बिहार के समकालीन युवा ग़ज़लकारों की मूल संवेदना :: अविनाश भारती
बिहार के समकालीन युवा ग़ज़लकारों की मूल संवेदना
– अविनाश भारती
गौरतलब है कि भारत की कुल आबादी में पच्चीस करोड़ से भी कहीं ज्यादा युवाओं की जनसंख्या है। यानी भारत की आबादी में अठारह फीसदी युवा हैं और उसमें भी सबसे ज़्यादा युवा उत्तरप्रदेश और बिहार से ताल्लुकात रखने वाले हैं। फलस्वरूप हर क्षेत्रों में इनकी भागीदारी भी उसी अनुपात में दिख जाती है। चाहे वह क्षेत्र राजनीति का हो, साहित्य का हो, खेलकूद का हो या फिर शिक्षा जगत का हो।
अगर बिहार की बात करें तो बिहार हमेशा से साहित्यकारों, अध्यात्मिक गुरुओं और ऋषियों की घरती रहा है। अगर पौराणिक काल की बात करते हैं तो गौतमबुद्ध ,विश्वामित्र, कपिल, कनादी, याग्बल्ल्व, अष्टावक्र, जैमिनी आदि दिव्य विभूतियों से तो मध्यकाल में महात्मा बुद्ध , भगवान महावीर , कालिदास , विद्यापति, गुरु गोबिंद सिंह से गौरवपूर्ण रहा है। कालांतर में भी बिहार की भूमि ने साहित्यिक गतिविधियों को मूर्त रूप प्रदान किया है। साहित्य की हर विधा ने यहां अपनी अमिट पहचान पाने में सफल हुई है।
आदि कवि विद्यापति से लेकर रामधारी सिंह दिनकर,आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री,बाबा नागार्जुन,फणीश्वरनाथ रेणु, गोपाल सिंह नेपाली,रामवृक्ष बेनीपुरी, भिखारी ठाकुर, अरुण कमल, आलोक धन्वा बुद्धिनाथ मिश्र आदि रचनाकारों ने अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य में अपना अमूल्य योगदान दिया है।
एक ओर जहाँ बिहार का गद्य साहित्य जीवन के परिष्करण और उत्थान का साहित्य है, वहीं दूसरी ओर पद्य साहित्य का भी अपना गरिमामय इतिहास है। कवियों ने अपनी नव-चेतना के बल पर रूढ़िग्रस्त परंपरा छोड़कर दुनिया को नई आंखों से देखनी शुरू की। विषय के वैविध्य के साथ विभिन्न विषयों के कवि लेखक एक साथ लेखन से जुड़े रहे। बिहार के कवियों ने साहित्य पर ही नहीं, उनमें निहित विचारों और उन विचारों की प्रेरक सामाजिक,राजनीतिक और अन्य जीवन से जुड़ी परिस्थितियों पर भी अपने ढंग से विचार कर लिखा है। इसी संदर्भ में बिहार के युवा ग़ज़लकार भी अपनी रचनाधर्मिता से पूर्णतः परिचित नज़र आते हैं। बिहार में ग़ज़ल लिखने वाले युवाओं की कतार काफ़ी लंबी है। बहुत ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बनाई है। पत्र-पत्रिकाओं से लेकर मंचों पर भी इनकी ग़ज़लें खूब पढ़ी और सराही जाती हैं। बिहार की ग़ज़लों में आंतरिक आवेग के साथ परिवर्तन की छटपटाहट है। जनमानस की पीड़ा से लेकर आतंकवाद और बाजारवाद के विरुद्ध आवाज़ें हैं।
बिहार के युवा ग़ज़लकारों ने ख़ामोशी की चादर से लिपटे लोगों को अपनी आवाज़ देते हुए उनके आंतरिक कोलाहल को प्रत्यक्ष करने का प्रयास किया है। इस संबंध में कुंदन आनंद का ये शेर देखें –
मुफ़लिस कम ही आते हैं बाज़ारों में ,
इस डर से कि महँगाई लें डूबेगी।
गरीब मारा गया कि जिसने किया नहीं था गुनाह कोई ,
बरी हुआ है बड़ा वह मुज़रिम शहर का महँगा वकील करके।
विकाश राज लिक से अलग शायरी के लिए जाने जाते हैं जो इनकी ग़ज़लों से साफ दिखता है। उनका ये शेर देखें –
समय से आगे की बातें नहीं समझते लोग,
सो अपने दौर में ठुकरा दिए गए हम भी।
शहरी कोलाहल और चकाचौध से दूर रहने वाले नीरज कुमार `निराला´ की ग़ज़लें कम उम्र में ही काफ़ी प्रौढ़ हो चुकी हैं। अपनी संतुष्टि के लिए लिखने वाले नीरज कुमार निराला के कुछ ख़ास शेर देखें –
शोख़ जुमले पसंद करते हैं ,
वो लतीफे पसंद करते हैं।
भूख के दौर में कहां बच्चे ,
चांद-तारे पसंद करते हैं।
सागर आनंद ग़ज़ल की दुनिया का जाना-पहचाना नाम है। ये अपनी ग़ज़लों में मानवीय संवेदना को प्रमुखता से स्थान देते हैं। उदाहरण के लिए इनका ये शेर देखें –
माली को ज़ख़्मी कर डाला है जबसे ,
फूलों का मुस्कुराना गुमसुम रहता है।
सारथी बैद्यनाथ, श्रृंगार के अनूठे फनकार हैं। इनके निश्छल भाव ही इनकी ग़ज़लों की ख़ास प्रवृति है। इस संदर्भ में इनके कुछ शेर उद्धृत करना चाहूंगा।
ज़िक्र कुछ यार का किया जाये ,
ज़िंदगी आ ज़रा जिया जाये।
चाँद छूने के ही बराबर है ,
मखमली हाथ छू लिया जाये।
जिन युवा ग़ज़लकारों ने अपनी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बनाई है तथा मंचों पर ख़ूब सराहे जा रहे हैं उनमें अक्स समस्तीपुर ,विनीत शंकर और अमित झा राही का नाम प्रमुखता से आता है।
अक्स समस्तीपुरी, शून्य पड़ते मानवता को पुनः जागृत करने का भरसक प्रयास करते हुए कहते हैं –
जिसकी मुस्कान में हो उदासी का रंग,
‘अक्स’ औरत वही खींचती है मुझे।
जबकि विनीत शंकर, इंसानों को अपने विचारों एवं प्रतिक्रियाओं से निर्मित होने का दावा करते हुए कहते हैं –
जिससे जैसा बरताव हुआ,
उसमें वैसा बदलाव हुआ।
जबकि अमित झा राही हर परिस्थिति में जिजीविषा बनाए रखने की बात करते हैं अर्थात असफलता से भी सीख लेने का संदेश देते हैं। उनका ये शेर देखें –
तुम्हारी जीत हो तुमको मुबारक,
हमें तो हार से सब कुछ मिला है।
अपने व्यंग्य एवं बेहद अर्थपूर्ण शेरों के लिए मशहूर डॉ. रामनाथ शोधार्थी साहित्य में भी हो रही चाटुकारिता एवं शागिर्दवाद पर कुठाराघात करते हुए कहते हैं –
उन्हीं के सर पे है अब शाइरी का दार-ओ-मदार ,
जो शाइरी का अलिफ़ बे नहीं समझते हैं।
कुछ इसी लब-ओ-लहज़ा के स्वाभिमानी शायर विकास कहते हैं –
लबों के झूठ को सच में बदलने की ख़ातिर,
वो अपने हाथ में गीता -कुरान ले लेगा।
उसे यकीन न होगा मेरी वफ़ा पर तो,
हँसी-हँसी में मेरा इम्तिहान ले लेगा।
युवा ग़ज़लकार अविनाश भारती ने सच न सुनकर चाटुकारिता का प्रश्रय देते लोगों पर तंज कसते हुए क्या ख़ूब कहा है-
क्यों कही यूं शायरी में बात सच्ची आपने,
देख लेना अब नया ही मामला हो जाएगा।
कम उम्र में अपनी छाप छोड़ने वालों में जयनित कुमार मेहता बदलते मानवीय स्वभाव को शब्द देते हुए कहते हैं कि –
अब कली भौरों से शर्माती नहीं है ,
बेशरम अब सारा ही उपवन हुआ है।
सूखी धरती की दरारें पूछती हैं ,
तू भी धोखेबाज़ क्यूँ सावन हुआ है।
कुछ इसी मिज़ाज एवं लहज़े का शेर मनजीत सिंह किनवार भी कहते हैं-
मैल जाती नहीं है भला क्यों कहो ,
जबकि बीती उमर ही नहाते हुए।
राहुल भारद्वाज की ग़ज़लें समाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक विसंगतियों के विरुद्ध कड़े शब्द इख़्तियार करती है। इस शेर से उनकी रचनाधर्मिता को समझा जा सकता है –
बड़ी हैरत है सचमुच वह गज़ब की बात करता है ,
जो फैलाता यहाँ दहशत वो रब की बात करता है।
वो हवाओं को देते रहे हौसला ,
हम चिरागों की लौ को बढ़ाते रहे।
राहुल शिवाय जितना बढ़िया गीत लिखते हैं उतने ही प्रासंगिक शे’र भी कहते हैं। इस संदर्भ में उनके कुछ अस’आर देखें –
तुम्हें लगे तो लगे ताज ये घर उल्फत का,
मुझे तो कट गये हाथों का हुनर लगता है।
हर कोई मुझसे गुज़रकर चल दिया है छोड़कर,
उम्र-भर मैं हर किसी का रास्ता बन कर रहा।
व्यर्थ के अभिमान से है क्या मिला, तुम ही कहो,
साथ क्या आए थे लेकर, साथ क्या लेकर गए।
संजीदा शायर अभिषेक सिंह मानवीय जीवन की परेशानियों को शे’रों में प्रमुखता से स्थान देते हुए कहते हैं –
कभी आँसू कभी मुस्कान होना,
कहाँ आसान है इंसान होना।
सांप्रदायिकता के दौर में जहाँ एक इंसान दूसरे इंसान का दुश्मन बना बैठा है, वहाँ राष्ट्र को सर्वोपरि कहने का साहस कोई नौजवान ही कर सकता है। अंकित मौर्य का ये शेर देखें –
अज़ानों में, भजन में आप उलझें
हमें प्यारा है जन-गण-मन हमारा
कहीं थक कर बैठने और निराश होने से क्या होता है। इस बात को युवा पीढ़ी बख़ूबी समझती है। असफलता से सीख लेना ही जीवन का ध्येय होना चाहिए। इसी ख्याल को आत्मसात करते हुए संतोष सिंह शेखर लिखते हैं –
क्यों परेशाँ हो रहे हो एक छोटी हार से ,
एक मकड़ी लड़ रही थी हर दफ़ा दीवार से।
`अनुभूति की प्रमाणिकता´ और `बौद्धिकता´ समकालीन कविता की सबसे बड़ी विशेषता है। फलस्वरूप रचनाकार के अंतर्मन में उहापोह की स्थिति का उत्पन्न होना लाजमी है। उदाहरण स्वरुप अमृतेश मिश्र का ये खूबसूरत शेर देखें –
मार ही देगी मुझको मेरी खामोशी
अंतर्मन का शोर सलामत रखने में
अच्छे शायर के रूप में लोकप्रियता पाने वाले अनमोल सावरण ‘कातिब’ का इसी मिज़ाज का एक शे’र देखें –
दो आइनों के बीच में कैसा फँसा हूँ मैं ,
समझो कि ख़ुद के बीच में तन्हा फँसा हूँ मैं।
अमरेंद्र लावण्या ‘अनमोल’ का प्रेम और संवेदना की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करता ये शे’र गौरतलब है –
लाश- ए- अनमोल ऐसे फूँकना,
हम जले पर दिल हमारा ना जले।
आधी आबादी यानी बिहार की महिला ग़ज़लकार भी ग़ज़ल के बदलते स्वरूप के साथ हर पहलू पर अपनी बात रखती आई हैं। उन्होंने ग़ज़ल के परंपरावादी विषयों से आगे बढ़कर वर्तमान से जुड़ने की सफल कोशिश की है।उन्होंने अपने अंतर्मन की व्यथा,अपनी अस्मिता और स्त्री जाति के संघर्ष और निज अनुभव के साथ-साथ जीवन की विसंगतियों, विरोध, अत्याचार, शोषण,असमानता,सियासी दांव-पेंच और मानवता पर मंडरा रहे ख़तरों पर अपनी धारदार कलम चलाई है। साथ ही धैर्य, समर्पण, प्रेम आदि जीवन मूल्यों की बातों को भी अपने शेरों में बख़ूबी ढाला है।
औरतों को जन्म से ही बंदिशों में रखा गया है और उन्हें रीति-रिवाजों की दुहाई देकर जकड़ा जाता रहा है।वे घर परिवार से लेकर बाहर तक की ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभा पाने का सामर्थ्य रखती हैं फिर भी समाज उनके अस्तित्व को और उनकी आजादी को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। इस संदर्भ में अभिलाषा कुमारी का ये शे’र देखें –
उन्हें भाती है ग़म को आंसुओं में घोलती औरत,
भला भाती नहीं आख़िर उन्हें क्यों बोलती औरत।
विगत वर्ष कोरोना जैसी महामारी ने पूरी दुनिया को तबाह कर दी थी लेकिन रचनाकारों ने अपनी रचनाधर्मिता से मुँह नहीं मोडा। कोरोनाकाल में भी यथार्थपरक ग़ज़लें लिखी गई। ग़ज़लकारा दीपशिखा का ये शे’र देखें –
लूट है, है वबा और मुश्किल घड़ी,
आदमी, आदमी को सताने लगे।
ऐ ‘शिखा’ तुम कहो अब कहां जाये हम?
आसमां ये ज़मीं सब डराने लगे।
प्रेम को ख़ुदा का सुंदर उपहार समझने वाली प्रीति सुमन बड़ी मासूमियत से शे’र गढ़ती हैं। ये शेर गौर करें –
बड़ा मुँहजोर है ये दिल किसी का हो गया जाके,
कभी सुनता नहीं मेरी कि इसका क्या किया जाए।
हाशिए पर खड़े आदमी की वकालत करती हुई चाँदनी समर कहती हैं –
हर रोज़ है बदलती सियासत भी रूप को,
मुफ़लिस है आज कितना परेशान पूछिए।
आजकल की स्त्रियां अपनी पहचान ख़ुद से बना रही हैं। जो परिभाषा स्त्रियों के लिए इस पुरुष समाज ने गढ़ा है उसे बदले का भरसक प्रयास भी कर रही हैं। स्त्रियों को जटिल कहने वालों को कवयित्री उषा दास का ये शे’र वाज़िब ज़वाब देता हुआ नज़र आता है।
मुहब्बत के गणित में तो बड़े नादान से हैं हम,
बदल दे ख़्वाब की ताबीर उस अरमान से हैं हम।
गलत कहता ज़माना औरतें मुश्किल पहेली हैं,
हमें ग़र प्यार से समझो, बहुत आसान से हैं हम।
इस पुरुष प्रधान समाज में अब भी असमानताएं दिखती हैं। स्त्रियों को आदर और सम्मान उस तरह से नहीं मिल पाता जिसकी वो हकदार हैं। ऐसे में रीता सिवानी का यह अश’आर समकालीन परिस्थितियों पर कटाक्ष करता है। शे’र देखें –
सबकी खुशियों में ढूंढे अपनी खुशियां ,
फिर उसकी आंखों में पानी आख़िर क्यों।
विदित हो कि ये फेहरिस्त यहीं तक सीमित नहीं है। बल्कि इस सूची में आशीष सिंह सहज, मिथिलेश आनंद, पूर्णेन्दु चौधरी, विजय कुमार, उत्कर्ष आनंद, शाज़िया नाज़, ख़ुशबु परवीन, विकास सोलंकी, नवनीत कृष्ण, कुमार आर्यन, मनीष मोहक आदि जैसे ग़ज़लकार प्रमुखता से जुड़ते जा रहे हैं।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आज बिहार में युवा पीढ़ी भी पूरे दमखम के साथ ग़ज़ल के शिल्प को साधते हुए अपनी ग़ज़लों का लोहा मनवा रही है। जिन्हें मार्गदर्शन देने वालों में डॉ. भावना, अनिरुद्ध सिन्हा, समीर परिमल, ज्वाला सांध्यपुष्प, संजय कुमार कुंदन, प्रो.शिवनारायण, संजय पंकज,पंकज कर्ण, डॉ. जियाउर रहमान जाफ़री, हरिनारायण सिंह हरि, रमेश कँवल, डॉ.रवींद्र उपाध्याय, उमाशंकर लोहिया, द्वारिका राय सुबोध आदि पुरोधा ग़ज़लकारों का नाम प्रमुख है।
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संप्रति : हिन्दी प्राध्यापक, जय प्रकाश विश्वविद्यालय, सारण (बिहार )