अनिरुद्ध सिन्हा की आठ ग़ज़लें
1
बाहर न आ सकेंगे कभी भेद भाव से
रहते नहीं पड़ोस में जो मेल भाव से
अपने लिखे को पढ़ न सके एकबार भी
सुनते हैं दूसरों की कहानी वो चाव से
लफ़्ज़ों की परवरिश पे तवज्जो हो आपकी
आते हैं पेड़ में भी समर रख रखाव से
गुज़रे हैं उनकी आँखों से सदमे नए-नए
जाने लगे हैं दूर जो अपने पड़ाव से
कोहरे पहन के आई है ये सर्द-सर्द रात
होगी न गर्म देह किसी भी अलाव से
2
थोड़ी ज़मीन और ज़रा आसमान दे
मैंने ये कब कहा कि मुकम्मल जहान दे
इक खौफ़ घूमता है अदालत के सामने
कैसे कोई यक़ीन से अपना बयान दे
रख ले इमारतों की चकाचौंध अपने पास
मुझको विरासतों का पुराना मकान दे
उड़ने का जो ख़याल है तो सोचता है क्या
अपने परों को आज से ऊँची उड़ान दे
तूने हरेक बार सही को ग़लत कहा
कोई तो तेरे मुँह में भी सच्ची ज़ुबान दे
3
शब्द का व्याकरण बदल डालो
अर्थ ख़ुद तय करेंगे बल डालो
सोच में जान डालनी होगी
आज डालो कि यार कल डालो
हाथ मिल जाए हाथ से जाकर
कर तुम्हीं ऐसी एक पहल डालो
चुप्पियाँ खुल के बात करती हैं
चुप्पियों में न तुम खलल डालो
दूध के दाँत हैं संपोलों के
तोड़ डालो उन्हें कुचल डालो
4
जालिमों के जुल्म का जवाब हम हुए
आपकी नज़र में जो खराब हम हुए
दर्ज़ हैं जहाँ सभी सबूत दर्द के
इस सदी की आज वो किताब हम हुए
बागवां ने जिस चमन से फेर ली नज़र
उस चमन का खुशनुमा गुलाब हम हुए
आँकड़ों के खेल में हरेक मर्तबा
सच का हाँफता हुआ हिसाब हम हुए
तोड़ भी नहीं सके जो रात का गुरूर
उस अंधेरी रात का वो ख़्वाब हम हुए
5
सच पूछो तो ममता की ज़ंजीर चुरा ली है
माँ की हमने माँ की ही तस्वीर चुरा ली है
कुछ बिखरी उम्मीदों की जागीर चुरा ली है
जैसे राँझा से दुनिया ने हीर चुरा ली है
उसको ही सोचा है हमने उसको ही चाहा
जिसने धड़कन की अपनी जागीर चुरा ली है
कैसी ममता का आँचल है माँ के सीने पर
जिसमें उसने पूरे घर की पीर चुरा ली है
अपनी तनहाई से वो पूछ सके तो पूछे
किसने उसकी उल्फ़त की जागीर चुरा ली है
6
अपने हिस्से का सफ़र वो उम्र भर समझा नहीं
और समझाने से भी कुछ रास्ता निकला नहीं
मुख्तसर-सी रात थी और ख़्वाब का मंज़र तवील
चाँद चलता ही रहा कुछ देर वो ठहरा नहीं
आख़री क़तरा हूँ शबनम का मैं तू पहली किरण
ओस की बूंदों से होता धूप का रिश्ता नहीं
इस तरफ तो इश्क़ के दरिया से मैं महरूम हूँ
उस तरफ चर्चा यही है मैं अभी प्यासा नहीं
हम उन्हीं को दे चुके हैं ज़िन्दगी की भूमिका
आज तक संवाद पढ़ना भी जिन्हें आया नहीं
7
घर में रहकर घर के जैसा होना पड़ता है
दर्द मुहब्बत से कांधे पर ढोना पड़ता है
बदली-बदली इस दुनिया में अपने हिस्से का
समझौते का बीज नज़र में बोना पड़ता है
साथ नया साथी मिल जाए मुश्किल राहों में
कदम-कदम पर चैन दिलों का खोना पड़ता है
बेमतलब की चालाकी से फर्ज़ निभाने तक
चुपके-चुपके दिल ही दिल में रोना पड़ता है
याद हमें आती हैं चाँद सितारों वाली रात
भरकर आँसू आँखों में जब सोना पड़ता है
8
तेरी आँखों का ये मंज़र हसीं है
कहीं शोला तो चिंगारी कहीं है
अभी बैठा है सूरज सर के ऊपर
मेरा साया भी अब अपना नहीं है
मुझे काँधों की कल होगी ज़रूरत
मुझे हर हाल में रहना यहीं है
जहाँ से मैं चला था इस सफ़र में
मुझे फिर लौट कर जाना वहीं है
हवा कैसे बिखेरे ख़ुशबुओं को
धुआँ है धुंध है रोती ज़मीं है