
ख़ास कलम :: डॉ अफरोज आलम
ग़ज़ल
चंद टूटे हुए बिखरे हुए ख़्वाबों के सिवा
कुछ नहीं अब मेरे दामन में शरारों के सिवा
दिल सुलगता है मेरा, शोला बयानी से तेरी
बोल कुछ और मेरी जान हिसाबों के सिवा
साक़िया ख़ींच न तू हाथ करम से अपने
और बहुत कुछ है तेरे पास निगाहों के सिवा
तश्नगी का ये तक़ाज़ा है सरे बज़्मे तरब
खोल ऐ जाने ग़ज़ल लब को शराबों के सिवा
मस्ख़ कर डाले ख़िज़ा ने मेरे चेहरे के नक़ूश
अपने बस में तो हर एक शै है बहारों के सिवा
फासले जाह-ओ-हशम आरज़ी दुनिया का सुरुर
अपनी क़िस्मत में हर एक शै है गुलाबों के सिवा
दिल की फ़ेहरिस्त में शामिल हैं कुछ अहबाब मेरे
कौन ज़ख्मों पे नमक छिड़केगा यारों के सिवा
अजनबी देश में गो लाख मसाइल हैं, मगर
ज़िन्दगी हम ने ग़ुज़ारी है सहारों के सिवा
चंद नज़रों की इनायत भी बहुत है ‘आलम’
दिल कहां और ठहरता है नज़ारों के सिवा
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