डॉ विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’ की चार ग़ज़लें
1
मुझे इश्क़ का तो पता नहीं , तेरे दिल का मुझको ख़याल है ,
जो मैं तुझ से मिल के न कह सका ,उसी बात का तो मलाल है।
तुझे ग़ैर ले के चला गया ,मुझे दर्द उम्र का दे गया ,
मेरी आँख में तेरा अक्स भी , करे मुझसे कितने सवाल है ।
तेरे आस्ताँ¹ पे झुका हुआ, मेरा हिज्र भी तो है सिरफिरा,
मेरा इश्क़ मुझसे जो छीन ले , ये भला किसी की मजाल है ।
ये जो चाँदनी के हैं सिलसिले ये पहाड़ों नदियों के क़ाफ़िले ,
तेरे आस्माँ का वजूद है ,तो इन्हीं के दम का कमाल है ।
मेरा इश्क़ है इसी काम का , ये जुनूँ है तेरे ही नाम का ,
इसे वुस’अतों² की तलाश है , मेरे दिल में बस ये धमाल है ।
तेरा शह्र था कभी आशना मेरी दिलरुबा मेरी हमनवा,
ये ख़फ़ा हुआ है जो बेसबब करे मुझसे कितने सवाल है ।
चली चाल ऐसी बशर ने अब हुई कायनात³ ये दर-बदर ,
कि उखड़ गईं कई पीढ़ियाँ, ये नई सदी का वबाल⁴ है ।
मैं खड़ा हूँ झील के उस तरफ ज़रा आ के मिल मुझे इस तरफ़,
मेरी आरज़ू! मेरी शम्अ! सुन ,ये ‘शलभ’ का शौक़ ए विसाल5 है ।
2
जो तेरे आंसुओं से भीग जाती थी मेरे अहसास की चादर ,
कहाँ बुन पाऊँगा मैं तू बता फिर से वही विश्वास की चादर ।
तुनक कर या कभी हंस कर बुलाने पर मेरे तुम आ ही जाते हो ,
अरे फिर लहलहाती है फ़िज़ाओं में मेरे उल्लास की चादर ।
कभी हम भी हवाओं में उड़े थे बिजलियों से रक़्स करते थे ,
लो अब दिन रात तनहा बैठे हम लेकर किसी संत्रास की चादर ।
इशारों ही इशारों में हमें उसने कहा जो आप भी सुनिए ,
उठा ले- जाइए ‘संयोगिता’ जैसे उढ़ा मधुमास की चादर ।
हमें मंज़ूर है ये भी कहीं सहराओं में रहना पड़े तुमको ,
तो ‘सीता माँ’ के जैसे साथ होंगे हम लिए बनवास की चादर ।
फना भी गर हुए तो याद सदियों हमको रक्खेगा ज़माना ये ,
बिछाना नित हमारी कब्र पर इक मखमली तुम घास की चादर ।
रहेगा किस तरह ज़िंदा ‘शलभ’ चलते हुए इस बदगुमानी के ,
रफू करते हुए घावों को उसके देना बस इख़लास¹ की चादर ।
1 खुलूस/सच्चा/निष्कपट प्रेम
3
जिस तरह हम आपको दिलवर लगे ,
आप भी हमको बहुत हटकर लगे ।
झिलमिलाता अक्स पानी में तेरा ,
झील भी पहने हुए ज़ेवर लगे ।
क्रोध में बहती नदी बिफरी हुई ,
वासना में तप उठा पैकर लगे ।
लब रहें ख़ामोश आँखें बोलतीं ,
हुस्न तो पढ़ता हुआ मंतर लगे ।
इश्क़ में सब बाज़ियाँ हारी मगर ,
इश्क़ करना ही मुझे बेहतर लगे ।
किस तरह दिल जीत लूँ मैं आपका ,
आप ही मुझको मेरे रहबर¹ लगे ।
अब चमन पर बागबाँ का हक़ नहीं ,
उसके अब उतरे हुए तेवर लगे ।
कितने फ़ित्ने² हो गए हम पर सवार ,
ओखली में दे दिया फिर सर लगे ।
कुछ मुक़ाबिल है नहीं अपने ‘शलभ’ ,
अपनी मुट्ठी में हरेक मंजर लगे ।
1 मार्गदर्शक
2 दंगा-फसाद/अचानक होने वाले उपद्रव
4
उसके आँचल में छुपी कोई ख़ुशी हो जैसे ,
मेरे अहसास में वो गहरे बसी हो जैसे ।
आसमानों में कहीं आग लगी हो जैसे ,
इक नदी झूम के सहरा में बही हो जैसे ।
झील के पानी पे काई सी जमी हो जैसे ,
मेरी फ़ितरत में यही रेत- घड़ी हो जैसे ।
कान में आपने कुछ मेरे कहा लगता है ,
मेरे किरदार में उतरा वो नबी हो जैसे ।
मैं तखय्युल¹ में उसे सोचता हूँ हरदम ही ,
इस ‘तजल्ली’² में मेरी आँख खुली हो जैसे ।
फिर दुशासन न कोई चीर हरण कर पाये ,
द्रौपदी खुद में ही अब ज्वाला-मुखी हो जैसे ।
हम तेरे देश में आये हैं मुहाजिर³ बनकर ,
हर गली लगता है अब तेरी गली हो जैसे ।
अपनी आग़ोश में मुझको यूँ छुपाए रखिए,
ज़िंदगी आपके पैकर में ढली हो जैसे ।
एक बंजारे सी हस्ती है ‘शलभ’ अपनी तो ,
कृष्ण की बांसुरी हर गाँव बजी हो जैसे ।
1 ख़्यालों
2 ईश्वरीय प्रकाश
3 अपने देश को छोड़ दूसरे देशों में बसने वाले मुस्लिम
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परिचय : डॉ विनोद प्रकाश गुप्ता सेवानिवृत्त आइएएस हैं. शिमला के नवल प्रयास संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और निरंतर लेखन कर रहे हैँ.