रेलवे किसी की निजी संपत्ति नहीं :: आशुतोष कुमार

व्यंग्य आलेख
रेलवे किसी की निजी संपत्ति नहीं
                          – आशुतोष कुमार
रेलवे के निजीकरण की बात सुन कर तो मेरा दिल बैठा जा रहा है. आज हर स्टेसन पर लिखा मिलता है कि यह रेलवे की लाखों करोड़ की संपत्ति आपकी अपनी है तो मैं अम्बानी , अडानी पर भी आंखे तरेर कर देख लिया करता हूँ.
अब कोई झाबरमल या दारुबाला इसका मालिक बन बैठेगा तो मैं पल भर में अपने को कंगाल महसूस करने लगूंगा.
आज टीटी लोग भी हमें बादशाह समझ कर कितना अदब से पेश आते हैं…..सौ रुपया का नोट टिप में देते कश्मीर से कन्याकुमारी तक का बर्थ यूं दे देते हैं मानों खटमल की दवा की पुड़िया हो.
हम तो रेलवे की संपत्ति को अपनी समझ कर उसका कंबल , तौलिया , थरमस यहां तक कि फैन , लाइट तक कबाड़ लाते हैं.
रेल के डिब्बे में बैठते ही वर्फ़ की तरह जमा प्रेम भी फिर से पसीज उठता है… अपनी पुरानी प्रेयसी पर प्यार इतना उपजता है कि जेब से चाकू या कांटी निकाल कर रेल के सीट पर शिलालेख की तरह लिख दिया करते हैं  ” आई लव यू पिंकी !”.
रेलवे का सहित्यनामा अपने आप में समृद्ध रहा है..बाथ रूम में बैठते उच्च कोटि का सचित्र साहित्य पढ़ने को मिल जाया करता है जिसमें  श्रृंगार रस की हीं प्रधानता ज्यादा होती है….
कभी कभी लगता है शृंगार रस के प्रथम काव्य की रचना का जन्म रेलवे के बाथरूम में ही हुआ होगा.
हर देवदास अपना प्रेम संदेश इस विश्वास से वहां लिख छोड़ता है कि एक न एक दिन उसकी चंद्रमुखी यात्रा करते करते उस बाथ रूम में अवश्य आएगी .
अगर कहूँ कि देवदास की आत्मा आज भी ट्रेन से उतरी नहीं और उसका सफर जारी है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
संभावना है आज सोसल मीडिया में किसी रचना पर अन्य रचनाकारों और पाठकों के लाइक कॉमेंट की परिपाटी की शुरुआत भी वहीं से शुरू हुई होगी..एक पोस्ट देखते अगल बगल दर्जनों सरस टिप्पणियां !
बिल्कुल अपने दीनानाथ जी के अमरूद का बगान लगता है रेलवे , कुछ तोड़ कर खाया कुछ दोस्तों में बांटा….
टिकट विकट का कोई झंझट नहीं….जब चाहा  टांग पसार कर बैठ गए….सोने का मन नही भी करता तो भी सीट गिरा कर पसर जाते हैं….भाई सुविधा मिली है तो क्यों उपभोग न करें.
मैं अपने को वाजिदअली शाह से कम नहीं समझता हूँ एक ट्रेन के डिब्बे में मूंगफली और तंबाकू की डिब्बी ले कर बैठता हूँ.
राष्ट्रीय एकता का इससे सुन्दर उदाहरण नहीं मिलता कि बिना दूसरे अनजान यात्री को भी एक चुटकी तम्बाकू खिलाए कोई अपने मुंह में एक तिनका नहीं डालता.
यद्यपि इसी खाने खिलाने के चक्कर में कभी कभी सारा माल असबाब साफ भी हो जाता है तब भी एक दूसरे के प्रति  आदर भाव मे कोई कमी आज तक नहीं आयी है.
रेलवे प्रबंधन की तरफ से यात्रियों की सुविधा के लिए हर स्टेसन पर पान पराग , गुटका , शिखर , बीड़ी तम्बाकू के भरपूर प्रबंध होते आये हैं . आजकल केसर गुटका और कमला पसंद ने तो यात्रा में सेलिब्रिटी जैसा फिलिंग ला दिया है.
मैं ने कई बार रेलवे बोर्ड से कहा कि अगर हवाई जहाज से लोहा लेना है तो रेलवे में भी  कुछ रेल होस्टेस की भर्ती कर लो…कंपार्टमेंट का नाम दीवाने आम , दीवान-ए-खास रख लो !..पर मेरी कौन सुनता?…मेरी सुन लिया होता तो एयरहोस्टेज के चक्कर में यात्री हवाई सफर की तरफ नहीं भागते.
यह हवाई जहाज से कहीं सुविधाजनक है कि अपने अपने गाँव मे चैन खींच कर उतरने की उत्तम व्यवस्था की गई है….ऐरोप्लेन में बड़े से बड़े मंत्री या ऑफीसर को भी यह सुविधा कहां मयस्सर है कि जहां चाहें वहां लैंड कर जाय….
अब अपने गाँव से गुजरते हुए स्टेसन जाओ और फिर वहां से तांगा रिक्सा ले कर घर वापस  आओ ऐसी यात्रा किस काम की ?…समय और पैसे दोनो की बर्बादी!…इसी खयाल से रेलवे ने हर सीट के ऊपर चैन की व्यवस्था की है.
एक स्वास्थ्यवर्धक खूबी भी रेलवे में दिखती है…भोजन पानी के अभाव में एक लम्बा उपवास हो जाता है…जिससे रास्ते मे टॉयलेट की भी जरूरत नहीं होती ….इस हालात में यात्रियों को प्राणायाम का अभ्यास भी हो जाता है…
इसका सबसे बड़ा फायदा गरीब गुरबे को हो जाता है..अपने मवेशी के लिए घास को लैट्रिन में भर कर सुरक्षित महसूस करता है ताकि रास्ते मे कोई चारा चोर हाथ न साफ कर दे.
गरीबों के लिए भी रोजगार के असीम अवसर यहां होते हैं..समतामूलक समाज बनाने के लिए चोर , उचक्के , जेबकतरे बन्धु कीमती माल उड़ा कर गरीबों में बांट दिया करते हैं….इस कल्याणकारी कार्य में सरकारी महकमा , पुलिस बल भी उनका सहयोग करती हैं….
रेलवे के जैसा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई स्थान नही हो सकता..विधानसभा या संसद में जाने से पहले कोई भी बिल यहीं पास होता है…
रेल के डिब्बे में ही बाबरी मस्जिद गिरी , मंदिर बना , धारा370 हटा और जाने क्या नही हुआ..
बड़े बड़े टीवी एंकर भी वेश बदल कर रेल के डिब्बे में ही राजनीतिक हवा के रुख का पता करने आते हैं…एग्जिट पोल के एकमुश्त सैम्पल यहीं प्राप्त हो जाते हैं तो और कहां जाना !
अब पता नही क्या सूझा प्रधान सेवक को कि रेलवे को झावेरी लाल को देने का फैसला कर लिए!…स्वयं रेलयात्रा करते तो निजीकरण के दर्द को समझ पाते!
पता नही ये झाबरमल या दारूवाला जैसे लोग रेलवे को हवाई जहाज की तरह कहीं दमघोटू न बना दे !….डर है कि यात्रा के दौरान यदि हमें  सीटबेल्ट में बंधने को मजबूर कर सीट से उठने नहीं दिया गया तो हम कैसे जान पाएंगे कि किस नम्बर के बॉगी में मिस इंडिया सफर कर रही है और किस में रिया चक्रवर्ती !
जब दीवारों पर लिखा मिलेगा यह संपत्ति झाबरमल के बाप की है यहां राजनीतिक चर्चा करना मना है तब हम भक्त और गुलाम जैसे  लोगों के लिए यात्रा एक यातना बन कर रह जायेगी.
चिंता यह भी है कि फिर उसके बाद गर्दन टेढ़ी कर आंखें आसमान पर टिका कर कोई शायर यदि नहीं बोल  पायेगा “रेलवे किसी के बाप की थोड़ी है !” तो फिर शायरी का क्या होगा?

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