अनीता रशिम की कविताएं
चाह
अबकी आना
लाना संग
पलाश, गुलमोहर
थोड़ी मिट्टी
गाँव की,
नदी किनारे का
चिकना पत्थर
गीली रेत,
थोड़ी हवा
धूप भी
और लाना
भर चुटकी नमक
कहते हैं
नमक बिन
जिंदगी
अधूरी हो जाती है
शब्दातीत
कहीं दो चूड़ियाँ
कहीं आईने पर चिपकीं
छोटी-बड़ी, गोल-चौकोर
रंगीली बिंदियाँ
कहीं तकिए के नीचे
सुस्ताता चश्मे का कवर
कभी कहीं
मेज पर अखबार के
अधखुले पन्ने से
आधे झाँकते
समाचार,
अनपढ़े पृष्ठ किताबों के,
मेडलों का भरा-पूरा संसार
वर्दी औ शान की जुगलबंदियाँ
तहाए गए यत्न से
तिरंगे के ऊपर रखी
गई शानदार टोपियाँ,
कोने में धूल नहान की
चुगली करती लाठी
रूमाल का भीगा कोना
दिल में अपार सम्मान,
ये ही बची रह जाती हैं
निशानियांँ
खो गई
फौजी जिदंगी की।
अभी
सब अपने-अपने
कमरों में
लटके हुए शान से
अपने-अपने सलीबों पर
मोबाइल में बिजी हैं
मोबाइल, लैपटाॅप पर
घर के एकांत कोनों से चिपके
कितने एकाकी हैं सब
विकास की ऊँचाइयाँ
सहेजते हुए मुट्ठी में अपनी
एकाकी जीवन की सजा
भोग रहे वे
भीड़ के बीच
भीड़ से अलग-थलग
स्क्रीन की रौशनी से हैं
चकित, ठहरे हुए
चकाचौंध में
बाजार ने उन्हें सीखचों के
पीछे करके कैद
अपनों की हसीन मोहब्बत से
कर दिया है कितना दूर
कितना अधिक दूर…!
गीतोंवाली स्त्रियाँ
गीत गाती स्त्रियाँ
रचती थीं
भरा-पूरा संसार
अपने उत्सवी गीतों में
ढोलकी संग थाप लेतीं
उछालतीं चाबियों के गुच्छे से
उत्साह का चरम,
जब घर में मांगलिक बेला हो
केवल अपने परिजनों की ही
मंगल कामना उन गीतों में
नहीं करती थीं स्त्रियाँ
पूरे मुहल्ले और अनजाने परिचितों संग
जोड़ कर रिश्ता गाती रहीं
मंगलाचरण
ताउम्र गीत गाती स्त्रियाँ
खेतों, खलिहानों,
जाता, ढेकी में जगा देती रहीं
मंगल कामनाएँ
शाम ढलने तक
रोप-कोड़ कर अपने समय को
चुनते, छाँटते, पीसते हुए गाकर गीत
कितना सुख पाती रहीं।
दुखों की गठरी को
काँख तले दबाए
हर दबाव को झटकती रहीं
तनाव को फटकती रहीं
समझौतों के दाने बिलगातीं
वे गीत गातीं स्त्रियाँ
लेकिन
अब शर्म हावी है
नई सदी की महिलाओं पर
नहीं गातीं वे ढोलकी के बँधों में
बँधी अनगिन बधाइयाँ,
देतीं नहीं ननदी को सुरीले उलाहने,
नवजात लाल के लिए सोहर,
शादी में मीठी गालियाँ,
खेतों में फसलों के गीत,
एक सुख का साझाकरण
नहीं भाता उन्हें अब,
शुभाकांक्षाएँ देती हैं रेडिमेड कार्ड से
मैसेज से, सोशल मीडिया में जम कर
उछालती हुईं इमोजी
अभी भी जब झुर्रीदार हाथों में
आ जाती ढोलकी की रस्सी
हाथों में एक चम्मच या
चाभियों का वह गुम गया वृद्ध गुच्छा
जवां खिलखिलाहटों संग,
वे फिर से जवान हो जाती हैं
नहीं भूलीं अभी तलक
एक भी शब्द और
ढोलक की वो पुरानी मिठास
वे गीत गातीं बूढ़ी हो उठीं स्त्रियाँ !
प्रेम से ही बचेगी दुनिया
मुश्किल था बहुत
उससे दूर जाना
जाकर भी वापस न आना।
और यह मुश्किल
उसने
बहुत आसानी से निभाई
पर खो न सका
दुनिया की भीड़ में
उसने जलाए रखा
प्यार को अपने
जैसे जलाए रखते हम
बरसों-बरस
नफरत की बाती को।
कोई मुश्किल भी नहीं,
प्यार को जिलाए
जलाए रखना
ताउम्र,
ऊपरवाले ने
दुनिया तो प्रेम से ही
बसाई थी
हमने नफरत की वजहें
ढूंढ डालीं।
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परिचय : अनिता रशिम की कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है.
संपर्क – 1 सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, कुसई, डोरंडा, राँची, झारखण्ड – 834002
ईमेल – rashmianita25@gmail.com
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