विशिष्ट ग़ज़लकार :: समीर परिमल

समीर परिमल की छह ग़ज़लें
1
आगे बढ़कर जी लूँ जिसको लम्हा ढूँढ रहा हूँ मैं
काले सायों में इक साया अपना ढूँढ रहा हूँ मैं
तेरे मेरे बीच में क्या था पूछ रहा है दिल मुझसे
पनडुब्बी का पैराशूट से रिश्ता ढूँढ रहा हूँ मैं
प्यार, मुहब्बत, चाहत, ग़ैरत, रिश्ते, इश्क़, वफ़ादारी
तेरे पैग़ामात में जाने क्या-क्या ढूँढ रहा हूँ मैं
शीशमहल, पूरब मठिया,  बंगाली लाइन, केसर बाग़
पटना की गलियों में अपना हथुआ ढूँढ रहा हूँ मैं
यूँ ही तो इल्ज़ाम नहीं है पागल होने का मुझ पर
आंखों में घड़ियाल की गंगा जमुना ढूँढ रहा हूँ मैं
इक चेहरे में जाने कितने चेहरे ढूँढ रहा है वो
हर चेहरे में बस इक उसका चेहरा ढूँढ रहा हूँ मैं
2
दो दिलों के दरमियाँ यूँ फ़ासला होने के बाद
हूक सी उठती है उनसे सामना होने के बाद
आप सबके हो गए हैं बेवफ़ा होने के बाद
मैं किसी का हो न पाया आपका होने के बाद
इन हसीं यादों का क़ैदी ही रहूँ ताउम्र मैं
ज़िंदगानी में बचेगा क्या रिहा होने के बाद
कितना मुश्किल है निभाना इस अदब के फ़र्ज़ को
महफ़िलों में मुस्कुराना ग़मज़दा होने के बाद
जश्ने-आज़ादी कहो या जश्ने-नाकामी इसे
है सुकूं दिल को बहुत तुमसे जुदा होने के बाद
काश मिल जाए कभी तो ग़ौर से देखूं उसे
कैसा लगता है कोई इंसां खुदा होने के बाद
आशिक़ी में आपकी शायर बना, अफ़सर बना
आप चाहेंगे मुझे अब और क्या होने के बाद
 3
दी जो उल्फ़त के परिन्दे को रिहाई मैंने
यूँ लगा रस्म मुहब्बत की निभाई मैंने
मुद्दतों बाद बना दिल ये निशाना उनका
मुद्दतों बाद ग़ज़ल कोई सुनाई मैंने
मुद्दतों बाद हुई मुझको शिकायत मुझसे
मुद्दतों बाद नज़र ख़ुद से चुराई मैंने
मुद्दतों बाद हुआ क़त्ल अना का मेरी
मुद्दतों बाद कोई लाश उठाई मैंने
मुद्दतों बाद वही दौरे-मुहब्बत आया
मुद्दतों बाद वही चोट भी खाई मैंने
मुद्दतों बाद मेरी आँख में पानी आया
मुद्दतों बाद लगी दिल की बुझाई मैंने
मुद्दतों बाद चुभा पीठ में ख़ंजर कोई
मुद्दतों बाद ख़ुशी ग़म की मनाई मैंने
मुद्दतों बाद बना फिर से तमाशा मेरा
मुद्दतों बाद हँसी अपनी उड़ाई मैंने
चाँदनी रात में छत पर न कभी जाऊँगा
मुद्दतों बाद क़सम फिर ये उठाई मैंने
 4
शिकवे शिकायतों व शरारत का दौर था
ताज़ा हसीं गुलों की इबादत का दौर था
दो चूड़ियों के बोझ से आ जाती थी लचक
नाज़ुक कलाइयों की नज़ाकत का दौर था
बेख़ौफ़ आसमान में उड़ते थे साथ-साथ
रस्मों से बार-बार बग़ावत का दौर था
मुर्दा इमारतों में हैं ज़िंदा कहानियाँ
ईंटें गवाह हैं कि वो जन्नत का दौर था
क़िस्से हमारे इश्क़ के अब भी फ़िज़ा में हैं
नब्बे का दौर सच में मुहब्बत का दौर था
 5
जागती आँखों में कुछ सपने लिए आ जाइए
हम जलाएंगे उम्मीदों के दिये, आ जाइए
सीख लीजे मुश्किलों में खिलखिलाने का हुनर
लब पे ग़म की दास्तां मत लाइए, आ जाइए
गड्डियों में ताश की हर दर्दो-ग़म को फेंटकर
ढूँढ लेंगे सर्किलों के ज़ाविये, आ जाइए
मॉनसूनी इश्क़ के बादल लगे हैं झूमने
ताल पर हर बूँद की लहराइये, आ जाइए
यार बदले आपने, हमने भी बदली कार थी
इस पहेली को कभी सुलझाइए, आ जाइए
दास्ताँ लंबी है, पन्ने कम हैं, उसपर शर्त ये
छोड़ने दोनों तरफ़ हैं हाशिए, आ जाइए
आपको दूँ मशविरा, ये हक़ नहीं मुझको मगर
क़त्ल कर रिश्तों का मत इतराइये, आ जाइए
अब मुकम्मल हो ही जाएगी अधूरी ये ग़ज़ल
मिल गए हैं ख़ूबसूरत क़ाफ़िए, आ जाइए
पत्थरों पर खिल उठेंगे ‘प्रेम’ के कितने ‘सुमन’
बस ज़रा‘परिमल’ की ग़ज़लें गाइए, आ जाइए
 6
शरारत है, शिकायत है, नज़ाकत है, क़यामत है
ज़ुबां ख़ामोश है लेकिन निगाहों में मुहब्बत है
हवाओं में, फ़िज़ाओं में, बहारों में, नजारों में
वही खुशबू, वही जादू, वही रौनक सलामत है
हया भी है, अदाएँ भी, कज़ा भी है, दुआएँ भी
हरेक अंदाज़ कहता है, ये चाहत है, ये चाहत है
वो रहबर है, वही मंज़िल, वो दरिया है, वही साहिल
वो दर्दे-दिल, वही मरहम, ख़ुदा भी है, इबादत है
ज़माना गर कहे मुझको दीवाना, ग़म नहीं ‘परिमल’
जो समझो तो शराफ़त है, न समझो तो बग़ावत है

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