खुशबू से | कुछ गीत लिखूँ | घर कमजोर |
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खुशबू तुम तो अंश वंश की अलगनी नहीं हो ! तुमसे रहती सदा–सुवासित हर मन की बातें हँसते–हँसते घर सह लेता निर्मम आघातें बेटी तुम तो सृजन–कोख हो सनसनी नहीं हो ! आग जलाकर मौसम जब भी लू–लपटें टेरे घर भर में हिम बँट जाता है हँसते ही तेरे हँसी सरित की निर्मल तुम तो अनमनी नहीं हो ! घर–आँगन का धरती का शृंगार तुम्हीं से है इस अग–जग का अम्बर का विस्तार तुम्हीं से है हरित पात की ऊष्मा तुम तो कनकनी नहीं हो ! | धूप खिली तो सोचा मैंने मैं भी गाऊँ कुछ गीत लिखूँ चन्दन अंजित पत्र मनोहर सन्दल सुरभित कुछ मीत लिखूँ। हाड़ कँपाकर थरथर थरथर ठंडी बुढि़या चली गई है झेल कुहासों की लपटें वह कैसी गुडि़या भली गई है मीत भीत से सिहरे मन की कुछ हार लिखूँ कुछ जीत लिखूँ कुछ तो संग रहे हैं अपने कुछ तो दूर सुदूर गए हैं, कुछ निकले सैर सपाटे पर कुछ होकर मजबूर गए हैं वर्तमान में जीकर मैं तो कुछ भावी कुछ कि अतीत लिखूँ कभी कभी खिड़की खोलूँ तो दिखती चोंच मिलाती चिड़िया गले गले मिल गाती जीभर पफरपफर पंख पफुलाती चिडि़या, गगन प्यार के गौरव गाकर मुँह की खाई कुछ प्रीत लिखूँ चटक हरापन औचक उतरा डाल डाल बदरंग हुए थे टटके ज्वार उमग कर आए, झुलसे झुलसे अंग हुए थे कलियों की भोली सूरत पर उतरा वसन्त कुछ रीत लिखूँ | पुरजोर हवा गुम्बद काँपे घर कमजोर ! यहाँ नींव में खालिश माटी, पोली रेत कमरे–कमरे नाच रहा है, नंगा प्रेत खोखली छतें क्षत दरवाजे झड़ते कोर ! तम के जंगल में सूरज भटका पथ भूल झंझा आते डगमग चली हवा प्रतिकूल किरण अकेली नभ में झेल रही झकझोर ! डरी रोशनी काँप रही है, तिमिर–समीप लुक–झुक करता तुलसी चौरा, जलता दीप दबी सिसकती कालिख नीचे आज अँजोर ! काँटे बनकर पग–पग बैठे, अपने मीत बियाबान में खोए सारे, मन के गीत हारा जीवन देखे कैसे किसकी ओर ! |
चुप रहना | सुर सितार के | किससे व्यथा कहूँ |
राजा जी नंगा है चुप रहना मत बोलो ! यह तो बेढ़ंगा है चुप रहना मत बोलो ! अंधे–गूंगे इसके सारे दरबारी हैं, रिश्तेदारों की पलटन बड़ी जुआरी है, कुनबा भिखमंगा है चुप रहना मत बोलो ! इनके कद के आगे सबके सब बौने हैंऋ जन का जीना–मरना सब खेल–खिलौने हैं, यह खुद ही दंगा है चुप रहना मत बोलो ! कई–कई किस्से हैं चर्चित रंगरेली है गाँवों–शहरों तक पफैली हुई हवेली है, यह बड़ा लपफंगा है चुप रहना मत बोलो ! कैसे–कैसे कितने इनके मनसूबे हैं जिस कश्ती पर बैठे उसको ले डूबे हैं, मानुष बहुरंगा है चुप रहना मत बोलो ! | तुमको देखा नजरें मेरी कश्मीर हुई ! चुपके से आ बैठ गई तुम हृदय शिकारे धूप गुनगुनी देह हुई डलझील पुकारे छूकर धीरे गुलमर्ग हवा शमशीर हुई ! श्रीनगर हुई प्राणगंध तो संगीत बजे मन पहलगाम छंद–छंद में मधु प्रीत सजे झेलम जैसी उमड़ी सुध्यिाँ तस्वीर हुई ! गिरती बर्फ कि जैसे बजते सुर सितार के पत्ते–पत्ते झूमे नाचे वन चिनार के दोजख लटकी जन्नत–जन्नत तकदीर हुई ! | मैं संजय हुआ विवश अंधे को कथा कहूँ ! जैसा है वैसा ही जस का तस यथा कहूँ ! सर्वनाश की ऐसी यह गाथा है जिसमें बेमतलब उलझे हैं जाने क्यों आपस में पिफर शुरू महाभारत किससे यह व्यथा कहूँ ! दाव चला शकुनि ने पासा है पलट दिया भीड़–भाड़ ने मिल–जुल सबको है सलट दिया कब से है चलती आ रही यही प्रथा कहूँ ! दुर्योधन नंगा हो भरी सभा नाच रहा मौन कृष्ण के सम्मुख गीता है बाँच रहा अभिमन्यु का वध् कुटिल तीरों से गँथा कहूँ ! |
बोल कबीरा | मुस्काया चाँद | मन भी मरता है |
बोल कबीरा ! संशय की गहरी गांठों को खोल कबीरा ! कौन घाट पर जागे–जागे तुमने रात बिताई बाट तुम्हारी जोह रहा है जिसकी कथा सुनाई ठेहे पर ईमान चढ़ा जब मुँह को ही सी डाला गहरी नींद सुला कर तुमको हँसती एक दुशाला, प्रश्नों के घेरे में हौले डोल कबीरा ! बोल कबीरा ! बार–बार जीतों का डंका पीट–पीट कर रोई कोस रही किस्मत जनता ने अपनी पूंजी खोई नैतिकता को ताक छोड़कर काली खींस निपोड़े गोरे–गोरे छोरे भागे छूटे यही निगोड़े कौन मुलुक का यह वासी है तोल कबीरा ! बोल कबीरा ! दोहे दुत्कारे तो चूमे साखी और रमैनी उलटबासियों को सुन–सुनकर बढ़ जाती बेचैनी अजब–गजब की करघे पर है कैसी ताना–भरनी सड़ी रुई को देख जुलाहा रोए अपनी करनी इन व्यापारों की तुम खोलो पोल कबीरा, बोल कबीरा ! | मेरी आहट से जाने क्यों अनजाने शरमाया चाँद ! देखा अपने सामने जब तो जाने क्या घबराया चाँद ! नद–नदियों की चहल–पहल पर यमुना–जल पर, ताजमहल पर, पर्वत–पर्वत, जंगल–जंगल सागर पर उतराया चाँद ! शीतल किरणें पत्थर–पत्थर नमी उकेरे पतझड़–पतझड़, धूप चाँदनी बनकर हौले गाया फिर अनगाया चादँ ! मैं देखूँ तो ऊपर–ऊपर जबकि झुका वह सम्मुख भूपर भर–भर लोचन छूकर मुझको अध्र–अधर मुस्काया चाँद ! ज्वार उठाता सागर–सागर लहर–लहर पर रस की गागर अक्षर–अक्षर हिम का बोकर सूरज पर गरमाया चाँद ! | मन भी मरता है ! प्रेम–प्रदूषण में संवेदन जड़ तक सड़ता है ! मिले नहीं जब कोई पाँती, जले नहीं कोई सँझबाती छूट चले सब संगी–साथी हाथ न कोई जब ध्रता है ! मन भी मरता है ! राह बदल जब सूरज चल दे हिमगिरि ही जब तलवा तल दे कोई न कभी निश्छल पल दे माथे पर तब बल पड़ता है ! मन भी मरता है ! दिखे नहीं जब एक परिन्दा, राम मिले भी जब शर्मिन्दा, साज तोड़ चल दे साजिन्दा, विरस सरस कोई करता है ! मन भी मरता है ! ताल–छन्द की भूख न लगती, लय की कोई प्यास न जगती, दिल में जब तक पीर न दगती जीवन तब तक तो जड़ता है! मन भी मरता है ! |
तुम्हारी याद आई | गीत | कहाँ किसी का नीड़ है |
फिर हवा ने पंख खोले फिर तुम्हारी याद आई ! फिर घटा के शंख बोले फिर तुम्हारी याद आई ! फिर उड़ी जुल्पफें घनेरी फिर घिरी बदरी अंध्ेरी, फिर विभा ने रंग घोले फिर तुम्हारी याद आई ! गिरी बूंदे गगन से जब उठी लपटें अगन से तब, फिर फिजां ने अंग तोले फिर तुम्हारी याद आई ! धूप में चलता रहा हूँ रूप में जलता रहा हूँ, फिर छलों में संग डोले फिर तुम्हारी याद आई ! शिखर पर खोता गया हूँ मैं मगर रोता गया हूँ, फिर धनी से रंक हो लें फिर तुम्हारी याद आई ! | आंगन–आंगन घोर उदासी बस्ती–बस्ती वीराने हैं अक्षर–अक्षर राग सहेजे गीतों के हम दीवाने हैं! धड़कन–धड़कन खामोशी है खामोशी है इनकी–उनकी बात पते की कहने वाले जाने कहते किनकी–किनकी। सांस–सांस में अंगारे हैं अंगारों के अपफसाने हैं! रात हुई तो रात कहेंगे गर दिन है तो दिन को दिन ही तुम आए तो अभिनन्दन है वरना गाएंगे तुम बिन ही दीपक–दीपक मर मिटने को पागल–पागल परवाने हैं! नगर–नगर में रमते हम तो मुफलिस हैं मजलूम नहीं हैं। जीवन जीने का समीकरण हमको तो मालूम नहीं है। पर्वत–पर्वत घाटी–घाटी माटी अपनी पहचाने हैं! अक्षर–अक्षर राग सहेजे गीतों के हम दीवाने हैं! | मदहोशी में सारी जगती, धरती भरती भीड़ है ! अरे, यहाँ तो सब बनजारे, कहाँ किसी का नीड़ है ! धेखा खातीं बरबस आँखें, काँटे चुभते पाँव में, चलती क्या ? छलती हैं साँसें, धूप चिलकती छाँव में! जमे हुए सब यहाँ–वहाँ, सरपत है, कोई चीड़ है ! अरे, यहाँ तो सब बनजारे, कहाँ किसी का नीड़ है ! अ–सुर कंठ, बे–ताल चरण, उड़ रही कला की धूल है, नागपफनी लो, ध्ता बताती, कौन कमल का फूल है ! स्वर बे–पर की जहाँ उड़ाते, मुड़–मुड़ जाती भीड़ है ! अरे, यहाँ तो सब बनजारे, कहाँ किसी का नीड़ है ! खुला गगन है, खुली मही है, आते सभी खुलाव पर, छूट गया, पर कौन वहाँ रे, उस मरघट की नाव पर ! गोते लगा–लगा कर डूबे, शून्य यहाँ गंभीर है ! अरे, यहाँ तो सब बनजारे, नहीं किसी के नीड़ है ! क्यों पिंजड़े में बन्द किया है, क्रन्दन करते कीर को, बांध् रखोगे किस बन्धन से, चंचल–प्राण–समीर को ! चीर कलेजा निकल पड़ी, यह तो जीवन की पीर है ! अरे, यहाँ तो हम सब बनजारे, कौन बनाता नीड़ है ! मुक्त उड़ाने भरने दो, सबको उन्मुक्त प्रकाश में, खोंच लगाना चाह रहे क्यों, तुम फहरे आकाश में, कड़ी–कड़ी की साँठ–गाँठ ही, बन जाती जंजीर है ! अरे, यहाँ तो सब बनजारे, कौन किसी का नीड़ है ! तिनके दाबे कुन्द चोंच में, डैने फड़का व्योम में, उड़े विहंगम चटक चाँदनी, से, मुड़कर, तम–तोम में, मेटे कौन करम का लेखा, हर का हृदय अधीर है ! अरे, यहाँ तो सब बनजारे, कहाँ किसी का नीड़ है ! थोथा मन उड़ता फिरता, दक्षिण हो पवन कि वाम हो, थककर पीत पात–सा, जाता टपक, छाँह हो, घाम हो, क्यों जाता है, भूल, ध्ूल से ढकता नहीं जमीर है ! सारे के सारे बनजारे, सबका अपना नीड़ है ! |
परिचय : वरिष्ठ गीतकार व कवि. अब तक गीत, कविता व समालोचना की एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित. देश भर की साहित्यिक संस्थाओं की ओर से सम्मानित.
पता : ‘शुभानंदी’, नीतीश्वर मार्ग, आमगोला, मुजफ्फरपुर
मो. 9973977511