विशिष्ट ग़ज़लकार :: महेश अग्रवाल

1

हो  न  जाएं  ख़ाक ये  सद्भावना   की  बस्तियांँ

मज़हबों  की  माचिसों में  नफरतों  की  तीलिया

 

कुछ हवा कुछ रोशनी कुछ खुशबुएं मिलती रहें,

बस खुली रखनाहमेशा सोचकी सब खिड़कियांँ.

 

उंगलियां  हाथों  की हैं  छोटी-बड़ी  कमज़ोर भी

पर  यही  मिलकर  बनाती  हैं  हमेशा   मुट्ठियाँ

 

ख्वाहिशें  विश्वास अपनापन  शराफत  सभ्यता

ले गईं  क्या क्या उड़ा कर वो समय की आँधियाँ

 

हम निकल पाए न अपने आप से बाहर कभी,

और अपने नाम कर लीं तुमने सारी सुर्खियांँ.

 

कल ख़रोचें थीं  मगर अब ज़ख़्म गहरे हो गए,

और उन ज़ख़्मों पर तुमने भी चला दी बर्छियाँ.

 

चल दरी  पर बैठकर ग़ज़लों से दिलजोई करें,

सिर्फ  सत्ता के  लिए ही हैं  सुरक्षित  कुर्सियांँ.

 

2

मिला जो दुख तो उससे जूझ कर अनुभव कमा लेंगे

मिला जो सुख तो सब में बांटकर खुशियां मना लेंगे

 

जहां  सिर  को  उठाना  है, उठाएंँ  शान  से  उसको

इबादत  है  जहां सिर को  झुकाना  तो  झुका  लेंगे

 

कहीं  फूलों  ने  ही नजरें  चुरा ली  हों  अगर  हमसे

तो  कांटों पर भी अपना  आशियाना हम  बना लेंगे

 

अगर  चोरी  जरूरी  है  उसे  भी  कर  सकेंगे   हम

किसी  की  आंखों  से  बहते  हुए आंसू  चुरा  लेंगे

 

उदासी को  गमों के घर में  रख आये  सुरक्षित  हम

जमाने  के  लिए  अब  कहकहे  हम  भी  लगा लेंगे

 

करेंगे  जंग  हम  कुछ  इस  तरह  शातिर अंधेरों से

किसी  कोने में  मिट्टी का दिया  हम भी  जला लेंगे

 

वतन  ने  दी  सुरक्षित जिंदगी  उपहार में हमको

मिला अवसर तो उस पर जान भी  अपनी लुटा देंगे

 

3

जिस तरह वो गुल हमेशा ख़ार से लड़ता रहा

 

जिस तरह वो गुल हमेशा ख़ार से लड़ता रहा

एक आंगन अनवरत दीवार से लड़ता रहा

 

बूंद शबनम की सुरक्षित पत्तियों पर रह सके

इसलिए मैं धूप के व्यवहार से लड़ता रहा

 

यूं तो उसके साथ उसका हौसला ही था हुजूर

इसलिए वह जख्म भी तलवार से लड़ता रहा

 

रोटियांँ जल्लाद की मजबूरियांँ थी दोस्तो

उम्र भर वो अपने कारोबार से लड़ता रहा

 

अपने हिस्से की सभी हक मिल सके सबको यहांँ

इसलिए मैं देश के दरबार से लड़ता रहा

 

भूख आँसू दर्द आहें मुश्किलें मजबूरियां

जिंदगी भर इनके हाहाकार से लड़ता रहा

 

पास मेरे और तो कुछ भी नहीं था दोस्तो

हर समय मैं शब्द के हथियार से लड़ता रहा

 

4

कराहें, दर्द, आहें, सिसकियों की बात करते हैं

गजल में हम बहुत बेचैनियों की बात करते हैं

 

जिन्हें तूफान से मुठभेड़ करना खूब आता है

चलो हम काठ की उन कश्तियों की बात करते हैं

 

वो’ जिनकी दृष्टि ने बस राजपथ से राजपथ देखा

चुनावों में वही पगडंडियों की बात करते हैं

 

वो’ अपनी खूबियों का जिक्र बढ़-चढ़कर किया करता

वही हम अपनी अनगिन खामियों की बात करते हैं

 

इधर  संजीदगी  से  मैं  सुनाना  चाहता  गजलें

उधर हर बात पर वो  तालियों की बात करते हैं

 

मदद करती हैं लिखने में जो अक्सर सच बयानी को

कलम के साथ हम  उन उंगलियों की बात करते हैं

 

तुम्हारे सोच में  दीवारों के साये नजर आते

हमारे सोच में हम खिड़कियों की बात करते हैं

 

5

दरवाजे  पर  जाने  किस की  दस्तक है

भूख खड़ी है या कि सियासत याचक है

 

उतने  में  ही  हम  तो  खुश  रहते  आए

जितना जो कुछ पास हमारे अब तक है

 

बच्चा भी  धनवान समझता है  खुद को

उसके  पास  बड़ी  मिट्टी  की  गुल्लक है

 

रोज   उजालों   का   वो  पहरेदार   रहा

घर की  चौखट पर जो जलता दीपक है

 

झूठ  ‘सुपारी’  लेकर  घूम  रहा  सच की

खतरे  में  भी  सच का  ऊंचा  मस्तक है

 

सौंपा  था  किरदार  उसे  तो  नायक का

फिल्म चली तो ज्ञात हुआ खलनायक है

 

उसको  सुनने  को सब  लालायित  रहते

उसके  पास  ग़ज़ल  कहने का मानक है

 

लेखक  होने  का  दावा करता मस्तिष्क

लेकिन  दिल  तो  पढ़ने वाला  पाठक है

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परिचय : महेश अग्रवाल ग़ज़ल के सम्मानित हस्ताक्षर हैं. इनकी ग़ज़लें विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है.

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