परछाई
अंत तो प्रारंभ में है।
सहज कर्म यात्रा,
द्वंद्व मुक्त नहीं होती।
बीज से-
फल-फूल।
आसमान में छत नहीं,
पेड़ के लिए
सूरज होता है।
पृथ्वी अनंत काल से-
अपनी धुरी पर गा रही है
असंख्य परछाई के गीत
तमाम कोलाहल के बीच
रात हो या दिन।
मुक्ति
कलश
दरवाजे पर नहीं,
घर के अंदर रखता हूं,
दो चार तुलसी की पत्तियां
लबालब भरे पानी में।
मुक्ति-
द्वार से नहीं,
अंदर की जगह भरने से है,
रिक्त होने से नहीं।
हर पल की सांसें
हर पल की सांसें
मां से।
रोज़ की सुबह
मां से।
जिह्वा एवं कंठ में स्वाद
मां के हाथों निवाले से।
आंखों में
इन्द्रधनुष के रंग
पंछियों की उड़ान
और नदियों में पानी
सभी कुछ मां से।
हमारे संसार के
कण कण में,
हर पल में
और कुछ नहीं-
सिर्फ मां ही है।
नृत्य के रंग
अलग अलग रंग-
नृत्य के,
चेहरे के।
ये मुद्राएं नहीं,
ये भंगिमाएं नहीं
किसी नृत्यांगना के।
किस रंग पर
कौन सा नृत्य,
हम तय नहीं करते।
रंगरेजों के झोले में है
अनेक रंग।
पैर थिरकते हैं
रंगों के प्रभाव में।
इनकी मादकता हमारी नहीं।
रंग चढ़ते हैं मस्तिष्क में
पता नहीं चलता
रंग के नशे में
नाच रहें पैर
कब लहूलुहान हो गए।
नृत्य जारी है
कभी तपते पत्थरों पर
कभी जमी हुई झील पर।
रंगरेज की दुकान
कभी फीकी नहीं पड़ती।
भरे हैं उनके झोले
रंगों के खजाने से
जो पैरों को
हरी घास तक जाने नहीं देते
और उतरने नहीं देते स्व के चेहरे पर
हमारे अपने ही चेहरे के रंग।
……………………………….
परिचय : सुजीत वर्मा पटना में रहते हैं. कविता के क्षेत्र में इनकी अलग पहचान है. इनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं.