खास कलम :: मोनिका सक्सेना

दोहे

दूषित जल से हो रहा, मानव जीवन त्रस्त।
हर प्राणी अब हो गया, रोग, व्याधि से ग्रस्त।।

नारे, भाषण से नहीं, होगा विकसित देश।
साथ कर्म भी चाहिए, बदलेगा परिवेश।।

जंगल धूँ-धूँ जल रहा, करता करुण पुकार।
अपने हाथों क्यों मनुज, फूँक रहा संसार।।

जल्दी जितनी ही करो, मिले नहीं परिणाम।
अवसर आने पर सभी, बन जाते हैं काम।।

मानव ने ख़ुद को किया, एक खोह में बंद।
फिर कैसे उसको मिले, जीवन में आनंद।।

मोबाइल ने है किया, मानवता को भ्रष्ट।
चैटिंग रूपी जाल में, समय हो रहा नष्ट।।

नई चेतना से भरा, हो नवीन यह वर्ष।
यही कामना ईश से, हो सबका उत्कर्ष।।

होली के त्योहार की, मची पड़ी है धूम।
नशा प्रेम का है चढ़ा, रहे ख़ुशी में झूम।।

अन्तर्मन में हो रही, गहरी चीख-पुकार।
नन्हें बालक बन गये, बाल श्रमिक लाचार।।

हिन्दी क्यों अब हो गई, दीन, दुखी, लाचार।
निज भाषा को अब नहीं, मिलता है वह प्यार।।

नौ दो ग्यारह हो गया, अमन, प्रीत का भाव।
स्वार्थ हेतु देते स्वजन, अकसर गहरा घाव।।

रिश्तों में जो हो गई, कभी रार-टकरार।
फिर मुश्किल होना वहाँ, पहले जैसा प्यार।।

बदल रहा इंसान है, हर-पल अपना रंग।
इसे देखकर हो रहा, गिरगिट भी अब दंग।।

पाखंडी मानव हुआ, धर्म बना व्यापार।
मानवता को छोड़कर, करता पापाचार।।

भेदभाव को छोड़कर, बन जा तू इंसान।
मानवता से सिर्फ़ है, मानव की पहचान।।

छल, निंदा को त्याग दो, करो न हृद पाषाण।
मानवता में है निहित, सबका ही कल्याण।।

मानवता के अर्थ को, दिया सदा सम्मान।
नानक, यीशू, राम तब, कहलाये भगवान।।

नहीं किताबी ज्ञान से, बदलेगा ये देश।
मानव से हों कर्म भी, बदले तब परिवेश।।

चिंता घुन की भाँति है, करे खोखला अंग।
परछाई की ही तरह, चलती चिंता संग।।

दैनिक जीवन में सभी, अपना लें यदि योग।
आयुर्वेदिक ज्ञान से, होगा देश निरोग।।

शब्दों में ही है छिपा, अपनेपन का भाव।
शब्द कभी औषधि बनें, और कभी दें घाव।।

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परिचय : मोनिका सक्सेना की कई कविताएं और दोह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं
सपंर्एक :: एफ-652, राजा जी पुरम, लखनऊ-226017
मो: 9935571440

 

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