विशिष्ट ग़ज़लकार :: अखिल भंडारी


1

तन्हाइयों की हद से गुज़रना पड़ा मुझे

इक अजनबी का साथ भी अच्छा लगा मुझे

 

अच्छे दिनों की आस भी क्या दिल फ़रेब थी

जीना बड़ा मुहाल था जीना पड़ा मुझे

 

यूँ तो वो इक पहाड़ की मानिंद था मगर

आँधी चली तो रेत का टीला लगा मुझे

 

बारिश थमी तो धुप ने झुलसा दिया बदन

मौसम ने किस कमाल से धोका दिया मुझे

 

हैं मेरे हम-ख़याल भीमुझ से ख़फ़ा ख़फ़ा

सूझाजो इक ख़याल बहुत दूर का मुझे

 

कब से भटक रहा था मैं अपनी तलाश में

तुम मिल गए तो खुद का पता मिल गया मुझे

 

कहने को तो वो शख्स़ मेराख़ैर-ख़्वाह था

लेकिन सुना है दे रहा था बद-दुआ मुझे

 

दुनिया से मेल जोल तो सब ख़त्म हो गया

अब खुद ही अपने आप को है झेलना मुझे

 

2

वो पलट कर मुझे दोटूक तकेगा शायद

जाते जाते वो कोई बात कहेगा शायद

 

उस से मिलता हूँ तो अक्सर मुझे डर लगता है

वो बिना बात के बे-वजहलड़ेगा शायद

 

उस की हर बात पे शक हो मुझे ऐसा भी नहीं

दोस्त कहता है तो फिर साथ चलेगा शायद

 

वो जो हर बात पे तन्क़ीद मेरी करता है

मेरे हक़ में भी किसी रोज़ उठेगा शायद

 

इतना आसाँ भी नहीं तर्क-ए-तअल्लुक़ उस से

और कुछ दिन वो ख़यालों में रहेगा शायद

 

घर का सन्नाटा तोबेचैन किए जाता है

घर से निकलेंगे तो कुछ चैन पड़ेगा शायद

 

उस का ग़म उस की निगाहों से झलकता है मगर

उस को रोना नहीं आता वो हँसेगा शायद

 

3

आँधी चली तो सब की रिदाएँ बिखर गईं

चेहरों से रस्म-ओ-राह की परतें उतर गईं

 

जंगल की आग शहर की गलियों में आ गई

काली घटाएँ यूँ ही गरज कर गुज़र गईं

 

बूढ़ा शजर उदास है ये सोच सोच कर

पत्तों को साथ ले के हवाएँ किधर गईं

 

लेदे के अपने हाथ कभी कुछ लगा नहीं

जब दिन समेटलाए तो रातें बिखर गईं

 

अबये भी अपने आप में इक हादसा ही था

जीने की कशमकश में ही उम्रें गुज़र गईं

 

वो कौन दे रहा था दुआएँ तमाम रात

सारी बलाएँ सर से हमारे उतर गईं

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परिचय : अखिल भंडारी कनाडा के टोरेंटो में रहते हैं. इनकी कई रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.

 

 

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