वर्तमान परिदृश्य और शिक्षा
- चितरंजन कुमार
शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है। शिक्षा मानवीय संस्कार और सरोकार को बदलने का एक मात्र माध्यम है ।शिक्षा ग्रहण का यह कार्य एकांत और समूह दोनों में ही किया जा सकता है ।पिछले वर्ष कोरोना महामारी की विभीषिका से सामूहिक शैक्षिक परिदृश्य पूरी तरह चौपट हो गया है। शिक्षा के प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक अपने अस्तित्व को जीवित रखने के लिए पनाह मांग रहे हैं ।डिग्री आधारित शिक्षा को ज्ञान से जोड़ने की जद्दोजहद चल ही रही थी कि ज्ञान के मंदिर अर्थात शैक्षिक संस्थाओं को बंद करना पड़ा। कोरोना महामारी ने समसामयिक जीवन ही चौपट नहीं किया बल्कि भविष्य के लिए भी चुनौती प्रस्तुत किया है ।अब यह नहीं कहा जा सकता कि शिक्षा के लिए संस्थानों का होना अनिवार्य है बशर्ते डिग्री का मामला ना हो तो । शिक्षा बनाम ज्ञान,शिक्षा बनाम परीक्षा , शिक्षा बनाम डिग्री आदि कई प्रश्न पिछले डेढ़ वर्षो से प्रसांगिक हो गए हैं। इन प्रश्नों से दामन बचाने के लिए ऑनलाइन क्लासेज अर्थात अभी-अभी सक्रिय कक्षा का विकल्प तलाश किया गया परंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह सूरज को दीया दिखाने जैसा है।पूरे हालात का असर बाल मन पर चौतरफा पड़ा । छात्र अपने विद्यालयी संस्कृति से कटते चले गए फलत:यह जरूरत महसूस होने लगी कि घर को ही विद्यालय बनाया जाए यानी घर ही शिक्षा का केंद्र हो। यदि ऐसा हो पाता है तो विद्यालयों की अनिवार्यता समाप्त हो जाएगी और शिक्षा के बाजारीकरण से शिक्षा को बचाया जा सकेगा। शिक्षा के क्षेत्र में पूंजी का प्रवेश पहले ही दुखद था आडंबर ने और भी सर्वनाश कर दिया। कुल मिलाकर कोरोना महामारी की विभीषिका को शिक्षा के क्षेत्र में एक अवसर के रूप में लिया जा सकता है।
वास्तव में,वर्तमान परिदृश्य में पोलो फ्रेरे और जॉन होल्ट के शैक्षिक दर्शन प्रसांगिक हो गए हैं।इन्होंने विद्यालय के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा किया था।समय परिवर्तन के साथ हाशिए पर रखे गए दर्शन आज मुख्यधारा में हैं। आज पोलो फ्रेरे और जॉन होल्ट के शैक्षिक दर्शन प्रसांगिक हो गए हैं फॉल्ट महोदय के दर्शन तो पिछले वर्ष से ही जीवंतता की प्रकाष्ठा को प्राप्त कर चुके हैं। इन्होंने “होम स्कूलिंग” और “डी स्कूलिंग” जैसे विचार पहले ही दे दिया था। इनका मानना था कि समाज में विद्यालय के होने का मुख्यत: तीन कारण है:-
- विद्यालय बच्चों को संस्कृति, परंपरा और मूल्यों से अवगत कराएं
- बच्चे जिस दुनिया में जीते हैं उस से अवगत कराएं
- विद्यालय बच्चों को किसी रोजगार की संभावनाओं की ओर अग्रसर करें और अंत में सफलता दिलाए….!
परंतु विद्यालय इनमें से कुछ नहीं करता है यह काम या तो समुदाय करता है या समाज…! उन्होंने स्पष्ट कहा कि घर ही विद्यालय हो । वे मानते थे कि स्कूल शिक्षा का एक साधन हो परंतु एकमात्र नहीं। होम स्कूलिंग से जुड़ा हुआ एक और विचार है डी स्कूल इन सोसाइटी इसके विचारक हैं इवान इलिच ।इनका एक शानदार साक्षात्कार है शिक्षाविद कृष्ण कुमार के साथ जो पढ़ने योग्य है विद्यालय शिक्षण से संबंधित विचार पालो फ्रेरे का भी है उन्होंने क्रिटिकल शिक्षण की वकालत की है और यह मानते हैं कि आलोचनात्मक दृष्टि छात्र अपने परिवेश से ही सीख सकते हैं यह भारत के सर्व शिक्षा अभियान से भी जुड़े थे इनकी एक चर्चित पुस्तक है “पेडागोजी ऑफ दी ऑपरेसड” उन्होंने यह आरोप लगाया कि विद्यालय मौन की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। जो कि बच्चों के लिए घातक है।भारतीय विचारकों में जे. कृष्णमूर्ति के विचार शिक्षा और विद्यालय के संदर्भ में और भी ग्रहण करने योग्य हैं। वे कहते हैं सत्य की खोज तो केवल वही कर सकते हैं जो सतत विद्रोह की अवस्था में रहते हैं वह नहीं जो परंपराओं को स्वीकार करते हैं और उनका अनुकरण करते हैं ।
विद्यालय हम सबके जीवन का महत्वपूर्ण पल था और है। वर्तमान त्रासदी ने विद्यालय से परहेज करना सिखाया है लेकिन शिक्षा की चेतना संवेदनात्मक है एक तरह से संवेदना ओं का विकास….! विपरीत परिस्थितियों ने घर से बाहर निकलने से रोका है बुक सेल्फ या किताबों की अलमारी से किताब निकालने से नहीं रोका…! हमारा पीछे का जीवन इतना कठिन था कि पुस्तकें तो उपलब्ध थी परंतु आपाधापी की मार ऊफ….! आज मौका है हर घर शिक्षा का मंदिर हो और हर हाथ रोटी का निवाला देने को बेताब….!आज अवसर है घर- घर विद्यालय हो जाए !दिनचर्या ही पाठ्यचर्या हो।आज मौका है हर पाठ्यक्रम में मनुष्यता,इंसानियत और सद्भावना का समावेश हो।हम भी संवेद हो । वर्तमान के संकेत को आत्मसात करें ।
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परिचय : चितरंजन कुमार की कई समीक्षाएं और आलेख पत्रिकाओ में प्रकाशित होते रहे हैं. फिलहाल ये मुजफ्फरपुर के एलएनटी कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक हैं.