ख़ास कलम :: शुभा मिश्रा

शुभा मिश्रा की दो कविताएं

 

 निर्वासन

कवियों लेखकों के साये में

पली- बढ़ी मैं

कल इनसे अलग होकर जीऊँ

सोचकर ही कॉंप जाती हूँ मैं

अज्ञेय और राकेश को

कीट्स और वर्ड्सवर्थ को

सब को छोड़ कर कल जाना है मुझे

वैसे एक- न – एक दिन तो सबको जाना है

पर वह जाना निर्वासन तो नहीं होता

जाने कौन देश मुझे भेजा जाए

जाने कौन- सा फूल वहाँ खिलता हो

वहाँ तो लोग लूसी को जानते नहीं

वे तो जाने कब से भूखे हैं

सुबह से रात तक खाते हैं/

यह उन्होंने ही कहा है

और चिथड़ों लिपटे हुए

जाने कब से उनके शरीर

जिसके तार- तार को सीना होगा मुझे

वर्षों के संघर्ष से अनजान

मेरे सपनों को क्या जाने

आधी उम्र तो गुजर गई/

आधी उम्र संघर्ष करूँ

तो पुनः शायद पा जाऊँ/

अपने तरुवर को

पर वह पाना कैसा पाना होगा

जब आखिरी साँस टूटने को/

बाकी हो

मैं जान गई

कल की विदा आखिरी विदा होगी

अब कभी वापसी नहीं होगी

अब तो मैं निर्वासित हो चली

 

बोनसाई स्त्री

तुम्हें हरा भी रहना है

फूल भी देना है

और फल भी

 

पर

तुम्हें बढ़ना नहीं है

मेरे समक्ष

 

बोनसाई!

या फिर स्त्री!

या सिर्फ स्त्री!

 

विस्तृत आकाश था मेरा

पंखो में थी

उड़ते रहने की जिद्द,

अथाह थी धरती मेरी

 

कदम थक जायें

पर ना थका

कभी उसका  कलेजा !

 

मुझे उखाड़ने में

बरसों लगा उन्हें

पर बना न सके

वे मुझे बोनसाई!

 

अभी भी जड़ें

मेरी जिंदा हैं

कलेजे में उसके

मेरे पंखों में वह

चुपके से भर जाता है

सातो रंग!

 

मैं खड़ी हूं

तुम्हारे समक्ष ,

दिन ब दिन ऊपर

उठ भी रही हूंँ

 

मेरी सशक्त

जड़ें तोड़ चुकी हैं

तुम्हारे दंभ और

अक्खड़पन के

विषाक्त  गमले को

 

मैं फूल भी दूंगी

मैं फल भी दूंगी

और बड़े होकर

तुम्हें छाया भी दूंगी !

 

मेरे मन ने

यह कभी सोचा भी नहीं

कि तुम्हें

बोनसाई होते हुए देखूं

पर आज..

 

जब मैं तुम्हें देखती हूं

तुम स्वयं में

एक बोनसाई ही नजर आते हो!

 

सोच से!

संस्कार से!

और

व्यवहार से भी!

 

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