खास कलम : आराधना शुक्ला

1
शातिर हैं अब हवा के झोंके, कातिल बड़ी बयार
चिरैय्या खबरदार

नहीं घोसला रहा सुरक्षित, पिंजड़े में भी खतरा
कैसे जान सकेगी, किसका मन है कितना सुथरा
खंजर नीड़ के तिनके, काँटे पिंजड़े की दीवारें
हंसों के चेहरे में छिपती, नागों की फुफकारें
बाज़ तेरे हमदर्द बने हैं, गिद्ध हैं पहरेदार
चिरैय्या खबरदार

आसमान है मात्र भरम, ये सभी उड़ानें छल हैं
माना उड़ सकती है चिड़िया, पंखों में जो बल है
पर क्या होगा, जब उड़ान में पर नोचे जायेंगे
पीड़ित को ही नभ के स्वामी, दोषी बतलायेंगे
तलवार बना तू पंखों को, डैनों को कर हथियार
चिरैय्या खबरदार

आस लगाना किससे, क्या मझधार किनारा देंगे
राम स्वयं निर्वासित हैं, क्या तुझे सहारा देंगे
अतः तू अपनी रक्षा खुद कर, बहेलियों-जालों से
बाज़ों, गिद्धों से-जो ढँके हैं, हंसों की खालों से
साहिल तक पहुँचाएगी, बस हिम्मत की पतवार
चिरैय्या खबरदार

2
सारी क्यारी पूछ रही है, एक कली से हँस-हँसकर
जो तुझ पर मंडराता था वो भंवरा पागल कहाँ गया

जब जलती-तपती धरती, वो दौड़ा-दौड़ा आता था
जेठ-अषाढ़ की कड़ी धूप में, छतरी सा तन जाता था

उमड़-घुमड़कर करे ठिठोली, गरजे कभी डराये वो
कभी धरा की प्यासी धरती को आँसू बन जाता था

बरखा में भींगी धरती झुलसी-झुलसी ये पूछ रही
मुझे भिंगाने वाला वो अवारा बादल कहाँ गया

देख हक़ीक़त जलती आँखें राहत दिलवाता था वो
बंजर आँखों की धरती में सपने बो जाता था वो

पहरेदारी कभी नज़र का टीका बनकर करता था
कभी बांध नदिया जैसी आँखों का बन जाता था वो

सुर्ख़ उनींदी अँखियाँ भींगे आँचल से ये पूछ रहीं
हमें सजाने वाला वो सुरमा वो काजल कहाँ गया

चाँदी की डोरी में बंध पैरों से लिपटा रहता था
छम-छम की बोली में पगला जानें क्या-क्या कहता था

आने वाले क़दमों की आहट की अगवानी करता
थिरकन-चटकन-बिछड़न-भटकन सबकुछ चुप-चुप सहता था

पायल से टूटा तो उसका मन भी छन से टूट था
पायल बिलखे पूछ रही वो घुंघरू घायल कहाँ गया

3
रिस गये हैं प्राण, खाली देह की अंजुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल

आज हर संवेदना, सूना ह्रदय परित्यक्त करके
हो चली मृतप्राय मनसा शक्ति को निश्शक्त करके

डस रहा सब कामनायें, स्मृति-संकुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल

त्याग की ना धूप चाही, ना कोई माँगा समर्पण
पावसी बौछार ना ही रश्मियों का शुभ्र तर्पण

नेह-जल बिन सूखता उर-भूमि का तर्कुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल

सजल हिय की वीचि में परिताप के पंकज पिरोये
वार सीपी – शंख अपने, आतपी प्रस्तर समोये

देह-तटिनी प्राण के परित्याग को व्याकुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल

पलक-पुलिनों पर व्यथा बन अश्रुकण है आज फैली
प्रीति के पावन सरोवर की हुई है निधि विषैली

ताल में दम तोड़ता है राग का दादुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल

4
रंग अपने सब तुम्हे मैं सौंपती हूँ
हो सके तो आज यह उपहार ले लो

रंग है रक्तिम समर्पण का धवल रंग त्याग का है
पीत है संवेदना का, केसरी अनुराग का है

प्रेम का अक्षय असीमित कोष है यह
भावपूरित यह अमिट आगार ले लो

जागती पथराई आँखें, आज सोना चाहती हैं
अंजुरी में अश्रु के कुछ बीज बोना चाहती हैं

सौंप दो झूठे सपन नयनों को मेरे
और मेरे स्वप्न का संसार ले लो

परिधि से साँसों की होकर मुक्त जीवन, खो रहा है
बिन ‘ह्रदय’ के स्पन्दनों का मौन हो स्वर, रो रहा है

पल रहा उर में अपरिमित नेह प्रतिपल
इस अभागे नेह का विस्तार ले लो

5
दीप अनगिन जगमगाये पर तिमिर छाया घना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

पीर का कारुण कथानक, पात्र भी पुतले चुने हैं
वास्तविकता है धरातल दृश्य आकाशी बुने हैं

सूत्रधर भी है अबूझा, और मंचन अनमना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

बस तनिक सुख-मेघ बरसे, दामिनी दुख की सताये
यदि पवन आनंद दे तो कष्ट का आतप तपाये

कर्म की कुटिया कि जिसपर भाग्य का छप्पर तना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

हर्ष के कंदील भीतर शोकमय सारंग जले है
वर्तिकाओं को ह्रदय की द्वेष की आँधी छले है

द्वार पर पीड़ा का तोरण अश्रुपूरित अल्पना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

यातनाओं की नदी है, प्राण का यह कूल पकड़े
देह के जर्जर महल को त्रास की लहरें हैं जकड़े

और सीपी मन, कि जिसनें भाव का मोती जना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है
…………………………………………………………………………………
परिचय – पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाओं का प्रकाशन
संपर्क – 125/84 ‘एल’ ब्लॉक गोविन्द नगर, कानपुर, उत्तर प्रदेश – 208006
चलभाष – 7398261421

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *