से उभरेगी । इस चेतना से हमारी अक्ल के नए गवाक्ष खुलेंगे । हम अधिक आध्यात्मिक और ऊर्जावान बन सकेंगे ।
30 अक्टूबर 1909 को मुंबई के एक पारसी परिवार में जन्मे होमी जहांगीर भाभा परमाणु वैज्ञानिक थे । उन्होंने भारत को आणविक विज्ञान की दुनिया में प्रतिष्ठित करने की भरसक कोशिश की । 1948 में बने प्रथम एटॉमिक एनर्जी कमीशन के वह अध्यक्ष थे । मेरे जहन में उनके दो फोटो उनकी याद के साथ हमेशा झिलमिल करते हैं । एक जिसमें वह आइंस्टाइन के साथ चले जा रहे हैं और दूसरे में जवाहरलाल नेहरू के साथ मित्रवत गुफ्तगू कर कर रहे हैं ।

मैं कोई वैज्ञानिक नहीं हूँ कि उनकी उपलब्धियों का सम्यक आकलन करूँ ; लेकिन आज उनके जन्मदिन पर परमाणु -विज्ञान के महत्व पर थोड़ी चर्चा से अधिक अच्छी श्रद्धांजलि उस वैज्ञानिक के प्रति और क्या होगी । मैं चाहूंगा कि हमारे किशोर और नौजवान उनकी चर्चा के बहाने विज्ञान , वैज्ञानिक चेतना आदि पर कुछ बात कर सकें । मैं बार -बार कहता रहा हूँ कि आज की दुनिया ज्ञान -केंद्रित दुनिया है । जिस देश -समाज के पास ज्ञान की ताकत है ,वह देश -समाज आगे रहेगा । जो इससे दूर रहेगा ,वह समाज अंततः उन लोगों का गुलाम हो जाएगा , जो ज्ञानवान हैं ।

दुर्भाग्य है कि हमारे समाज में तकनीक पर तो जोर है ,लेकिन ज्ञान पर जोर नहीं है । वैज्ञानिक चेतना पर तो और नहीं । हरिकीर्तन और नमाज से फुर्सत मिले तब तो । हम आस्था पर जोर देते हैं ,जिसका ज्ञान से छत्तीस का सम्बन्ध है । आस्था हमें मूर्खता का क्षणिक आनंद प्रदान करती है , ज्ञान हमें बेचैन -विदग्ध कर सकता है । लेकिन जिसे वास्तविक आनंद कहेंगे ,वह हमें ज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है । यूरोपीय समाज में जब रेनेसां आया ,नवजागरण का संचार हुआ ,तब धर्मशास्त्रों , बाइबिल और पादरियों पर प्रश्न उठने लगे । इससे एक चेतना सृजित हुई । फिर प्रबोधन काल आया ; जब मॉडर्न साइंस अथवा विज्ञान की नींव पड़ी । इसने धर्मशास्त्रों ,ईश्वर और उनके प्रचारक पादरियों की पोलपट्टी खोल कर रख दी । भारत में जब ब्राह्मणवाद और मुल्लावाद के खिलाफ कोई संघर्ष होता है ,तब कुछ लोग इसे दुनिया से कटा हुआ संघर्ष बताते हैं । इस संघर्ष को अधिकतर लोग जातिवादी मोड़ भी देते हैं । वह यह भूल जाते हैं कि यह वही लड़ाई है ,जिसे पश्चिमी समाज डेढ़ दो सौ साल पहले लड़ चुका है । इस संघर्ष का परिणाम वहाँ समाज और राजनीति में भी प्रस्फुटित हुआ । सामंतवादी समाज की विदाई हो गई । राजतन्त्र की जगह जनतंत्र विकसित होते चले गए । अमेरिकी स्वातंत्र्य आंदोलन हुआ और अमेरिका ने आज़ादी हासिल की । फ्रांसीसी क्रांति हुई । फिर तो दुनिया भर में आज़ादी की लड़ाई नए अंदाज़ में छिड़ गई ।

यही वक़्त था जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक खोज की आँधी चली हुई थी । 1803 में एक ब्रिटिश भौतिकविज्ञानी जॉन डाल्टन ( 1766 -1844 ) ने एटम के विचार की बुनियाद रखी । वैचारिक स्तर पर भारत और ग्रीक के कुछ दार्शनिकों कणाद और डेमोक्रिटस ने ईसा के बहुत पहले ही एटम और कण ( अणु ) का विचार रखा था । लेकिन डाल्टन ने उसकी वैज्ञानिक परिकल्पना दी । उसके बाद तो पूरी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी एटम के अध्ययन की सदी बन गई । रदरफोर्ड , स्क्रोडिन्गर , चाडविक आदि ने एटॉमिक विज्ञान के सिलसिले को इतना बढ़ाया कि 1940 के दशक में एटम बम बना लिया गया और दूसरे विश्वयुद्ध के आखिर में दो जापानी नगरों नागासाकी और हिरोशिमा पर इसने जो तबाही मचाई उससे मानवता काँप गई ।
भाभा का अध्ययन इसी दौर में जारी था । 1933 में उन्होंने नुक्लिअर फिजिक्स में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और 1939 में भारत लौटे । भारत का स्वाधीनता संग्राम आख़िरी दौर में था । भाभा को अंदाज़ा था कि भारत स्वतंत्र देश बनने जा रहा है । नए देश को ज्ञान -विज्ञान से सुगठित नहीं किया गया तो राजनीतिक स्वतंत्रता भी खतरे में पड सकती थी । फिर मूर्खता और गरीबी के साथ हम किसी समाज का पुनर्निर्माण कैसे कर सकते थे । मुश्किल यह थी इसके राजनेताओं के मानसिक गठन की पृष्भूमि में गांधीवादी रामराज था । दुनिया कहीं और थी । देश के आज़ाद होते ही पटेल जैसे नेताओं की चिन्ता सोमनाथ मंदिर निर्माण की थी । इन सब अंतर्विरोधों के बीच ही भाभा ने मुल्क के प्रधानमंत्री को आणविक ऊर्जा आयोग बनाने केलिए राजी किया । इस तरह इस देश में उन्होंने अणु ऊर्जा अध्ययन की बुनियाद आज़ादी मिलते ही रख दी । भाभा के इस योगदान को कोई कैसे भूल सकता है ।
भाभा को 1951 और 1953 में नोबेल पुरस्कार केलिए नामित किया गया । पुरस्कारों की भी राजनीति होती है । एक नवस्वाधीन दुर्बल देश की बात कौन सुनता है । उसकी मेधा को कोई क्यों रेखांकित करे । गीता उसकी सुनी जाती है , महाभारत वह जीतता है , जिसके हाथ में सुदर्शन चक्र होता है । वह चले या न चले , इसका कोई अर्थ नहीं है। उसकी उपस्थिती ही पर्याप्त है। अणु शक्ति आधुनिक दुनिया का सुदर्शन चक्र है । इसकी प्रतीति भाभा को थी । उन्होंने अनवरत कोशिश की कि भारत आणविक विज्ञान के क्षितिज पर स्थान बना ले । उन्ही के प्रयासों का प्रतिफल था कि 1974 में भारत ने पोखरण में अपनी आणविक शक्ति का सफल प्रदर्शन कर दुनिया को चौंका दिया ।आज भारत इस क्षेत्र में जो कुछ है ,वह भाभा के सपनों और प्रयासों का नतीजा है ।

भाभा की मौत आज भी रहस्य है । यह कहा जाता रहा है कि उस विमान हादसे , जिसमें उनकी मौत हुई ,के पीछे अमेरिकी साजिश थी । जो हो , भारत आज आणविक शक्ति क्षेत्र में दुनिया के किसी भी देश का मुकाबला करने में सक्षम है । आज का दिन केवल भाभा को याद करने का दिन नहीं होना चाहिए ; इस दिन हम सब को भारतीय समाज को वैज्ञानिक चेतना संपन्न बनाने का संकल्प भी लेना चाहिए ।

One thought on “होमी जहांगीर भाभा :: प्रेमकुमार मणि

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Previous post प्रतिरोध का संसार बुनती ग़ज़लों का गुलदस्ता है – यह नदी खामोश है :: डॉ़ भावना
Next post ग़रीबी देशकाल के अनुसार अपनी परिभाषा बदलती है : शरद कोकास