‘नयी नारी’ – स्त्री–मुक्ति का नया प्रस्थान
– डॉ पूनम सिंह
सामाजिक , राजनीतिक चेतना के चेतना के क्रांतिकारी सर्जक बेनीपुरी ने जिस समय ‘नयी–नारी’ की परिकल्पना की थी; उस समय देश में कोई स्त्री आंदोलन नहीं था। स्त्रियों की कोई संगठित आवाज नहीं थी। पश्चिम से उठने वाली ‘नारी मुक्ति आंदोलन’ की लहर भी बहुत बाद में आई। आज वह आंदोलन नारीवाद और स्त्री–विमर्श के रूप में कई पड़ावों को पार कर चुका है। परन्तु बेनीपुरी की ‘नयी नारी’ जिस समय अपने पुराने केंचुल उतार रही थी, वह समय आज से साठ वर्ष पीछे स्त्री सत्ता के मामले में एक तंग गलियारे से होकर गुजरने का काल था। उस अंधेरी गली में अंतरिक्ष से साक्षात् विद्युत बदनी बनी ‘नयी नारी’ का जब पदार्पण हुआ तो मित्रों ने बेनीपुरी जी को आड़े हाथों लिया। किसी ने पत्र लिखकर तो किसी ने जबानी, तो कुछ ने पत्र पत्रिकाओं में अपने विचार और विरोध प्रकट किए। किसी सज्जन ने उन्हें कर्मनाशा में डूब मरने की सलाह दी। उन्होंने उन घात–प्रतिघातों की चर्चा करते हुए लिखा है–”मैं उन गाली–गलौज में नहीं पड़ना चाहता। हाँ, गालियाँ सुनने में थोड़ा मजा जरूर अनुभव करता हूँ, क्योंकि गाली के मनोविज्ञान को मैं अच्छी तरह समझता हूँ। किन्तु एक बात है जिसकी ओर ध्यान देना मैं आवश्यक समझता हूँ और यह बात प्राय: सभी विरोधी मित्रों ने प्रकट की है कि मैं स्त्रियों के जिस भविष्य का चित्रण करता हूँ वह भारतीय आदर्श के सर्वथा प्रतिकूल हैं लेकिन मेरे पास ऐसे प्रमाण हैं जिनके आधार पर मैं बल के साथ कह सकता हूँ कि मेरे मित्रों की बातें बेबुनियाद हैं। उनसे गलती यह हो जाती है कि वे आजकल के हमारे निर्जीव, स्पन्दहीन, गतिरहित समाज को ही भारतीय समाज का शाश्वत रूप समझते हैं और उसी की भित्ति पर अपने आदर्शों की दीवार खड़ी कर उस पर से चिल्ला उठते हैं– यही भारतीय सभ्यता है, यही भारतीय संस्कृति है– इसके परे जो कुछ हैं, वह मिथ्या है, अपवित्र है, जघन्य है, नारकीय है।“
स्त्री अस्मिता को लेकर बेनीपुरी ने जिस निर्जीव , स्पन्दनहीन , गतिरहित , सामाजिक दृष्टिकोणों की चर्चा की है, वह निश्चित रूप से उनके सजग काल–बोध सम्पन्न चिन्तन का एक जीवंत दृष्टांत है। आज साहित्य में स्त्री–विमर्श के जितने मुद्दे उठ रहे हैं, बेनीपुरी ने उन मुद्दों को आज से साठ वर्ष पूर्व ही अपने चिन्तन प्रधान निबंध संग्रह ‘नयी नारी’ में बेबाकीयत से उठाया था । भारतीय समाज की जड़ता यह मान कर चलती है कि सामाजिक नैतिकता और मर्यादा को निभाने की जिम्मेदारी केवल स्त्रियों की ही है और इस मानसिकता को सर्वसम्मत सांस्कृतिक स्वीकृति प्राप्त है । विवाह संस्था की पुरूष वर्चस्ववादी प्रवृति में स्त्री के प्रति कभी बराबरी की भावना नहीं रहती । स्त्री के संघर्ष को समर्थन देने की जगह वहाँ स्त्री होने की नियति को लांक्षित करने की मानसिकता हावी रहती है । बेनीपुरी ने ‘नयी नारी’ के माध्यम से बदलते समय के परिदृश्य में ठहरी हुई स्त्री दृष्टि को सजग और सचेत करने की ऐतिहासिक पहल की है । क्रांतिचेता लेखक ने ‘नयी नारी’ में लिंगभेद की मानसिकता , धर्मशास्त्र पोषित स्त्री की नैतिकता, पुरूष वर्चस्ववादी सत्ता की सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक कट्टरता पर खुलकर प्रहार किया है और अपने अकाट्य तर्को तथा यथास्थिति के विरूद्ध उठाये गये प्रश्नों के द्वारा एक स्त्री की अंत:बाह्य यातनाओं के इतिहास की गहरी पड़ताल की है ।
स्त्री की सत्ता अस्मिता को लेकर जो लोग भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देते हैं, वे लोग संस्कृति के उस प्रारम्भिक अध्याय को जानबूझ कर नजरअंदाज करना चाहते हैं जिसमें पुरुष वर्चस्ववादी संस्कृति से पृथक स्त्री अपने तन–मन पर एकाधिकार रखती हुई पुरुष के समानान्तर अपने समग्र रूप में खड़ी है।
हमारी सभ्यता और संस्कृति का प्राचीनतम रूप जो वेदों, ब्राह्मणों, सूत्रें, स्मृतियों, पुराणों एवं काव्यों में निर्दिष्ट है, वहाँ बहुत से आर्ष प्रमाण ऐसे मिलते हैं जिनके परिप्रेक्ष्य में स्त्री पुरुष संबंध, पाप–पुण्य , सतीत्व, पत्नीत्व जैसी अवधारणाओं पर वैचारिक दृष्टि से बहुत कुछ सोचने की जरूरत है।
इतिहास की पड़ताल करने पर पुरुष वर्चस्ववादी संस्कृति के उद्गम का रहस्य भी उद्घाटित होता है। यह सच है कि मानवी रचना के आदिकाल में स्त्रियां स्वतंत्र थीं परन्तु धीरे-धीरे उनकी स्वतंत्रता को पुरुष जाति ने दबोचना आरम्भ किया। पुरुष के मन में स्त्री को लेकर एकाधिपत्य की भावना घर करने लगी। शारीरिक संरचना की भिन्नता ने इस भावना को बहुत अधिक बढ़ावा दिया। पुरुष की शारीरिक श्रेष्ठता के आगे स्त्रियों को झुकना पड़ा। पुरुष वर्चस्ववादी संस्कृति की शुरुआत यहीं से हुई।
बेनीपुरी जी का मानना है कि स्त्रियों पर एकाधिपत्य कायम करने की प्रवृत्ति पुरुषों में बंदरों को देखकर आई होगी। मादा बंदरोें लिए नर बंदरों में प्राय: लड़ाईयाँ होती हैं और जो बलवान होता है वह अन्य नर बंदरों को मारकर या भगाकर मादा बंदरियों पर एकाधिपत्य कायम कर लेता है। प्राचीनकाल में किसी स्त्री या स्त्रियों के लिए कई बड़े योद्धाओं के बीच युद्ध होते थे। उनमें जो विजयी होता था, वही उस स्त्री या स्त्री समुदाय का स्वामी होता था। एक पुरुष द्वारा अनेक स्त्रियों पर एकाधिकार रखने की यह प्रवृत्ति इन्हीं बंदरों द्वारा विरासत रूप में पुरुषों को मिली है।
स्त्रियों पर एकाधिपत्य के पीछे वंशगत रक्त शुद्धि का मोह एक ऐसी सामंती भावना है जिसने पुरुषों को बहुत दूर तक स्त्रियों के प्रति कठोर और संकीर्ण बनाया है। बेनीपुरीजी लिखते हैं–”रक्तशुद्धि के मोह के पीछे आदमी में यह भावना छिपी है कि हमसे जो संतान पैदा हो, उसमें हमारा ही रक्त रहे। आदमी अपनी संतान के रूप में अपनी प्रतिकृति छोड़ जाने की आकांक्षा रखता है और यह प्रतिकृति जितनी ही रंग रूप बल वीर्य में उसके निकटतम हो, वह उतनी ही प्रसन्नता का अनुभव करता है। अत: पुरुषों ने स्त्रियों पर 144 दफा लगा दी कि वह दूसरे पुरुषों से संसर्ग न करे। पुरुष यदि स्त्रियों को अपनी बराबरी का दर्जा दिया होता तो वह यह सोचता कि जिस प्रकार उसके हृदय में नयी–नयी स्त्रियों के साथ सहगमन करने की इच्छा उठती है उसी प्र्रकार की इच्छा क्या उसकी पत्नी के हृदय में नहीं उठ सकती। फिर उसके दो ही उपाय थे एक तो यह कि वह स्वयं भी एक पत्नी-व्रत पर अटल रहे या अपनी स्त्रियों को भी स्वच्छन्द छोड़ दे। किन्तु बड़े–बड़े ऐतिहासिक पुरुषों ने ऐसा नहीं किया। यह रक्तशुद्धता का मोह आज भी उसी तरह विद्यमान है।“(नयी नारी)
यह एक व्यावहारिक तथ्य है कि घर–परिवार ही विकसित होकर समाज बनता है, फिर राष्ट्र और देश परन्तु हमारे यहाँ पुरुष वर्चस्ववादी परिवार के परम्परागत ढाँचे में अभी तक कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं हो पाया है। मध्यवर्गीय परिवार में पारम्परिक संस्कार सामंती व्यवहार एवं नैतिक पाखण्ड सबसे अधिक हैं। वह एक ऐसा घर है जहाँ एक खुली साँस लेने, हरी रौशनी देखने के लिए कोई स्त्री तमाम उम्र तरसती रह जाती है। हर समय उसके आस पास उसे आगाह करती एक आवाज मंडराती रहती है ”…… इन दीवारों के बाहर मत झाँकों क्योंकि तुम कुलवधू हो तुम्हारे खानदान का नाम बहुत लम्बा है – तुम शरीफ घराने की हो। दीवारों के अंदर ही तुम्हारा जन्म हुआ तुम पली बढ़ी। दीवारो के अंदर ही जिन्दगी गुजारो। हाँ हम एक प्रतिज्ञा करते हैं जब तुम मरोगी तो सारी कसर पूरी कर देंगे। तुम्हें घर से बाहर सुनसान बियावान में –नदी के किनारे उस स्थान में, खुले आम खोद–खाद कर जला देंगे। हमारा विश्वास करो–हम तुमसे वादा करते हैं।“ (नयी नारी)
नि:संदेह यह वादा आज तक पुरुष ने कुलवधूओं के साथ निष्ठापूर्वक निभाया हैं परन्तु यह वादा कितना निर्मम और अमानवीय है–इसे बेनीपुरीजी ने बखूबी महसूस किया था।
आज भी अपवाद स्वरूप कुछ ्त्रिरयों को छोड़कर करोड़ों महिलाओं की नियति उस जानवर की तरह है जिन्हें खूँटे से बाँधने वाला पुरुष एक ओर उसका संरक्षक है तो दूसरी ओर शोषक। खूँटे से बँधी पागुर करती सीधी शालीन स्त्री–गाय को पुरुषों ने सदैव सराहा है इसके विपरीत रस्सी तोड़कर खूँटे उखाड़कर खुली सड़क पर भागनेवाली गाय कभी उन्हें रास नइीं आई। ‘श्रृंखला की कडि़याँ’ (1942) में ‘हिन्दू स्त्री का पत्नीत्व’ लेख लिखते समय महादेवी वर्मा ने स्पष्ट रूप से कहा है–”पत्नीत्व की अनिवार्यता से विद्रोह करके अनेक शिक्षित स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना नहीं चाहती क्योंकि उन्हें भय रहता है कि उनके सहयोगी (पति) उनके स्वतंत्र व्यक्तत्वि को एक क्षण भी सहन न कर सकेगेें।’ (शृंखला की कडि़याँ)
सिन्दुरी रजिस्ट्री एक ऐसा स्टाम्प है जिसे लगाकर पुरुष स्त्री को जर जमीन की तरह अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझने लगता है। स्त्री मातृत्व, पत्नीत्व , स्त्रीत्व जैसे संवेदनशील रिश्तों के कँटीले तारों से इस कदर घेर दी जाती है कि अगर वह उसे लाँघने की थोड़ी भी कोशिश करे तो उसका तन–मन सब लहुलुहान क्षत्–विक्षत् हो जाय। पुरुषों ने स्त्री के मातृत्व को इतना अधिक महिमा मंडित करके बताया कि उसकी गरिमा के नीचे उसका अस्तित्व एकदम विलीन हो जाय। परन्तु यहाँ भी हर मातृत्व को उन्होंने गौरव प्रदान नहीं किया है । यहाँ बेनीपुरीजी खुलकर कहते हैं – ‘हमारे देश में वही मातृत्व और वही माँ पूजनीय है जो विवाहोपरान्त किसी एक पुरुष की पत्नी के रूप में उसके बच्चे की माँ बनती है और उसके ‘वंशवाद’ को विकसित करती है। ध्यातव्य है कि महिमा माँ बनने में नहीं बल्कि किसी खास पुरुष की पत्नी बनकर विधिवत उसे पिता बनाने में है। इसके विपरीत उत्कट प्रेम की परिणति के रूप में जो भी स्त्री माँ बनती है उसे कुलटा, पापिन, दुराचारिणी ही कहा जाता है। पुरुष की काम पिपासा के लिए विवाह संस्था से लेकर वेश्यावृत्ति व्यभिचार के सारे द्वार खुले हैं परन्तु सिन्दुरी रजिस्ट्री की हुई पत्नी के सपने में भी किसी पर–पुरुष का आना घोर पाप है। यह कैसी विडम्बना है कि एक तरफ इसी स्त्री देह को भोगने के लिए पुरुष सदैव आतुर रहता है, दूसरी तरफ उसी देह से पवित्रता और सर्मपण की माँग करता है। पवित्रता की यह पारम्परिक धारणा और नैतिक मूल्यों के ये दोहरे मानदंड पुरुष वर्चस्ववादी संस्कृति की ही देन है। इसके द्वारा पुरुष सत्तात्मक संस्कृति का सामंती संस्कार तुष्ट होता है।’
बेनीपुरी की नारी चेतना यहाँ स्त्री–विमर्श को एक व्यापक आयाम प्रदान करती है। उन्होंने इतिहास के अंतर्विरोधों–विसंगतियों और उसकी जटिलताओं पर गहरा चिंतन किया है। प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में समाज के सूत्रधारों से उन्होंने प्रश्न किया है कि हमारी बहनें जो उत्सुक आँखों से आगे की ओर अपनी जगह खोज रही हैं, आप उन्हें बरबस पीछे देखने को कहते है–‘आगे क्या देखती हो, पीछे देखो–हमारे इतिहास को वेद पुराण को–आर्य संस्कृति को। हमारे दो महान ग्रंथ ने दो महिला आदर्श हमारे सामने रखे हैं–सीता और द्रौपदी। आपके द्वारा बरबस पीछे की ओर देखने को मजबूर किये जाने पर – यह स्वाभाविक है कि वे इन दो आदर्शो पर ही अपनी नजरें गड़ायेंगी। इन दोनों में से अपने लिए एक आदर्श चुनने के लिए वे स्वतंत्र होंगी – तब आप उन्हें न तो दोष दे सकते हैं न उन पर दवाब ही डाल सकते हैं कि इनमें अमुक ही चुनो।’ उन्होंने स्त्री की सत्ता और अस्मिता को लेकर कई ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़े किये हैं। चुन–चुन कर उन जगहों पर ऊँगली रखी है जहाँ स्त्री–पुरुष के संबंध में दोहरे मानदंड स्थापित है। संग्रह के पहले निबंध ‘मीरा नाचे रे’ में उन्होंने मीरा के पदों की वंदना और मीराओं की भर्त्सना करने वालों पर तीखा कटाक्ष किया है और ललकार की भाषा में कहा है कि समाज के राणाओं को अपने संस्कार का परिमार्जन करना होगा क्योंकि सांस्कृतिक जीवन लाने के लिए नारी का सहयोग आवश्यक है। इसके लिए मीराओं को भी विद्रोहिणी बनना होगा – राणाओं की क्रोधाग्नि की उपेक्षा करनी होगी। उन्होंने आह्वान के स्वर में कहा है–
”मेरी मीराओं लोकापवाद की नागमाला ही तुम्हारे गले की शोभा सिद्ध होगी अपमान और भर्त्सना के हलाहल घूँट ही तुम्हारे कंठ को और सुरीला बनायेंगे।“ बेनीपुरी ने वेश्याओं की उत्पत्ति पर समाजशा्त्रिरयों को बहुत गंभीरता से सोचने के लिए कहा है। इतिहास कहता है कि गुलाम जाति की जो स्त्री अलौकिक सौंदर्यशालिनी हुई उस पर किसी एक का आधिपत्य रखना न्याय और समाज कल्याण की दृष्टि से उचित नहीं समझा जाता था क्योंकि समाज के भीतर किसी एक की होकर रहने से मार–पीट खून खराबी और अशांति फैलने की संभावना थी इसलिए सर्वस्वीकृति से वह सार्वजनिक उपयोग के लिए छोड़ दी जाती थी। देवालयों में उनकी पैठ इसलिए हुई कि स्वर्ग में देवता भी अप्सराओं और हूरों के आगोश में ही ठंढ़क पाते हैं। देश के प्रथम लोकतंत्र, वैशाली में सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नारी अम्बपाली ऐसी ही स्त्री थी जिसे अपना अप्रतिम रूप वैभव संपूर्ण वैशाली पर न्योछावर करना था। चाहकर भी उसे अपना प्रणय पुष्प किसी एक पुरुष पर निवेदित करने का अधिकार नहीं था। आन्तरिक क्षोभ और विद्रोह की स्थिति में उसने अपनी सार्वजनिक स्त्री देह की आहूति मोक्ष की यज्ञशाला में दे दी थी। यह कैसा सामाजिक विधान है कैसी कुत्सित परम्परा है कि स्त्री देह को पुरुषों ने सार्वजनिक घोषित कर प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक गिद्दों की तरह नोंच नोंच कर खाया है। यह ‘‘स्त्री देह’ आखिर घर और बाहर दोनों जगहों पर केवल ‘खाद्य’ ही क्यों है। इस खाद्य पदार्थ को लेकर आज स्त्रियों का विद्रोह आम्रपाली की तरह मौन नहीं बल्कि मुखर होकर कह रहा है कि यह देह हमारी है इसपर हमारी मर्जी चलेगी ।
बेनीपुरी ने बहुत साहस के साथ स्वीकार किया है कि सतीत्व की कुक्षि से ही वेश्याएँ जन्म लेती हैं। वेश्याएँ वे विद्रोहिणी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने पुरुषों की गुलामी के टीके पोंछकर अपने को पूर्ण स्वतंत्र कर लिया, इसलिए आज तक वे पतिता, भ्रष्टा और कलंकिनी कही जाती हैं। जिन स्त्रियों ने पुरुषों की गुलामी कबूल कर ली उन्हें सती साध्वी आदि शुभ नामों से सम्बोधित किया गया। उन्होंने बहुत जोर देकर कहा है कि –”आप जिसे सतीत्व कहते है वह क्या है ? वह है गुलामी का दमामी पट्टा। जमीन का दमामी बन्दोवस्त टूट रहा है फिर शरीर का दमामी बन्दोवस्त कैसे टिका रहेगा ?“(नयी नारी)
इतने स्पष्ट शब्दों में पुरुष वर्चस्ववादी संस्कृति को शायद ही किसी पुरुष लेखक ने इस रूप में चुनौती दी होगी ? आज उनके द्वारा कही वे सारी बातें हमारे बीच घटित हो रही हैं। शरीर के इस दमामी बन्दोवस्त को स्त्रियाँ खुलेआम तोड़ रही हैं। स्त्री शोषण और दमन की नींव पर खड़ी विवाह संस्था पर वे खुल कर बहस कर रही हैं। रक्तशुद्धता की जिस भावना ने विवाह संस्था को जन्म दिया था–वंशवाद की नींव डाली थी–पितृसत्ता का षडयंत्र रचा था–आज स्त्रियाँ उन सबका खुलासा कर रही है। इतिहास संस्कृति और नैतिक मूल्यों के सारे फासिस्ट ढाँचे ढ़ह रहे हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज में ऐसी जागरूक स्त्रियों से एक दहशत सी पैदा हो गई है।
समय सचेत दृष्टि रखने वाले बेनीपुरी ने आज से साठ वर्ष पूर्व ही इस आगत स्थिति को भाँप कर कहा था–
‘……ये बातें कड़वी लग सकती हैं किन्तु जो वैज्ञानिक दृष्टि से सामाजिक प्रगतियों पर दृष्टिपात करेंगे, उन्हें शंकर की तरह हलाहल को पीना पड़ेगा तभी सत्य की प्रतिष्ठा होगी। हमारे कुछ ‘आइडियलिस्ट’ दोस्त भले ही खींझें प्राचीन सभ्यता की या गालियों की अष्टोत्तरी माला दिन रात भले ही जपा करें किन्तु उनमें या किसी में ऐसी शक्ति नहीं है कि सामाजिक शक्तियों की गतिविधि ज्यादा दिनों तक अवरूद्ध कर सकें। संभव है कि एड़ी चोटी का पसीना एक कर कुछ दिनों के लिए कोई बाँध खड़ा कर लें किन्तु इस प्रकार के बाँध उन शक्तियों को और भी दृढ़ करने और एक ही धक्के में संसार प्लावित करने में मददगार होते आये हैं।“ (नयी नारी)
आज स्त्री की सत्ता , अस्मिता और महत्ता – परम्परा से पोषित एवं स्वीकृत भूमिकाओं से पृथक – पुरुष सबलता के समानान्तर अपने समग्र रूप में खड़ी हैं। देह, सोच और संस्कार किसी भी स्तर पर आज की स्त्री को परम्परागत नजरिये से नहीं देखा जा सकता। पुरुष द्वारा रचित परम्परा, शास्त्र और इतिहास अब उसे बहुत दिनों तक अंधेरे में नहीं रख सकते। उसने अपनी अस्मिता और अपनी क्षमता की पहचान कर ली हैं। बेनीपुरी ने सम्भवत: नयी नारी के इस मनोभाव को बहुत नजदीक से समझने का प्रयत्न किया है तभी तो वे सामंत मित्रों को इंगित कर कहते हैं–‘जनाब’ ! यह इंडिपेंडेंस का युग हैं आपके नाम ‘डोमिनियन स्टेट्स’ को आधुनिक स्त्रियाँ स्वीकार नहीं कर सकतीं। आप पति बनें और वह पत्नी बने यह वे हरगिज पसन्द नहीं करेंगी क्योंकि न वे अपने को खेत समझती है कि खेतिहर की अनिवार्यता महसूस करें और न किसी ‘साईस’ की पुचकार या उसके कोड़े की ही फटकार वे बर्दास्त कर सकेंगी। वे होंगी आपकी संगिनी, कामरेड और उनके कर्त्तव्य वही होंगे, जो आपके उनके प्रति। ‘स्वाम्य’ नहीं साम्य, इस युग का सन्देश है।“ (नयी नारी)
अपने इस उदात्त दृष्टिकोण के साथ बेनीपुरी ने स्त्री अस्मिता के प्रश्न को धर्म ,समाज , संस्कृति आदि के व्यापक संदर्भ में विश्लेषित करते हुये बहुत ठोस और बेबाक शब्दों में यह बताने का प्रयास किया है कि नये विचारों , वैकल्पिक विश्वासों से ही नये समाज का निर्माण हो सकता है । परम्परा पोषित तथाकथित सम्मान आज की स्त्री के जीवन में कोई अहमियत नहीं रखती – इस नजरिये के द्वारा उन्होंने नारी अस्मिता को एक नई पहचान दी है।
साहित्य में आधुनिकता की चर्चा मूल्य के स्तर पर होती हैं । मूल्यों के विघटन के कारण ही आज सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो गया हैं । विघटन के इस कठिन समय में नए मूल्य बोध के सहारे ही सांस्कृतिक संकट को दूर किया जा सकता है। कालबोध सजग कोई भी साहित्यकार खण्डित मूल्यों और खोखले आदर्शो से बेशर्म समझौता नहीं कर सकता। वह सामाजिक सवालों का हल ढूँढ़ता हुआ, स्थायी मानवीय मूल्य के समस्त संभावित विकास को लेकर अपने कृतित्व में हमारी कुंठित वृत्तियों का संस्कार करता है। ‘नयी नारी’ में बेनीपुरी का सर्जनात्मक उद्देश्य भी यही है। इस दृष्टि से ‘नयी नारी’ स्त्रीमुक्ति का नया प्रस्थान तैयार करती है ।
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परिचय : लेखिका की कविता और कहानी के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. फिलहाल मुजफ्फरपुर के एमडीडीएम कॉलेज में हिंदी की प्राध्यापिका हैं.