डॉ वशिष्ठ अनूप की कविताएं संघर्ष-प्रतिरोध की आवाज : ओम धीरज
कविता अपने आरम्भिक काल से ही श्रुति के पंखों पर सवार होकर यात्रा करती रही है । छन्द मुक्त (फ्रीवर्स) होने के पूर्व तक उसकी वाचिक शक्ति का ही वर्चस्व रहा परन्तु बाद में मुद्रण की अतिशय सुलभता और पश्चिमी वैचारिक प्रवाह के युग में यह पठित होती हुई धीरे-धीरे मुद्रित रूप के कब्जे में जकड़ती गयी और आज यह स्थिति हो गयी है कि फ्रीवर्स का ‘आधुनिक कवि’ बिना किताब या कापी लिए अपनी कविता की दो-चार पंक्तियाँ भी आम जनता के बीच नहीं रख पाता । समय साक्षी है कि श्रुति या वाचिक परम्परा की कविताएँ मुख- प्रतिमुख होती हुई सहस्त्रशीर्षा होकर लोकगीत के रूप में ही अपनी सिद्धि-सार्थकता पायी हैं, जहाँ कवि का नाम भुलाकर भी वह जन-जन का कंठहार बन गयीं । इन अमर कविताओं की श्रृंखला में आज भी कुछ कविताएँ रची जा रही हैं जिनकी पंक्तियाँ मुद्रण से पूर्व लोगों के जुबान पर चढ़ जाती हैं । जन-गीत के रूप में लोगों के बीच ये कविताएँ कभी-कभी कवि के नाम-बिना भी इतनी मशहूर हो जाती हैं कि इनके मालिकान का नाम खोजने हेतु इनकी खतौनी देखनी पड़ जाती है । डॉ वशिष्ठ अनूप ऐसे ही विरल कोटि के कवि हैं जिनकी कई रचनाएँ आमजन के जुबान पर चढ़कर दशकों से यात्रारत रही हैं । संग्रह का शीर्षक गीत ‘इसलिए’ (पृष्ठ-23) इसी कोटि की एक विशिष्ट रचना है, जिसे 1985 में लिखा गया और तब से यह कई जन-आन्दोलनों से जुड़कर, भारत ज्ञान-विज्ञान समिति का मुख्य गीत बन कर, दूरदर्शन के सीरियल के शीर्षक गीत के रूप में गाया जाकर, राज्य शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद, उ० प्र० की पुस्तक ‘शिक्षण-प्रशिक्षण संदर्शिका’ में आवाहन-गीत की शक्ल में शामिल होकर मुकाम-दर-मुकाम हासिल करती गयी ।सच तो यह है कि यह गीत एक पच्चीस वर्षीय तरुण कवि के स्वप्नदर्शी मन का शिला-लेख है, उसके जीवन का ‘मोटो’ है जिसके सहारे वह एक ‘बेहतर कल’ के निर्माण की कल्पना करता है । वह एक ऐसी व्यवस्था चाहता है जिसमें कोई शोषित न हो, किसी के मुँह से निवाले न छिने, कोई किसी का हक न मारे, श्रमजीवी का सम्मान हो, बेचारगी और दरिद्रता में नारी को शोषण न हो, कोई दुल्हन दहेज के लिए जलाई न जाय । अपने इस शिला-लेखीय गीत का ही विस्तार उसकी अन्य कविताओं में देखा जा सकता है । इस परिकल्पना को संकल्पना में साकार करने हेतु उसे हथियार भी उठाना पड़े तो वह नहीं हिचकेगा−‘वक्त ने फिर पुकारा है अहले वतन / जागिए और सितमगर से टकराइए हिटलरी रोब दिन-दिन बढ़ा जा रहा / फिर नई जंगे आजादी लड़ जाइए ।x x देश सारा है दुर्योधनों के लिए / है ये एलान धृतराष्ट्र ने कर दिया फिर जरूरी है टंकार गांडीव की / खींचिए तीर, तलवार चमकाइए ।’ (वक्त ने फिर पुकारा है –पृष्ठ-25)इसी तरह वह अपने शिलालेखीय गीत का एक और विस्तार कुछ यूँ करता है−‘पयाम भेजा है गोलियों का / कहा जो तुमने वही करेंगे / लड़े थे पहले फिरंगियों से / तुम्हारे जुल्मों से भी लड़ेंगे ।’ (अथाह सागर उबल रहा है- पृष्ठ-26)किसलिए संघर्ष की राह हम चुनें ? वह बताता है− ‘जिंदगी आँसुओं में नहाई न हो / शाम सहमी न हो, रात हो न डरी / भोर की आँख फिर डबडबायी न हो ।’उसका यह आवाहन कितना प्रभावकारी है कि सदा से शान्त-सौम्य मजदूर-किसान भी बौखला उठता है− “हम खेत न हरगिज छोड़ेंगे । यह खेत है पुरखों की थाती / इसमें है हमारी परिपाटी / इससे ही सुबह हमारी है / इससे है हमारी सँझवाती । इस खेत को जो छीने हमसे / उससे हर हाल में है लड़ना / यह खेत बचाने की खातिर / हमको जीना है, मरना है / जो इसे छीनने आयेंगे / उनके पंजों को मरोड़ेंगे । हम खेत न हरगिज छोड़ेंगे ।” (पृष्ठ-28)कहना न होगा कि सिंगूर, नोएडा, ही नहीं अब तो गाँव-गाँव में खेती की जमीनों का अधिग्रहण फोरलेन्थ- सिक्सलेंथ हाइवे के नाम पर किया जाने लगा है । हाईटेक सिटी और औद्योगिक आस्थानों के लिए किसानों की जमीन अब सुप्रीमकोर्ट के दखल और शायद जगह-जगह हुए आन्दोलनों के कारण कुछ अधिक मूल्यांकन पर प्रतिकर-क्षतिपूर्ति किसानों को मिलने लगी है लेकिन क्या किसानी-खेती की यह रत्नगर्भा-अन्नप्रसवा जमीन पूँजी के एक निश्चित परिमाण में भविष्य की जीवनदायिनी बन सकेगी ? यह प्रश्न आज भी जिन्दा है । कवि एक सचेत जनधर्मी व्यक्तित्व है । वह आँख मूँद कर यह सब होते हुए नहीं देख सकता । तभी तो वह पूँजीवादी ताकतों और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ की ओर मात्र संकेत नहीं, सीधे ललकारती भाषा में चुनौती देता है −“मौसम अगर गरम होगा तो होंठों पर अंगारे होंगे / हाथों में होगी मशाल और हर जबान पर नारे होंगे /…. पर्वत, झील, नदी, जंगल सब पर हैं उनकी लगी निगाहें / आदमखोर अजगरों की दिन-दिन बढ़ती ही जाती चाहें / अपनी झोपड़ियों से अब बेदखल सभी बंजारे होंगे ।” (पृष्ठ-46)इस तरह अनेक जनधर्मी गीत इस संग्रह की पूँजी हैं । बताने की आवश्यकता नहीं कि वशिष्ठ अनूप, फैज अहमद शंकर शैलेन्द्र, शलभ श्री राम सिंह, रमेश रंजक, की परम्परा के कवि हैं जो हिन्दू-उर्दू की समावेशी भाषा ‘हिन्दुस्तानी जुबान’ के कायल हैं । वे हिन्दी गीतों की परम्परा में जनवादी या जनगीतकारों की कोटि में भी परिगण्य हैं । ये रमेश रंजक, नचिकेता, शान्ति सुमन, महेन्द्र नेह, अश्वघोष, ब्रजमोहन, विजेन्द्र कौशिक, हरीश मादानी जैसे लोकप्रिय जनगीतकारों की श्रृंखला की एक मजबूत कड़ी हैं । इनकी भाषा सहज, सरल, सुबोधगम्य तथा लय-छंद युक्त प्रवाहपूर्ण रवानगी से भरपूर हैं । एक विश्वविद्यालयीय प्रोफेसर होने के बावजूद इन पर कविता का छान्दसिकता से इन्हें सहज लगाव है । अभिजात्य-भाव नहीं चढ़ पाया है । आज तो अकादमिक संस्थानों में छन्दमुक्तता की आड़ लिए गद्य कविताओं का आविर्भाव ज्यादा होने लगा है । जहाँ कविताएँ लिखी तो जाती हैं- शोषित, पीड़ित, हाशिये के लोगों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर परन्तु भाषा-शिल्प, प्रतीक-बिम्ब में आलोचकों और अभिजात्य मानसिकता के गंभीर पाठकों पर ही उनकी दृष्टि टिकी होती है । वैचारिक शब्द जाल में उलझी कविता जहाँ स्वतंत्र साँस लेने को तरस रही है । विचार भी, प्रवाह हीन होकर अचल शिला की तरह मात्र जगह घेरते हैं, हासिल कम दे पाते हैं । इस बेचारगी भरी वैचारिक कविताओं के महासागर में गीत-कविता का द्वीप बनकर भटकते जल-यात्रियों को सुरक्षा का बोध कराने वाले बहुत कम ही व्यक्ति इन अकादमिक संस्थानों में हैं । अंगुलियों पर भी शायद गिनने योग्य संख्या विश्वविद्यालयीय कवियों में नहीं मिलेगी जो गीत-कविता के सृजनधर्मी हों । प्रोफेसर वशिष्ठ अनूप एक अपवादस्वरूप व्यक्तित्व हैं जो गीत-कविता, गजल लिखते ही नहीं, समीक्षा-कर्म में लगकर छान्दस कविता की पुरजोर वकालत भी करते हैं । अनेक समीक्षा ग्रन्थों के प्रणयक इस कवि की यह भी विशेषता है कि यह कविता को आमजन के बीच ले जाने के लिए सदा तत्पर भी रहते हैं । आज मंचीय कवि-सम्मेलनों की तमाम सद्गति-दुर्गति, चुटकुले-फूहड़ हास्य-व्यंग्य के लिए कुख्यात घोषित किए जाने के बीच भी वशिष्ठ अनूप की मंच पर उपस्थिति ही मंचीय कवियों की अनुशासित और मर्यादित काव्य-पाठ की गारण्टी होती हैं । आज कवि सम्मेलनों के वर्तमान समीकरण में सार्थक कवियों को मंच से पलायन करने की जरूरत नहीं है बल्कि अपने जनधर्मी-संवादी कविताओं से आम श्रोतावर्ग को जोड़ते रहने की पुरजोर कोशिशें जारी रखना भी आज का कवि कर्म है-युग धर्म है । इस दृष्टि से प्रोफेसर वशिष्ठ अनूप अनुवर्ती पीढ़ी के लिए एक आदर्श मानक कवि भी हैं ।ऊपर उद्धृत किए गये गीतों से स्पष्ट है कि डॉ वशिष्ठ अनूप एक लोकप्रिय-जनवादी कवि हैं । इस संग्रह की बहुतेरी कविताएँ इसी कोटि की हैं । प्रसिद्ध आलोचक रामनिहाल गुंजन ने जनवाद की व्याख्या कुछ यूँ की है− “‘जनवादी’ शब्द का अर्थ क्रान्तिकारी या मार्क्सवादी नहीं; बल्कि जन-साधारण के पक्ष या हित में लेना सिद्घ होता है । इसका अर्थ यह है कि जनसाधारण में लोकप्रिय होने के कारण कोई भी रचना जनवादी हो सकती है, लेकिन इसके साथ-साथ उसकी अन्तर्वस्तु का लोकहित में होना आवश्यक है ।” (शिनाख्त-संपादक नचिकेता-पृष्ठ-77) यहाँ अन्तर्वस्तु के जनवादी होने पर जोर दिया गया है । इस दृष्टि से वशिष्ठ अनूप के गीतों में पर्याप्त साक्ष्य देखे जा सकते हैं । कण-कण है बारूद बन रहा (पृष्ठ 38) बहुत मुश्किल में है खेतिहर (पृष्ठ-30) जनगण की ललकार है (पृष्ठ-40) जैसी तमाम कविताएँ इसके प्रमाण हैं । इंकलाब लिख दें (पृष्ठ-44) नामक कविता में कवि की प्रश्नाकुलता तो देखिए- “मासूम होटलों में क्यों प्लेट धो रहे / माएँ हैं भूखी प्यासी नवजात रो रहे / बहुओं की-बेटियों की क्यों जल रही चिताएँ / क्यों गर्भ से ही उनको मिल रही सजाएँ / होठों पे जिंदगी के हँसता गुलाब लिख दें / आओ लहू से अपने हम इंकलाब लिख दें ।” यहाँ सिर्फ प्रश्नाकुलता नहीं है बल्कि जन-साधारण से संवाद करते हुए उनकी समस्याओं से अपना जुड़ाव भी है । यह जुड़ाव यथार्थ बोध से पूरी तरह संपृक्त है । वास्तव में गीतों में यथार्थ की संवेदना को गूँथना एक सधे शिल्पकार का कौशल है । यह आसान काम नहीं है− एक ओर भाव प्रवण सघन आनुभूतिक संवेदना है तो दूसरी तरफ लय-प्रवाह-छन्द से जुड़ी शिल्पकारिता । इसी तथ्य को प्रसिद्ध जनगीतकार रमेश रंजक ने कुछ यूँ उद्घाटित किया है− “वस्तुतः रचनाधार्मिता एक दुहरी अभ्यास प्रक्रिया है । उसकी पहली शर्त समाज से जुड़े रहने की है और दूसरी सार्थक अभिव्यक्ति की । केवल विचारों को शब्दों का लिबास पहना देने मात्र से रचना-धर्म पूरा नहीं हो पाता । जरूरत है, विचार को भाव तक लाने की । जब तक कोई विचार हमारे जीवन-जगत का अंग नहीं हो जाता, तब तक वह एक अजनबी से अधिक कुछ भी नहीं हो सकता । हमारे जीवन-जगत से जब उसकी जान-पहचान बढ़ती है तभी वह हमारे भाव-जगत को प्रभावित कर पाता है ।” (हिन्दी नवगीतःसंदर्भ और सार्थकता-संपादक-वेद प्रकाश अमिताभ-पृष्ठ-21) कहना न होगा कि इस संग्रह में कवि का कोई अनुभव ऐसा नहीं है जो हमारे जीवन-जगत से जुड़ा हुआ न हो । दूरारुढ़ बिम्ब, अबूझ प्रतीक एवं अस्पष्ट-गूढ़ वैचारिक अन्तर्वस्तु जैसी कोई सृष्टि इनके गीतों में नहीं दिखती । यही कारण है कि ये गीत-कविताएँ सहज-सम्प्रेषणीय एवं पाठक श्रोता से तत्क्षण तादात्म्य स्थापित करने में सक्षम हैं । इसीलिए ये शीघ्र ही स्मरणीय हैं और देर तक अविस्मरणीय रहने की माद्दा रखती हैं । इनकी कविताओं के बारे में सहज ही कहा जा सकता है कि ये किताब में बन्द पड़ी रहने वाली कविताएँ नहीं, बल्कि जुबान पर चढ़ने वाली कविताएँ हैं । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो प्रो. वशिष्ठ अनूप किताब के नहीं जुबान के कवि हैं ।जनवादी कवियों के बारे में आम धारणा है कि ये मार्क्सवाद से प्रभावित होते हैं, जिनके सोच की डोर हिन्दुस्तान के बाहर से जुड़ी रहती है । विश्वमानवतावाद, समाजवाद की आड़ लिए इनके भीतर भारतीय संस्कृति और परम्परा के प्रति अश्रद्ध भाव रहता है । किन्तु इस धारणा के विपरीत डॉ वशिष्ठ अनूप अपनी भारतीयता-बोध, राष्ट्रीय-गौरव-परम्परा के साथ जनधर्मी कविताओं का सृजन करते हैं । कुछेक उदाहरण ही काफी हैं, इस दृष्टि बोध के साथ−“वो राम-कृष्ण-बुद्ध के विचार खो गए कहाँ / उदात्त सारे मूल्य वो विलीन हो गए कहाँ / प्रताप के, शिवा के वीर-वंशजों को क्या हुआ / हमीद-भगत सिंह के शेर-शावकों को क्या हुआ / समाज के प्रबुद्ध वर्ग से प्रबल सवाल है / ये आग कब बुझेगी जिसमें जल रही हैं बेटियाँ / हर रोज क्यों गरल निगल रही हैं बेटियाँ ।” (पृष्ठ-34)यह राष्ट्रीय गौरव-बोध अमर्ष के वाणों में बिंधा होकर आगे अन्य गीत में कुछ और पूछने लगता है- “कम नहीं होती अभी दुर्भाग्य की लपटें / आज भी सीता के हिस्से आग की लपटें / राम को अपनी अयोध्या मिल ही जाती है / पर भटकना दर-बदर हनुमान के हिस्से (सुख समूचे हो गए शैतान के हिस्से-पृष्ठ 64)राष्ट्रीयता बोध के भीतर भी वह अन्ध भक्त नहीं होता इसीलिए धार्मिक आस्था पर चोट करने में भी कवि नहीं चूकता, जन-चेतना यहाँ भी मुखर हो उठती है−“जुते हैं इंसान हर पल बैल-घोड़ों से / है गुजरती जिंदगी कुछ अजब मोड़ों से / कर्म पर अधिकार केवल, चतुर बतलाते / कर्मफल सारे हुए भगवान के हिस्से । (वही-पृष्ठ 63)प्रो. वशिष्ठ अनूप मात्र वर्ग-चेतना के कवि नहीं है, यद्यपि आज की सामाजिक विसंगतियों यथा− ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, सरकार-प्रजा, पुरुष-नारी, अधिकारी-सेवक जैसे द्वन्द्व-युग्मों के बीच शोषित-पीड़ित के प्रति अपने संवेदनात्मक आवेग को प्रतिरोध की आवाज बना कर उन्हें जीवन-संघर्षों में सामूहिक लड़ाई के लिए संकल्पबद्ध करने की कोशिश, इनके बहुत सारे गीतों में है, तथापि एक ‘शिक्षक’ का कोमल-सचेत मन समय-समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता मिलता है । बताने की आवश्यकता नहीं है कि पी एच-डी, डी-लिट जैसी उपाधियों का हेतु कहीं बाबूगिरी या अफसरी करना नहीं हो सकता । आजीवन एक शिक्षक की भूमिका इन्होंने अपनायी । चाहे क्लास में हो, काव्य गोष्ठी में हो या सामान्य औपचारिक-अनौपचारिक वार्ताओं में, इनका यह रूप सामने वाले को दीख ही जाता है । इस गीत संग्रह में बहुत सारे गीत हैं जो एक शिक्षक-मन के कवि ने जैसे अपने छात्रों को समझान-बुझाने, एक योग्य नागरिक बनाने, एक बेहतर समाज की निर्मिति के लिए तत्पर रहने को, प्रेरणा स्वरूप लिखा है । ‘किताब ने कहा’ (पृष्ठ 52), पढ़ना बहुत जरूरी (पृष्ठ 54), उस चिड़िया घर का नाम बताओ (पृष्ठ 82), नजरों से गिरना ठीक नहीं (पृष्ठ-94) जैसी गीत-कविताएँ सीधे बोधात्मक शैली में लिखी गयी हैं । कवि को पता है कि आज की पीढ़ी किताबों से भाग रही है, मनोरंजन और ज्ञानार्जन के अन्यान्य ‘डिजिटल डिवायस’ भी उन्हें उपलब्ध हैं तथापि किताबों की अपनी महत्ता सर्वोपरि है । बालिका-शिक्षा के लिए तो जैसे उत्प्रेरण-गीत ही लिख दिया− “जीवन में कुछ करना है, तो पढ़ना बहुत जरूरी है / सचमुच आगे बढ़ना है, तो पढ़ना बहुत जरूरी है / बिना पढ़े माँ-बाप को कैसे / सुख-दुख बतलाओगी / बिना पढ़े सखियों को कैसे पाती भिजवाओगी / करने काम चला जायेगा दूर देश जब साजन / बिना पढ़े उसको तुम कैसे चिट्ठी लिख पाओगी / अमन-चैन से रहना है तो, पढ़ना बहुत जरूरी है ।”यहाँ वह (कवि) शिक्षक की ‘फ्रेन्ड, फिलासफर एण्ड गाइड’ तीनों भूमिकाओं में उतर आया है−“पढ़ने से इस बंद हृदय की कलियाँ खिल जाती हैं / पढ़-लिख लेने से इन्साँ को मंजिल मिल जाती है / पढ़े-लिखे लोगों से हरदम डरते हैं अन्यायी / ज्ञान-शक्ति होने से जुल्म की चूलें हिल जाती हैं / हक की खातिर लड़ना है तो, पढ़ना बहुत जरूरी है । (पृ.54)कवि एक व्यापक दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति है । आधुनिकता का पक्षधर कवि यद्यपि दहेज हत्या, बलात्कार, भ्रूण हत्या, नारी-अपमान जैसे मुद्दों पर प्रायः आक्रोशित होता रहता है, उनके शोषण से वह प्रायः चिन्तित भी है किन्तु किसी भी हालत में नारी को पुरुष से कमतर मानने को तैयार नहीं । नारी शक्ति के लिए (पृष्ठ-32) नामक कविता में कवि नारी को कुछ यूँ शब्दवान बनाता है कि वह शक्तिमान बन जाती है−“ऐसी मंजिल तो कोई जहाँ में नहीं / जो डरकर हमारे कदम मोड़ दे / कोई ऐसी चुनौती बनी ही नहीं / सख्त अपने इरादों को जो तोड़ दे / ठीक है नाजुकी अपनी फितरत में है / प्यार से मोम जैसी पिघल जाती हैं / पर चुनौती मिले गर कहीं से हमें / सख्त फौलाद में हम बदल जाती हैं / कोई बेटी अगर ठान ले मन में तो / बढ़ के इतिहास में कुछ नया जोड़ दे /” ……..“हम चढ़ी जब तो एवरेस्ट बौना हुआ / हम उड़ी जब तो आकाश छोटा पड़ा / शक्ति बनकर खड़ी हो गयी जब कभी / कोई दुश्मन नहीं देर तक है अड़ा / रौंद कर हर मुसीबत को बढ़ती रहीं / कोई ऐसा कहाँ जो हमें होड़ दे /”कहना न होगा कि आज की बेटियाँ कवि के संकल्प को साकार कर रही हैं । आज सामान्य वायुयान ही नहीं फाइटर राफेल को भी बेटियाँ उड़ाने लगी हैं। ‘लड़ना है अब हमें’ (पृष्ठ-68) शीर्षक कविता भी इसी आशय की कविता है । जहाँ वह कहती है− “यह जिंदगी का तौर बदलना है हमें / जीने के लिए मौत से लड़ना है अब हमें /..झाँसी की रानी बन के निकलना है हमें /…दुःशासनो के शीश कुचलना है हमें /…हाथों में खुद मशाल ले बढ़ना है अब हमें” ये गीत-कविताएँ पूरे उद्धरण की हकदार हैं मगर स्थान-संकोच में थोड़ा उल्लेख करना ही यथेष्ट है । इन बोलती कविताओं के लिए व्याख्या की जरूरत नहीं है । वशिष्ठ अनूप निःसंदेह बोलती कविताओं के जादूगर शिल्पी हैं । ‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही’ जैसे शमशेर बहादुर सिंह के आर्ष-वाक्य को हृदयंगम कर लिया है, इन्होंने ।यह कहा जा चुका है कि वशिष्ठ अनूप प्रतिरोध के कवि हैं । किन्तु यदि और सूक्ष्म अनुशीलन किया जाय तो कहा जा सकता है कि वे निर्भयता के कवि हैं । वे पूरी मनुष्य जाति को, चाहे वह स्त्री हो, बालिका हो या किसान-मजदूर, सबको निर्भयता का पाठ पढ़ाते हैं । वे अनाचार-अत्याचार-शोषण से डरने नहीं लड़ने की ताकत पैदा करना चाहते हैं । इस निमित्त वे सत्ता एवं मीडिया से भी दो-दो हाथ करने को तैयार होते हैं और पाठक को सदैव अपने विचारों से, भावों से बाँधे चलते हैं । पाठक कहीं भी और कभी भी कवि से अपने को अलग नहीं कर पाता । वह जैसे उनकी कविताओं के टेक की ‘टेरी’ भरने लगता है । इस भावानुभूति में डूबा आम-आदमी धीरे-धीरे मुट्ठी बाँधने लगता है । यह ‘मुट्ठी बाँधने’ का साहस उसमें निर्भय-भाव की आश्वस्तिपरक संचेतना से उत्पन्न होता है । यहाँ कवि श्री नरेश मेहता का 1992 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करते समय दिया गया वक्तव्य याद आना लाजिमी है− “वस्तुतः मनुष्य को निर्भय बनाया जाना चाहिए, तभी उसे अपने चिद् रूप की प्रतीति संभव है । धर्म या राजनीति उसे निर्भय नहीं आश्रित बनाती है जबकि काव्य ही ऐसी सर्जनात्मक सत्ता है जो उसे न केवल शास्त्रों और शस्त्रों से मुक्त करवाती है बल्कि निर्भय बनाने के लिए वह धर्म या राजनीति का कोपभाजन बनने के लिए भी तैयार रहती है । आज का मनुष्य भयाक्रान्त है, इसी कारण वह इतना हिंसक और आक्रान्ता हो उठा है कि वह सब कुछ पादाक्रान्त कर डालना चाहता है । भय के वलयों में व्यष्टि और सृष्टि ही नहीं बल्कि समष्टि के अस्तित्व का भी प्रश्न उत्तरोत्तर गहराता जा रहा है । यह मदान्ध स्थिति आज के सर्जक से सर्जनात्मकता के किसी भी पूर्वकाल के संकल्प और प्रतिश्रुति से भी बड़ा संकल्प और प्रतिश्रुति चाहती है । और यह तभी संभव है, जब स्वयं कवि या सर्जक निर्भय हो ।”कहना न होगा कि तब से (1992) अब तक इस ‘मदान्धता’ का वलय कई गुना विस्तृत हो चुका है । नदी, पहाड़, महासागर ही नहीं, पाताल और आकाश तक आधिपत्य जमाने की होड़ वैश्विक पूँजीवाद एवं अधिनायकवादी संप्रभुओं के बीच एक खतरनाक स्तर तक पहुँच चुकी है । जिससे कवि वशिष्ठ अनूप भली-भाँति भिज्ञ हैं, सचेत हैं और पूरे निर्भय एवं निडर होकर अपनी आवाज उठाते हैं, ‘हर जुल्म की कहानी पर इंकलाब लिखने की बात करते हैं ।’ (पृष्ठ-44) ‘ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था बदले जनगण की ललकार है’ (पृष्ठ-40) यहीं नहीं रुकते, वे आज की मीडिया को सीधे चेतावनी दे उठते हैं− “हत्यारों का महिमामंडन बन्द करो / चोर उचक्कों का अभिनन्दन बंद करो ।” ऐसे तमाम गीत इस संग्रह की विशिष्ट सौगात हैं ।वशिष्ठ अनूप सिर्फ आग और क्रान्ति, विरोध और प्रतिरोध, ललकार और दुत्कार के ही कवि नहीं हैं बल्कि एक कोमल भावनाओं के-वात्सल्य-प्यार-दुलार, नेह-छोह की सहज अनुभूति के साथ-साथ प्रकृति, प्रेम, प्रणय और श्रृंगार जैसी रागात्मक संवेदना के भी कवि हैं । एक उजली हँसी (पृष्ठ-36) की पंक्तियों में आज के सामान्य व्यक्ति का कामकाजी जीवन, तमाम विसंगतियों में भी घर में नन्ही बेटी की दंतुल हँसी से रससिक्त हो उठता है । सूर, तुलसी की बाल-लीलाओं की यह अधुनातन कड़ी है−“एक बेटी के पाँवों की रुन-झुन बजी / और घर देर तक गुनगुनाता रहा / एक उजली हँसी ने बढ़ाए कदम / प्यार से हर अधर मुस्कराता रहा ।”इसी तरह ‘सपनों के वारिस’ (पृष्ठ 88) में भी आधुनिकता बोध का वात्सल्य-रस छलकने लगता है । बाल क्रीडा-कौतुक ही नहीं सामान्य सी बतकही मम्मी-पापा को सारे सुखों से भर देती है−“तुम आये तो यह धरती खुशियों से किलक उठी / तुम आये तो सारी अभिलाषाएँ चहक उठीं / अच्छा लगता जब घर की चीजें बिखराते तुम / अपनी मोहक किलकारी से गगन गुँजाते तुम । मम्मी से सारी बातें गुपचुप कर लेते हो / दिन भर की सारी थकान पल भर में हर लेते हो / बहुत मजा आता जब छिपते या शरमाते तुम / इस रीते जीवन को हो सम्पूर्ण बनाते तुम /”आज के पूँजीवादी आर्थिक –युग में संयुक्त परिवारों का विघटन, एकल या ‘न्यूकिलियर फेमिली’ का होते जाना, गाँव के खेत-खलिहान, बाग-बगीचे से दूर होती शहरी पीढ़ी का कंक्रीट के जंगल में खोते जाना एक ज्वलन्त समस्या है । प्रकृति और मनुष्य के आपसी सम्बन्धों के बीच बढ़ती दूरी का प्रभाव निश्चित ही मानव-समाज पर पड़ रहा है । कवि इस चिन्ता से पूरी तरह अपने को जोड़ते हुए, प्रकृति की ओर लौटने का जैसे निमन्त्रण दे रहा है । पारिवारिक रागात्मकता की याद भी दिलाता है ताकि जो कुछ बचा हो, उसे ही सहेज लिया जाय । प्रकृति साहचर्य के वे पुराने दिन उसे याद आते हैं और जैसे अपने-आप से, अपनी पीढ़ी से वह पूछता है−“फूलों पर इतराती शोख तितलियाँ कहाँ गयीं / फुदक-फुदक कर गीत सुनाती चिड़ियाँ कहाँ गयीं / बस्ते के बोझों के नीचे / बचपन नहीं रहा / घर तो ऊँचे बने, घरों में आँगन नहीं रहा / बजड़े के पत्तों वाली वो घड़ियाँ कहाँ गयीं / शहरों में बच्चों सँग बूढ़ी दादी नहीं रहीं / खेलों में गुड्डे-गुड़िया की शादी नहीं रही / दादी के किस्सों वाली सब परियाँ कहाँ गयीं /……… इठलाती-बलखाती प्यारी गुड़िया कहाँ गयीं / ………होली, चैता, लोरी और कजलियाँ कहाँ गयीं ।” (पृ.-84-85)बताने की आवश्यकता नहीं कि विकास की दौड़ में, गाँव को शहर बनाने की होड़ में हमने बच्चों का बचपन छीन लिया । प्रकृति की गोदी में खेलने, धूल-माटी में घरौंदे बनाते, बाजरे के पत्तों से हाथ में कलाई-घड़ी सजाते, गुड्डे-गुड्डियों का ब्याह रचाते, दादी की लोरी सुनते-सुनते, होरी-चैता के गुनगुनाते दिन अब ख्वाबों के दिन ही हो गए हैं ।प्रकृति-प्रेम के इन रागात्मक गीतों में ही कुछ कथा-रस से भरे गीत भी बन गये हैं जो भवानी प्रसाद मिश्र और नागार्जुन की याद दिलाते हैं । भेड़ी ताल (पृ.-75) तथा ‘यहाँ जो एक महुआ था’ (पृ.-96) विशेष उल्लेखनीय हैं । महुआ का पेड़ कवि को बुर्जुगों की निशानी ही नहीं कई इतिहास समेटे एक जीवित कहानी लगता है । पूरे गीत को पढ़कर इसकी रससिक्तता एवं भाव प्रवणता में डूबा जा सकता है ।कवि प्रेम, प्रणय-श्रृंगार के गीतों में भी पूर्णतया रससिद्ध है । प्रकृति के उपादानों से कविता का श्रृंगार करते हुए अपने प्रणय-निवेदन को शील का संस्कार देने में भी कवि समर्थ है−“आम के बाग महमह महकने लगे / गंध बौराई अब तो चले आओ ना ! हर तरफ फूल ही फूल इठला रहे / चाह मुस्काई अब तो चले आओ ना !है फज़ा में अजब-सी शरारत भरी / फूल आपस में करते हैं सरगोशियाँकोयलें सारी पागल हुई जा रहीं / सोच शरमाई, अब तो चले आओ ना !” (पृ.-105)कितनी सादगी से मनुहार किया जा रहा है, सहज ही दृष्टव्य है−“रंग उड़ने लगा फागुनी-फागुनी / जाने क्या कर रही है वसन्ती हवा / सिर्फ यादे हैं, गम हैं, खयालात हैं / और है तनहाई, अब तो चले आओ ना ! ……शाम भी है बदलने लगी पैरहन / आँख भर आई, अब तो चले आओ ना !”सन्ध्या-सुन्दरी का पैरहन (वस्त्र) बदलना कहीं निराला की याद दिला दे तो नामुमकिन नहीं परन्तु यहाँ ‘परी’ नहीं है, साधारण मानवी प्रेयसी है । यही है आज का युग-बोध, कवि का सचेत राग-बोध ।इसी प्रकार का एक गीत है− मनवाँ अपनी मनमानी करे (पृ.-106) लेकिन यह मनमानी हर समय नहीं, सिर्फ फागुन में ही, जब बाबा देवर लगने लगते हैं । इस गीत में भी प्रकृति के उपकरणों से रति-भाव उत्पन्न किया गया है । यहाँ न सिर्फ प्रकृति बल्कि लोक भी पूरी मुस्तैदी से जमा है । एक पद के उद्धरण का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा है−“सरसों के, तीसी के फूल खिले हैं / गेहूँ मटर को लगाए गले है / महुए से मोती बरसने लगे हैं / आमों के मोजर महकने लगे हैं / बच्चों सी बातें ज्ञानी करें / मनवा अपनी मनमानी करें / फागुन में यह नादानी करे ।”डॉ. वशिष्ठ अनूप भले ही अपनी भूमिका में कहें− ‘….इसमें कुछ गीत प्रेम और सौंदर्य से भी बावस्ता हैं, जो तरुण मन के सहज उद्गार हैं’ लेकिन लोक श्रुति है कि कवि कभी बूढ़ा नहीं होता तथा ज्ञानी कभी जवान नहीं रहता और जब कवि ज्ञानवान हो तो दोनों सीमाएँ टूट जाती हैं । सच तो यह है कि प्रेम और सौंदर्य व्यक्ति, समाज ही नहीं पूरी सृष्टि की अस्थि-मज्जा है । इसके बिना तो जीवित संसार की कल्पना ही नहीं की जा सकती । इतिहास गवाह है कि विश्व के महान क्रान्तिधर्मी कवियों ने प्रेम-श्रृंगार के श्रेष्ठ गीतों का प्रणयन किया है । वायरन, शेली, सदे ही नहीं जन कवि लोर्का, ब्रेन्जामिन मोलाइस, पाब्लोनेरुदा, नाजिम हिकमत ने भी तमाम प्रेम-कविताएँ लिखी हैं । यहाँ तक कि हिन्दी के राष्ट्र–कवि दिनकर और महाप्राण निराला ने भी प्रेम और श्रृंगार की श्रेष्ठ कविताओं का सृजन किया है ।जनवादी-आन्दोलन धर्मी कविताओं की तरह अनेक प्रेम एवं श्रृंगार के गीतों की उपस्थिति इस संग्रह में हैं । युवा कवि की स्वप्नदर्शी प्रेम कविताओं के अलावा सद् गृहस्थ कवि की स्वकीया-प्रेम की अभिव्यक्ति भी बहुत हुई है । तुम मिली तो (पृ.-112) दुल्हन की तरह (पृ.-113) के साथ ही मजदूर का पत्र (पृ.-99) विशेष उल्लेखनीय है । मजदूर के पत्र में परदेश गये एक श्रमिक को गाँव में छूटी पत्नी और बच्चों की सुधि उसे बेचैन करती है । शील युक्त इस गीत में प्रेम की इस व्यथा को कुछ यूँ शब्द मिलते हैं−“तन से तो हूँ दूर बहुत / पर पास तुम्हारे मन है / कसम तुम्हारी अब तुम बिन / लगती हर घड़ी चुभन है / दिल का दर्द बहुत गहरा है / इसमें काफी दम है / किन्तु पेट की व्यथा प्रिये / सोचो क्या इससे कम है / जी करता उड़कर आ जाऊँ / लेकिन बँधे पखन हैं / कभी-कभी सपनों में सुनता / नन्हें-मुन्ने की किलकारी / उड़ जाती है नींद अचानक / छा जाती मुझ पर लाचारी / याद बहुत आता तब मुझको / अपना घर आँगन है ।”सारांशत: कहा जा सकता है कि इस संग्रह की कविताएँ लय-छन्द से सधी-बँधी सहज प्रवाहपूर्ण गीत-कविताएँ हैं, इनकी सम्प्रेषणीयता एवं श्रोता से तादात्म्य करने की क्षमता ने इन्हें सहज ही स्मरणीय बना रखा है जिससे ये किताबों में कैद रहने वाली नहीं बल्कि जुबानों पर आजाद भ्रमण करने वाली कविताएँ हैं । इन गीतों को किसी आलोचक-समीक्षक के प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं है बल्कि ये स्वत: प्रेम-सौंदर्य की रागात्मकता को सहेजे आम-आदमी के जीवन में प्रतिरोध-संघर्ष की आवाज बनकर उन्हें निर्भय बनाने के लिए संकल्पित संवादधर्मी भूमिका में सदैव जन-जन के बीच गूँजायमान कविताएँ है, जो अपना प्रमाण स्वयं हैं ।
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