विशिष्ट ग़ज़लकार :: डॉ. पंकज कर्ण


डॉ.पंकज कर्ण की दो ग़ज़लें

1
हमें तहज़ीब दुनिया की वो कुछ ऐसे सिखाता है
निगाहें हम मगर वो देखिए उंगली उठाता है

तिरंगे में बसा ईमान सबका जानने वाला
हमारे मुल्क का हर शख़्श अपना सर झुकाता है

यही सच है कि पर्दा आंख पर सबके है फ़िर भी वो
जो पर्दा को नहीं समझा यहाँ पर्दा उठाता है

मुहब्बत की ज़मीं मेरी मुहब्बत आसमां मेरा
मुहब्बत का दिया हरदम यहाँ पर जगमगाता है

सियासी लोग तो ‘पंकज’ लहू में फ़र्क़ करते हैं
मगर हम-सा यहाँ ख़ुद को वतनवाला बताता है

2
तुम अपनी जान दे दोगे तो क्या मैं जान ले लूँगा
भला कैसे तुम्हारे ज़ीस्त की पहचान ले लूँगा

ये धमकी भ्रष्ट अफसर की है कुछ इमानवालों से
मेरी हाँ में करो हाँ वरना मैं संज्ञान ले लूंगा

जो आया हूं तेरे बाजार में मैं भी खरीदूंगा
जो तुम चाहो वो तुम ले लो मैं बस इमान ले लूंगा

लगी है आज बोली बाप-दादों की हवेली की
मेरे भाई तू रख ले घर में रोशनदान ले लूंगा

अगर सूरज से मेरी जंग हो जाये कभी ‘पंकज’
मैं अपनी मुट्ठियों में खाक़-ए-हिंदुस्तान ले लूँगा

 

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