हिंदी ग़ज़ल के साक्षी में जन चेतना की ग़ज़लें

 हिंदी ग़ज़ल के साक्षी में जन चेतना की ग़ज़लें

                                       – अमित कुमार राव

ग़ज़ल की प्रारम्भिक भाव इश्क़-ए-हकीकी से इश्क़-ए-मज़ाजी होते हुए आम-आदमी की सहेली बनना ग़ज़ल की एक खूबसूरत यात्रा है। आम-आदमी की संवेदना, समस्या और समाधान की पुर-जोर वकालत करती आ रही ग़ज़ल को आज हम‘हिन्दी ग़ज़ल’ के नाम से जानते हैं। हिन्दी ग़ज़ल के लेखन की परंपरा अमीर खुसरो से आरंभ होकर आज वर्तमान है।

विदित है‘हिंदी ग़ज़ल के साक्षी’ ग़ज़ल संकलन की पुस्तक है, जिसका सम्पादन बिहार के युवा ग़ज़लकार अविनाश भारती ने किया है।अविनाश भारती ने इससे पहले ‘अदम्य’ और ‘बाबा बैद्यनाथ झा की ग़ज़लधर्मिता’ पुस्तक की कुशल सम्पादन किया है। ग़ज़ल कहना, आलोचना और सम्पादन तीनों कार्य अविनाश एक साथ बखूबी साधते नज़र आते हैं। इसी क्रम में यह संकलन ‘हिन्दी ग़ज़ल के साक्षी’ मूलतः हिन्दी ग़ज़ल की शुरुआती दौर से लेकर आज तक की प्रासंगिक ग़ज़लों की एक संकलन है, जिसमें कालक्रम को आधार बनाकर 365 हस्ताक्षर ग़ज़लगो के 365 प्रतिनिधि ग़ज़लों को शामिल किया गया है।

हिन्दी ग़ज़ल की वास्तविक भाव और उद्देश्य जनचेतना है, दूसरे शब्दों में कहें तो समाज को जागृत करना है। अविनाश भारती के इस संकलन में सम्मिलित ग़ज़लगो के तेवर चेतना के साथ-साथ प्रतिरोध के भी हैं। दुष्यंत कुमार अंदरूनी आग जलाने की बातकुछ ऐसे करते हैं –“मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए”। तो वही आग जब बाहर जलती है तो बशीर बद्र कहते हैं –“लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में”। बस्तियाँ जब मज़हबों का नाम लेकर जलाई जाती हैं तो अश्वघोष कहते हैं –“बस्तियाँ जिसने जलाई मज़हबों के नाम पर,मज़हबोंसे शख्स वो इकदम जुदा जैसा लगे”। बस्तियों के जलने के बेखबर गिरीश पंकज कहते हैं –“आपस में मिलकर रहने वाले अब लड़ते हैं, पता नहीं बस्ती में किसने आ कर आग लगाई है”। सीने की आग बस्ती से होकर पुनः जब दिल के पास पहुचती है तो डॉ. रोहिताश्व अस्थाना कहते हैं –“चूल्हे बुझे हैं क्या हुआ, हर दिल तो जल रहा,उठ देख जिंदगी के अलामत वही हैं”। इस पर जावेद अख्तर का भी एक शेर देखें –“हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआ, मगर सुना है अभी वो मकान बाकी है”

अविनाश भारती ने ‘हिंदी ग़ज़ल के साक्षी’ में अधिकतर ऐसे ग़ज़लगो को शामिल किया है जिनके यहाँ ग़रीबी, बेरोजगारी, मज़दूरी, भूख, महँगाई, किसानी और आत्महत्या पर विशेष ध्यान है।इस पर शिवशंकर मिश्र का यह शेर देखें–“हम खटें, मर जाएं, लेकिन कुछ नहीं, उन पे वो मस्ती चढ़ी है, क्या कहें”।ज्ञानप्रकाश विवेक के यहाँ ग़रीबी इस रूप में आती है -“हवाएं, धूप, पानी, आग, बारिश, आसमाँ, तारे, यही कम्बल हमारे हैं यही अपने बिछौने हैं”। इंसान की पहली जरूरत भूख और प्यास को लेकर पुरुषोत्तम यकीन कहते हैं–“और कब तक लोरियों, किस्सों से ही बहलाएंगे,भूख खाकर, प्यास पी कर हम नहीं सो पाएंगे”। मज़दूर लोग शहर की बड़ी से बड़ी अपार्टमेंट, शॉपिंग मॉल आदि न जाने कितने फ्लैट या घर बनाते हैं लेकिन उनका खुद का घर नहीं बन पाता है तब ओंकार सिंह ओंकार कहते हैं –“न रोटी है, न कपड़े हैं, मयस्सर घर नहीं जिसको, मगर ऊँची इमारत को वहीं आकार देता”।नंदी लाल का एक शेर यह भी देखें–“काम का मारा थका भूखा कहीं भी शाम को,सो गया मज़दूर अपने भाग्य का बिस्तर समझ”। आए दिन किसानों की भूख, बदहाली से आत्महत्या की खबर आती है, इस पररवि खण्डेलवाल कहते हैं –“ सबकी मिटाता भूख जो वो ही किसान है, फंदे पे वो ही भूखा क्या भूखा क्या झूला है दोस्तो”और डॉ. मनोज आर्य उधारी का भी यह शेर देखें–“तंगहाली, आत्महत्या,ये अब कैसी किसानी हो गई है”।

लोकतान्त्रिक देश में सरकारों का पिछड़ी समाजों, समुदायों और जातियों को लेकर नज़र-अंदाज़गी वाकई क़ाबिल-ए-लानत रही है, जिस पर अविनाश भारती की खूब नज़र पड़ती है उसे भी ‘हिंदी ग़ज़ल के साक्षी’ में शामिल किया है। कुछ प्रतिनिधि ग़ज़लगो के शेर देखें,कमल किशोर कहते हैं –“श्रमिक जंगखोरों  की दलाली या लुटेरों का सवाब,और क्या है मुल्क की जम्हूरि सरकारों के पास”।सरकारों का काला-धन विदेश से वापस आने के जुमले पर महेंद्र नेहका शेर देखें–“आग लगेगी कालेधन में, तार-तार घोटाले होंगे”। सत्ता जब कानून से नहीं बुलडोजर से चलने लगे तब चंद्रभाल सुकुमार का शेर प्रासंगिक होते हैं–“द्वार बुलडोजर लिए सरकार अब, है किसे फुर्सत सुने मल्हार अब” और इसी पर नीरज गोस्वामी कहते हैं –“इसी को वो कहते हैं जम्हूरियत अब, यहाँ सर किसी का सलामत नहीं है”। पेपर लीक, परीक्षा में धांधली को लेकर छात्र आंदोलन करते हैं तो सरकार लाठीचार्ज कराके चुप कराने का काम करती है तोअभिषेक कुमार सिंहअपने शेर के माध्यम से कहते हैं–“हर विरोधी स्वर पे बरसेंगी निरंकुश लठियाँ, सत्ता की आलोचना को रौंद डाला जाएगा”। विकास जब पोस्टरों, बैनरों  के माध्यम से मार्केटिंग तक ही  सीमित हो जाता है तब नित्यानंद तुषारका ये शेर देखें–“कल सड़क पर मर गए थे ठंड से कुछ आदमी, देश की उन्नति बताते पोस्टर के सामने”। ऐसे परिवेश में जहाँ सच्चाई और ईमानदारी जैसे अपराध हो वहाँ क्या होता है,राजेश रेड्डी का एक शेर देखें–“सर कलम होंगे कल यहाँ उन के, जिन के मुँह में जबान बाकी है”

अंततः युवा ग़ज़लकर अविनाश भारती की कुशल सम्पादन में ‘हिंदी ग़ज़ल के साक्षी’ ग़ज़ल संकलन का होना मानों ग़ज़लों को आलोचनात्मक दृष्टि से गुजरना है। इस संकलन को शुरुआती दौर के हिन्दी ग़ज़लों का मूल्यांकन के लिए, समकालीन ग़ज़लगो के प्रासंगिकता और हिन्दी ग़ज़लों में जनचेतना के लिए पढ़ा जाना चाहिए। बड़े भाई अभिनाश भारती को सुनहरे भविष्य की शुभकामनाओं सहित बहुत मुहब्बत।युवा ग़ज़लकर अविनाश भारती के एक शेर के साथ हमारा साधुवाद –

“आप ‘अविनाश’ ये हुक्मरां से कहें,

हम सताये हुए को सताने से क्या!”

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पुस्तक – हिन्दी ग़ज़ल के साक्षी

सम्पादक – अविनाश भारती (युवाग़ज़लकार)

समीक्षक – अमित कुमार राव (शोधार्थी, लखनऊ विश्वविद्यालय)

विधा – ग़ज़ल संग्रह

प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, 212 अ, एक्स्प्रेस व्यू अपार्टमेंट, सुपर एमआईजी, सेक्टर 93,  नोएडा-201304 (यू.पी.) ।

पृष्ठ – 404

कीमत – 599/-

 

 

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