आजाद परिन्दे
- निहाल सिंह
उड़ते रहते हैं आजाद
परिन्दे बेखोफ नीले
गगन में जहाँ ना कोई
सरहद है, ना कोई बंधन है
धरा के इंसान के ज्यूॅं
पाॅंवो में ना जात-पात
की बेड़ियाँ लगी है ना
कोई धन की अभिलाषा
नौकरी की पीड़ा है
ना पगार की चिंता
ना अधिपति की जी
हजुरी करनी पड़ती है
ना जोरु की फटकार
सुननी पड़ती है
चाहे धूॅंप हो या
कड़कड़ाती ठण्ड
वो नन्हें चुजो के वास्ते
प्रतिदिन निकल पड़ते है
दाना चुगने
दिवा को दाना- तुनका
चुगकर के साॅंझ को
लौट जाते हैं सभी
अपने -अपने घरोंदों में
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