भीड़ चली है भोर उगाने
हांक रहे हैं जुगनू सारे,
उल्लू लिखकर देते नारे,
शुभ्र दिवस के श्वेत ध्वजों पर
कालिख मलते हैं हरकारे।
नयनों के परदे ढंक सबको
मात्र दिवस का स्वप्न दिखाने।
भीड़ चली है भोर उगाने
दुंदुभि बजती, झूम रहे हैं,
मृगतृष्णा को चूम रहे हैं,
अपनी पीड़ाएं फुसलाकर
नमक-नीर में घूम रहे हैं।
किसी घाव पर किसी घाव के
शुद्ध असंगत लेप लगाने।
भीड़ चली है भोर उगाने।
नए वैद्य के औषधिगृह में
दवा नहीं बनती पीड़ाएं।
सत्य नहीं, कवि ढूंढ रहे हैं
चारणता की नव उपमाएं।
नेता राष्ट्रध्वजों से ढंकते
जन-स्वप्नों के बूचड़खाने।
भीड़ चली है भोर उगाने।
सूरज को कल फिर आना है
तप्त-खिन्न से पत्थर बोले,
तनिक सांस ले, बाँहें खोले।
शीत चांदनी से नहला दो
ऐ चंदा-सर! हौले-हौले।
शीतलता का दीप जला दो,
ज्वाल-अंध कल फिर छाना है।
दीप अगिन थे कभी जलाए,
उनका अब प्रकाश ना भाए,
चंद्र-खिलौने पर अड़कर, अब
हठवश हो सब दीप बुझाए।
उसे पता क्या नहीं! पूर्णिमा
को कुछ दिन में ढल जाना है।
जीवन के अर्जन में क्या है?
जो भी है, सब कुछ धुंधला है।
लघुता को निज बीज बनाकर
जो उग जाए वही फला है।
जो पत्थर ठोकर में हैं, कल
उनको ही पूजा जाना है।
सविता पर निर्भर क्या रहना?
कविता की भाषा क्या कहना?
जीवन के इस महायज्ञ में,
हविता सत्य, सत्य है दहना।
समर सिंधु में नाव, तिरोहण
या फिर पार उतर जाना है।
कुछ अंह का गान गाते रह गए
कुछ अंह का गान गाते रह गए।
कुछ सहमते औ’ लजाते रह गए।
सभ्यता के वस्त्र चिथड़े हो गए हैं,
हम प्रतीकों को बचाते रह गए।
वेद मंत्रों की धुनों पर धूर्तता
सज्जनों का होम करती जा रही है,
शून्य मूंदे नैन अपने पथ चले
मूक धरती नृत्य करती जा रही है।
तोड़ अंतस के शिवालय हम सभी
नभ-देवताओं को बुलाते रह गए।
नीड़ के प्यासे परिंदों को लगा
इस बार बादल से गिरेंगे तृण नए।
इस बार हमने आंच बदली है नई
इस बार नभ में सिंधु-जल-जत्थे नए।
बूँद गिरना तो रहा, गरजे जलद,
हम नीड़ के सुर बड़बड़ाते रह गए।
यूं मना है जश्न उनकी जीत का,
आह के स्वर दब गए हैं शोर में।
कौन सा षड्यंत्र खेला चांद ने
एक भी तारा न आया भोर में।
घुल गई हर सांस में है रातरानी
हम सुबह के गीत गाते रह गए।
कर्म से ज्यादा जरूरी है प्रदर्शन,
कह रहे श्रीकृष्ण अब के पार्थ से।
धर्म की भाषा ने बदला व्याकरण,
नीति अपने अर्थ लेती स्वार्थ से।
सत्य है नेपथ्य में बंधक बना,
मंच बस मिथकों के नाते रह गए।
हम निरन्तर सभ्य होते जा रहे हैं
छोड़कर सिद्धांत सारे सभ्यता के।
रूचते हमको कहाँ हैं अब यथार्थ
हम समर्थक हैं तो केवल भव्यता के।
यूं गिरे उनके हवा-निर्मित महल
कान अब तक सनसनाते रह गए।
जड़ लिए हैं स्वप्न उन्होंने हमारे
राजसिंहासन के पायों में कपट से।
छोड़कर मंझधार में मांझी हमारे
खे रहे हैं नाव बैठे सिंधु-तट से।
कर लिया अनुबंध रजनी से सुबह ने
हम रात भर दीपक जलाते रह गए।
आँखों पर भार बहुत है
आँखों पर भार बहुत है
आँखें कुछ दिन से भारी हैं।
नींदों ने निगले चौराहे,
अनुकल्प चयन करना क्या है!
स्पष्ट दृष्टि के धुंधलेपन में,
दृश-यंत्र पहन करना क्या है!
यह पूर्व-लिखित पटकथा-बन्ध,
निज-बुद्धि कहन करना क्या है!
यह दौर बिके तर्कों का है,
प्रति-मर्श गहन करना क्या है!
हर ‘शब्द’ ऋणी लगते सबके,
हर ‘गर्व’ कहीं आभारी हैं।
आँखों के जल से सींच-सींच,
उगते पौधे सम्बन्धों के।
हैं बंधे रीढ़ के धागों से
काग़ज़-पत्तर अनुबंधों के।
पवनों के पाँव जकड़ते हैं,
लंगड़े सैनिक तटबंधों के।
अनफिट किरीट का भय गढ़ते
हैं अनुच्छेद प्रतिबंधों के।
अब धर्म वही, अब सत्य वही,
जो कृत्य-कथ्य सरकारी हैं।
हमको यह सब कब करना था!
हमने अपने हाथ गढ़े थे,
हमने अपनी राह रची थी।
हमने तब भी दीप जलाए
जब दो क्षण की रात बची थी।
जुगनू की पदवी मिलते ही
पंख लगाकर आसमान के
जगमग जग में कब बरना था।
जब हम थे शपथाग्नि किनारे,
तुम भी तो थे हाथ पसारे
लिए शपथ की आंच खून में
रक्तिम प्रण नयनों में धारे।
युग के गांधी की लट्ठों को
सिस्टम की पाटों में पिस-पिस
इक्षु-दंड सा कब गरना था।
चंद मशालों की आंचों में
हमको रण का गुर पढ़ना था।
बची-खुची आवाजों से ही
इंकलाब का सुर गढ़ना था।
चट्टानी नीवों पर निर्मित,
घिस-घिस, पिस-पिस, हमको आखिर,
रेत-महल सा कब झरना था।
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परिचय : राघवेंद्र शुक्ल की कई रचनाएं प्रकाशित हैं.
सम्प्रति- नवभारत टाइम्स ऑनलाइन में पत्रकारिता (लखनऊ)
समकालीन परिदृश्य और अदभुत् अभिव्यक्ति….
बहुत खूब राघवेन्द्र…