अविभाजित भारत का पहला कृषि अनुसंधानशाला पूसा (बिहार) और पूसा (दिल्ली) :: वीरेन नंदा   

अविभाजित भारत का पहला कृषि अनुसंधानशाला पूसा (बिहार) और पूसा (दिल्ली)
– वीरेन नंदा   
बिहार के मुजफ्फरपुर से तीस किलोमीटर दूर पूसा में कभी किलानुमा हवेली हुआ करती थी । पूसा अब समस्तीपुर जिला के अंतर्गत है। यह तस्वीर जब मुझे अपने भाई राणा भैया (स्व. विजय कुमार नंदा) से मिली तो उसे देख किसी राजे-महाराजे या जमींदार की हवेली लगी। पूछने पर उन्होंने बताया कि नहीं मालूम। इस तस्वीर के पीछे हाथ से किसी ने पूसा लिख छोड़ा था। कई लोगों से इसकी पहचान करने को कहा किन्तु नतीजा शून्य ! जबकि इस इलाके में दो-दो जमींदार हुए। एक 19वीं सदी के महान विस्फोटक उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री के नाना जीवन लाल महथा, जहां देवकीनन्दन खत्री का जन्म हुआ था और दूसरे मुजफ्फरपुर के पहले सांसद व संविधान सभा के सदस्य श्रीनारायण मेहता। पूसा जाकर इसके बारे में पता करने की कोशिश की किन्तु सब बेकार ! यह उनमें से किसी की हवेली नहीं थी। निराश हो इस तस्वीर को सुरक्षित रख सबकुछ भूल गया।
                बरेली से निकलने वाली स्मारिका ‘आचार्यपथ’ के लिए देवकीनन्दन खत्री पर एक आलेख लिख भेजने के लिए आनंद स्वरूप श्रीवास्तव ने कहा तब फिर एक बार पूसा की यात्रा ब्रह्मानन्द ठाकुर जी के साथ की। देवकीनन्दन खत्री के नाना का कोई अवशेष तो नहीं मिला लेकिन पूसा के उमा पाण्डेय महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ. अखिलेश कुमार मिश्र की पूसा पर लिखित एक किताब मिली। उस किताब में वैसी ही तस्वीर देख बीस वर्ष पहले की उस ऐतिहासिक तस्वीर का भेद खुला ! यह पूसा के “कृषि अनुसंधानशाला और महाविद्यालय” की तस्वीर थी, जो करीब पचासी वर्ष पहले 1934 तक मौजूद थी, किन्तु अब इसके भग्नावशेष भी शेष नहीं वहां ! यह अविभाजित भारत का पहला कृषि अनुसंधानशाला व महाविद्यालय था जिसकी आधारशिला सन् 1905 ई. में भारत के वायसराय लार्ड कर्जन पूसा आकर रखी थी। ज्ञात हो कि लार्ड कर्जन इंग्लैंड के बड़े किसान के पुत्र थे। उनका यह निर्णय देश में 1880 में आये भीषण अकाल (जिसके कारण हर तरफ गाँव-कस्बों में जीवित कंकाल दिख रहे थे) और डॉ. जे. ए. वोल्कर के भारतीय कृषि सुधार आयोग की रिपोर्ट के आधार पर किया गया था। पूसा में इसे स्थापित करने के पीछे खेती के लिए यहाँ की उपयुक्त मिट्टी और आबोहवा का होना था। शायद यही कारण रहा, मुगल-काल में यहाँ से सुगन्धित महीन चावल की सप्लाई होने का। इस हवेली को बनाने के लिए एक अमेरिकी धनकुबेर हेनरी फिप्स ने तीस हजार पाउंड दान स्वरूप दिया था। कहा जाता है कि फिप्स का पी (P) और उनके यूएसए (USA) का निवासी होने के कारण इसे पूसा (PUSA) कहा जाने लगा। किन्तु कुछ लोगों का मत है कि संस्कृत शब्द पूषा से यह पूसा बना है। यह बात 1896-97 के सर्वे वाले नक्शे से भी सिद्ध होता है, क्योंकि उस नक्शे में गाँव का नाम ‘पूसा-देउपार’ दर्ज है।
                  यह विशाल दोमंजिला हवेली ढोली के बनर्जी एंड कंपनी द्वारा निर्मित ईंट और पत्थर से बनी थी। ईंट और पत्थरों के गोलाकार पायों पर निर्मित इस हवेली के बीचों बीच शीर्ष पर एक बड़ा सा गुम्बद था और इसके इर्द-गिर्द पाँच छोटे गुम्बद थे। करीब चौबीस सेंटीमीटर  लम्बा, बारह से.मी.चौड़ा, साढ़े सात से.मी.मोटा और करीब पौने चार किलो वजनी ईंट से निर्मित इस भव्य और आकर्षक हवेली की गुम्बद पर चढ़ कर हिमालय भी देखा जा सकता था ! (यह बात अभी कोरोना-काल में देखने को मिली)। इसे बनाने में नौ लाख खर्च हुए थे, जिस कारण लोग इसे नौलखा हवेली भी कहते थे। इस अनुसंधानशाला और कॉलेज का नाम 1929 में बदलकर ‘इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ कर दिया गया।
                  लेकिन इस सुंदर और विशालकाय भवन का जीवन बहुत कम था। 1934 के भूकंप में इसमें दरारें पड़ गई, जिस कारण इसे भूकंप जोन मानकर 1936 में इस संस्थान को स्थानांतरित कर दिल्ली ले जाया गया और इस भव्य और सुंदर हवेली को सरकार ने पूर्णतः ध्वस्त करवा दिया जिसके भग्नावशेष भी अब कहीं देखने को नहीं मिलते ! आज दिल्ली में जो पूसा रोड है वह इसी के स्थानांतरित होने के कारण है। उसी कृषि अनुसंधानशाला का वह परिष्कृत रूप अब दिल्ली में ‘भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान’ के नाम से चल रहा है और बिहार के पूसा में नए निर्मित भवन में यह अब ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय’ के रूप में कार्यरत है।
                     समय के साथ ‘पूसा’ करवट लेता रहा है। इस कृषि अनुसंधानशाला से पूर्व और भी यहां की ऐतिहासिक कहानियां हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी को जब अपना व्यापार तेजी से फैलाने के लिए घोड़े की जरूरत महसूस हुई तब घोड़ों की अच्छी नस्ल विकसित करने के लिए पूसा के जमींदार को पन्द्रह सौ रुपये मालगुजारी देकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने 5 जुलाई 1784 को यहाँ ‘घोड़ासाल’ की स्थापना की, क्योंकि यहाँ सरैसा नस्ल के घोड़े पाये जाते थे, जिसे घोड़ों की अच्छी प्रजाति मानी जाती थी। इस घोड़ासाल की देखभाल के लिए कैप्टन डब्ल्यू. फ्रेजर की नियुक्ति की गई थी। लेकिन 1874 में ‘ग्लैण्ड’ संबंधी बीमारी फैल जाने के कारण इसे बंद कर दिया गया। राजेन्द्र नगर कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा के जिस भूखण्ड पर अभी स्थित है वहीं घोड़ासाल हुआ करता था। यह ‘पंजाब फील्ड’ के नाम से जाना जाता रहा।
                       घोड़ासाल बंद हो जाने के बाद 1877 में तम्बाकू उत्पादन के लिए ‘मेसर्स बेग डनलप कंपनी’ ने पूसा को लीज पर लेकर वर्जिनिया तम्बाकू पर शोधकार्य शुरू किया गया जो सिगरेट बनाने के काम आता था। पूरे इलाके को तम्बाकू उत्पादन क्षेत्र में बदल दिया। तमाम पुराने अस्तबल को तम्बाकू सुखाने के काम में ले लिया। यहाँ से वर्जिनिया तम्बाकू सप्लाई होने लगी। अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर इसकी मांग बढ़ती रही, लेकिन यह बीस वर्ष चलने के बाद 1897 में बंद हो गया। इसके बाद इस इलाके में नील की खेती होने लगी, जिसकी कोठियां आज भी आसपास के इलाके में मौजूद है। इस इलाके में तम्बाकू की खेती आज भी बड़े पैमाने पर होती है।
आज़ादी की लड़ाई में पूसा की भूमिका :
                    यह बात कितनों को मालूम है कि पूसा के लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में भी अपनी महती भूमिका निभाई थी !
                    आज़ादी के आंदोलन के समय पूसा में ‘पूसा टेक्निकल लूट काण्ड’, ‘फ्लैक्स हाउस अग्नि काण्ड’, और ‘लाल ऑफिस झंडातोलन काण्ड’ क्रांतिकारी युवाओं द्वारा की गई ऐसी घटनाएं हैं जो अंग्रेज सिपाहियों के सम्मुख, उनकी मजबूत घेराबंदी तोड़ कर दिन दहाड़े की गई थी जिसे सुन दांतों तले उंगली दब जाती है। इन्हीं घटनाओं के कारण अंग्रेजों ने ‘तेपरी गांव’ को आग के हवाले कर दिया था जो ‘तेतरी अग्नि काण्ड’ के नाम से इतिहास में दर्ज़ है।
                    नील की खेती के लिए जब अंग्रेजों ने बिहार के मुजफ्फरपुर, सारण, चंपारण, दरभंगा, मुंगेर, भागलपुर, पूर्णिया और शाहाबाद में कुल 86 कोठियां निर्मित करवाई, तब उनमें मुजफ्फरपुर के पूसा इलाके में मोहम्मदपुर, सकरी, ढोली, चकमेहसी, हरिसिंह पुर, जितवारपुर आदि में भी कोठियां बनवाई। ये सभी कोठियाँ किसानों के शोषण के केन्द्र थे। इन इलाकों के जमींदार और रैयतों से ठीके पर खेत ले किसानों को मनमाना मूल्य देकर नील की खेती शुरू की गई। बाद में आम किसानों को भी अपने खेत के बहुलांश भाग में नील की ही खेती करने को बाध्य किया गया ; जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें खाने के लिए अपना अन्न उपजाना सीमित हो गया और उनके बच्चे भूखों मरने लगे। उन्हें पेट बांधकर अंग्रेजों के लिए नील उपजाना पड़ता। सही से उपज नहीं होने पर डांट, फटकार, गाली-गलौज, कोड़े की सजा उन्हें भुगतनी पड़ती। अंग्रेजों के प्रति घृणा और क्रोध पलने के बावजूद वे ख़ुद को असहाय महसूस ईश्वर को याद कर अपने भाग्य को कोसते।
                     गांधी जी की चंपारण यात्रा के बाद इन किसानों पर अत्याचार में कमी तो आई किन्तु किसानों की हालत नहीं सुधरी। 1942 की ‘अगस्त क्रान्ति’ के समय पटना के सचिवालय पर 11अगस्त को झंडा फहराने के दौरान अंग्रेजों की गोली से जब सात विद्यार्थियों की मौत हुई तो पूरा बिहार प्रतिशोध की आग में जल उठा।
                      इस प्रतिशोध की चिंगारी पूसा और उसके आसपास के गांव में भी पहुंची और वहां के सभी वय के लोगों को इस काण्ड ने उद्वेलित कर दिया। परिणाम यह हुआ कि 12 अगस्त को पूसा के लाल ऑफिस पर झंडा फहराने के लिए पांच सौ युवाओं का दल ‘भारत माता की जय’ और ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का गगन भेदी उद्घोष करते बढ़ने लगा। धीरे-धीरे उनके साथ लोग जुड़ते गए और लाल ऑफिस पहुंचते-पहुंचते यह संख्या करीब पन्द्रह हजार हो गई। गोरे सिपाही द्वारा चारो ओर से की गई घेरा बंदी को तोड़ युवाओं ने उस लाल ऑफिस की छत पर चढ़ अंततः झंडा फहरा दिया। इस सफलता ने युवाओं में जोश भर दिया। 13 अगस्त को पूसा उच्च विद्यालय के छात्रावास में उन्होंने गुप्त बैठक की और अंग्रेज सिपाहियों को आतंकित करने के लिए ‘पूसा टेक्निकल’ को लूटने की योजना बनाई जहां हस्त उद्योग का कार्य होने के साथ-साथ हल्के अस्त्र-शस्त्र भी बनाए जाते थे। 14 अगस्त को श्री गोपालजी मिश्र युवा छात्र के नेतृत्व में जब दस पन्द्रह हजार लोगों का जत्था पूसा अस्पताल के समीप स्थित टेक्निकल के पास पहुंचा तो उनलोगों का आक्रमक रुख देख अंग्रेज सिपाही मूक दर्शक बने रह गए, जबकि इस इलाके में ‘लाइट हॉर्स पलटन’ की सबसे मजबूत टुकड़ी तैनात थी। श्री गोपालजी मिश्र ने सुपरिटेंडेंट से चाभी मांगी तो उनके इनकार करने पर दरवाजे तोड़ दिए गए और यह लूट शाम पांच बजे तक चलती रही। अंग्रेजों की और सिपाहियों की पलटन जबतक आती तबतक सभी बूढ़ी गंडक नदी पार कर भाग चुके थे।
               टेक्निकल लूट काण्ड की सफलता से युवा क्रांतिकारियों के भीतर और उत्साह का संचार हुआ और तब उन्होंने पूसा के ‘फ्लैक्स हाउस’ में आग लगाने की योजना बनाई। इस हाउस में तीसी के रेशे से पैराशूट की डोरी बनाई जाती थी और इसे बनाने वाले बड़े-बड़े उपकरण उसमें रखे थे। इस काण्ड को अंजाम देने के लिए पूसा उच्च विद्यालय के छात्र श्री रामनरेश त्रिपाठी को चुना गया। 15 अगस्त को त्रिपाठी के नेतृत्व में युवाओं का जन सैलाब फ्लैक्स हाउस को घेर लिया। अंग्रेज सिपाही इतने बड़े जन समूह के हाथों में लाठियां और घातक हथियार देख खामोश रहने को विवश रहे। भीड़ ने दरवाजों में आग लगा दी और कुछ दरवाजे तोड़ आधी भीड़ अंदर घुसी तथा आधी फ्लैक्स हाउस को चारों ओर से घेर लिया। अंदर गई भीड़ ने तोड़-फोड़ करते हुए सारे उपकरणों में आग लगा दी और लौटते हुए न्यू एरिया गोदाम का ताला तोड़ गोदाम में रखे सामानों को लूटते हुए इस काण्ड की इतिश्री की।
                 चौकीदार, सिपाही, नाविक, वॉचमैन, कर्मचारी और अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर ताजपुर थाना में इस फ्लैक्स काण्ड का केश दर्ज़ कर 64 लोगों को अभियुक्त बनाया गया जिनमें 9 को गिरफ्तार किया गया शेष 54 पकड़े न जा सके। गिरफ़्तार क्रांतिकारियों के नाम थे –
1. जद्दू गोप
2. राम नारायण पाण्डेय
3. रघुनन्दन पासी
4. श्रीनारायण ठाकुर
5. कारी सहाय ठाकुर
6. राम उदार ठाकुर
7. राम नारायण सहनी
8. शिवनन्दन तेली
9. सहदेव ठाकुर
                  उक्त काण्ड ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी । ढोली कोठी का मालिक ए. एन. डैनवी ने इन दोनों काण्ड को अंजाम देने वाले लोगों की सूची बना मुजफ्फरपुर के डीआइजी मिस्टर टेनबुक को भेजी। सूची के अनुसार आंदोलनकारियों की ज्यादा तादाद ‘तेपरी गांव’ के लोगों की थी। डैनवी बड़ी पलटन के साथ अहले सुबह नदी पार कर तेपरी गांव में घुसे और पूरे गांव को पेट्रोल छिड़क जला डाला किन्तु इस बात की सूचना क्रांतिकारियों को पहले ही लग गई थी इसलिए वहां कोई न मिला, इक्का दुक्का छोड़कर। वहां श्री गोपालजी मिश्र के पिता श्री फौजदार मिश्र को उनके घर से गिरफ्तार किया गया और गांव के सुंदेश्वरी ठाकुर को पकड़ कुंदे से पीटा गया। यदि क्रांतिकारियों को इसकी ख़बर पहले न मिली होती तो यह दूसरा ‘जलियांवाला बाग काण्ड’ बन जाता।
                 इस काण्ड के बारे में गांधीवादी अरविन्द वरुण बताते हैं कि ‘दरअसल, तेपरी गांव में भारत छोड़ो आंदोलन से पहले ही आजादी के दीवानों की एक टोली तैयार हो चुकी थी। इसमें गोपालजी मिश्र, राजेन्द्र ठाकुर, रामसेवक ठाकुर आदि प्रमुख थे। इन लोगों ने 1940 के रामगढ़ कांग्रेस में बाजाप्ता भाग लिया था। वहां भाग लेने वालों में मेरी मां भी थीं, जो उस समय एक किशोरी थीं। और, जब अंग्रेजों ने तेपरी गांव को फूंक डालने का निर्णय लिया तो इसे अंजाम देने पुलिस बल के साथ वे गंडक नदी के दक्षिणी किनारे पहुंचे और चिल्लाकर उत्तरी किनारे के मछुआरों से नाव लाने को कहा। मछुआरों ने नाव धारा के हवाले कर दी और गांव में जाकर हल्ला किया कि भागो, अंग्रेज पहुंच रहे हैं। इस सूचना ने बहुत काम किया। आंदोलनकारी तो पहले से ही फरार थे, आमलोगों ने भी टोला छोड़ कर गाछी और खरौरी में छिप कर जान बचाई।’ उन्होंने यह भी बताया कि ‘कुछ दिनों बाद ही अंग्रेजों ने गांव को दुबारा फूंक दिया। लोगों के पास खाने के लिए अन्न तक नहीं बचा था। इसके कुछ दिन बाद गांव के सात सेनानी गिरफ्तार कर लिए गए।’
            तेपरी काण्ड को याद कर वरिष्ठ पत्रकार ब्रह्मानन्द ठाकुर कहते हैं कि ‘इस इलाके के 1942 आंदोलन के हीरो और पूसा में आंदोलनात्मक गतिविधियों के नायकों में से एक तेपरी के गोपालजी मिश्र का 1975 में साक्षात्कार लिया था।’ साथ ही वे कहते हैं कि ‘इस जिले के पूर्वी क्षेत्र के अनेक स्वतंत्रता सेनानियों का साक्षात्कार भी उन्होंने लिया था ,जो उस दौर में जीवित और स्वस्थ थे।’
             उस काल में ही नहीं, बाद में भी पूसा और इसके आसपास का गांव क्रांतिकारी गतिविधियों का अड्डा बना रहा। यहां के क्रांतिकारियों ने विप्लवियों के साथ मिलकर अगस्त क्रान्ति के समय दुबहा और किशनपुर स्टेशन को लूटने और फूंकने का काम किया था।
             इसी पूसा के स्टेशन पर, जो पहले वैनी स्टेशन कहलाता था ; भारत के पहले बम कांड को मुजफ्फरपुर में अंजाम देने वाले खुदीराम बोस गिरफ्तार हुए थें और उन्हें गिरफ्तार करने वाले दो गद्दार थे फतेह सिंह और शिव प्रसाद सिंह नामक सिपाही। अब यह स्टेशन ‘खुदीराम बोस पूसा स्टेशन’ के नाम से जाना जाता है।
             आज़ादी के बीत रहे इस 75 वें वर्ष के अवसर पर पूसा के उन वीर क्रांतिकारियों के बारे में न केवल आज की पीढ़ी को जानना चाहिए बल्कि उन वीरों का स्मरण भी करते हुए अपने इलाके के इतिहास से परिचित होना चाहिए।
………………………………………………………………..
परिचय : वीरेन नंदा लेखक और संस्कृतिकर्मी हैं. खड़ी बोली हिंदी के प्रणेता अयोध्या प्रसाद खत्री पर इन्होंने वृत्त-चित्र भी बनाया था़. वीरेन नंदा समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Previous post ‘मेरा चेहरा वापस दो’ ग़ज़ल का नया और मौलिक चेहरा : डॉ. भावना
Next post हिंदी ग़ज़लों की महत्वपूर्ण कृति ‘रास्तों से रास्ते निकले’ : डॉ भावना