1
वो ही बाबा है ,वो ही मैया है
कुछ बदल सा गया कन्हैया है
मेरी गंगा है मेरी जमुना भी
जो मेरे गाँव की तलैया है
अब कहाँ नीम कोई आँगन में
अब चहकती कहाँ चिरैया है
ज़हन में रामचंद्र हैं मेरे
मेरे दिल में अगर कन्हैया है
साज़ कोई नहीं जिसे दरकार
वक़्त कुछ ऐसा ही गवैया है
2
अपने बारे में कभी सोचा नहीं
ठीक से दरपन कभी देखा नहीं
भूखे बच्चे को सुलाऊँ किस तरह
याद मुझको कोई भी क़िस्सा नहीं
आप मुझको तय करें मुमकिन नहीं
मैं कोई बाज़ार का सौदा नहीं
ज़हन में हर वक़्त रहती धूप है
मेरा सूरज तो कभी ढलता नहीं
नाज़ मैं किस चीज़ पर आख़िर करूं
मुझमें मेरा कुछ भी तो अपना नहीं
जो ठहर जाये निगाहों में मेरी
ऐसा मंज़र सामने आया नहीं
सबके हिस्से में कोई अपना तो है
अपने हिस्से में मैं ख़ुद अपना नहीं
तेज हैं कितनी हवाएं ,फिर भला
दर्द का बादल ये क्यों उड़ता नहीं
3
सोचता मैं देर तक क्या क्या रहा
आईने के सामने बैठा रहा
वो कहानी बन गया इस दौर की
मैं पुराना सा वही क़िस्सा रहा
सब रहे नाराज़ मुझसे उम्र भर
मैं भी अपने -आप से रूठा रहा
वक़्त ने कैसी सिखायी चाल उसे
वो कभी सच्चा कभी झूठा रहा
सो गया कोई तो गहरी नींद में
और पहलू में कोई रोता रहा
घाव मेरी सोच के भरने लगे
ज़ख़्म तो अहसास का ताज़ा रहा
4
कोई सुलझा दे मेरी ये उलझन
दोस्त किसको कहूँ किसको दुश्मन
आज तक चुन रहा हूँ मैं टुकड़े
एक मुद्दत हुई टूटे दरपन
दुश्मनों से हुई जब से यारी
कितने ही दोस्त हो बैठे दुश्मन
वक़्त के हाथ में है वो पारस
जो बनाता है इन्साँ को कुन्दन
दे रहा था हमें फूल माली
ख़ुद हमीं ने न फैलाया दामन
ज़िन्दगी तू हमें यूँ न उलझा
नाम रख देंगे हम तेरा उलझन
5–
मेरे हालात से गुज़रो तो जानूँ
न लेकिन टूटकर बिखरो तो जानूँ
जज़ीरे की तरह सागर में दुख के
कभी डूबो कभी उभरो तो जानूँ
उजाले का हो जैसे ख्वाब कोई
मेरी आँखों में यों उभरो तो जानूँ
मेरी कश्ती को है जिस ओर जाना
उठो उस ओर ही लहरो तो जानूँ
बिखरना बेसबब किस काम का है
सँवरने के लिये बिखरो तो जानूँ
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परिचय : धर्मेंद्र गुप्त साहिल ग़ज़लों में एक जाना-पहचाना नाम है. इनकी कई गजलें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. इनका सृजन अनवरत जारी है
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