उसकी हँसी
उजली- सी उसकी हँसी
शब्दों की परिधि में
जब समा न सकी
नील गगन में
चाँद बन गयी
उसकी आँखों का खारापन
धरती न सोख सकी
विशाल सागर बन गया!
तभी तो
रात के सन्नाटे में
जब निकलता है चाँद
सागर की गोद में
सो जाती है धरती
सुबह
सघन अश्रु वन में
एक क्षीण स्मित रेखा
प्रातः शरद की बेला में
हरी कोपलों की डीभियों से
अनवरत निःसृत
ओस की बूंदों को जब देखा
धरा को छूते हुए
वायु में झूमते हुए
तुम्हारी आँचल-सी दुधिया धुंध
सहसा जग पड़ी
दिल के किसी कोने में
सहमी-सी तेरी याद
अरी,सचमुच!
कितनी मीठी सुबह थी