1
सूरज तो उगता है लेकिन,
घर में नहीं उजाले हैं।
उन लोगों के नहीं फिरे दिन,
रहे लगाते जो नारे।
चूल्हा बुझा-बुझा है गुमसुम,
पेट जल रहे अंगारे।
जलते हुए सवालों पर क्यों,
लगे मुँहों पर ताले हैं।
पाँव दबाती है अब कुरसी,
गुंडों के धनवालों के।
नहीं पूछता हिसाब कोई,
छीने गये निवालों के।
दिखते हैं जो उजले चेहरे,
वे असली में काले हैं।
उनका डॉगी डनलप पर है,
रामू की खटिया टूटी।
उनको मिली जमानत जिनने,
चौराहे अस्मत लूटी।
अपच उन्हें रहती हलकू के,
सुबह-शाम के लाले हैं।
उनको खाकी सलाम ठोके,
जो हैं दर्ज फरारी में।
रोज शाम को खुलती बोतल,
दिन भर की रँगदारी में।
बँधा महीना जिनका यारो,
बने हुए रखवाले हैं।
2:
मुझ तक अगर पहुँचना चाहो,
राजमार्ग से मत आना।
यह पगडंडी खेतों की जो,
मेरे मन तक जाती है।
अरहर-मक्का-कपास के सँग,
हँस-हँस कर बतियाती है।
उस पर अपने पग रखकर तुम,
निर्मल मन से मुस्काना।
ज्वार-बाजरा-मूँग-उड़द भी,
खेतों में लहराते हैं।
गेहूँ – सरसों इक दूजे को,
जमकर धौल जमाते हैं।
हाँक मारकर चना बुलाये,
कहे भूनकर खा जाना।
सेमल भी टेसू के ऊपर,
खेतों रौब जमाता है।
होड़ सँवरने की लगती जब,
फागुन पास बुलाता है।
इक हुरियारा अपने भीतर,
पकड़ शहर से तुम लाना।
खेत मेड़ पर बबूल-डाली,
बया घोंसला बुनती है।
इंजीनीयर बिना डिग्री की,
जंगल तिनके चुनती है।
मुलाकात उससे करना हो,
ज्ञान उसे मत दिखलाना।
महुआ मूँछें ऐंठ-ऐंठ कर,
अपना रंग जमाता है।
वाइन-व्हिस्की-बीयर सबको,
ठेंगा यहाँ दिखाता है।
उससे करना हो याराना,
ठसक वहीं पर रख आना।
3
तुम क्या जानो अपने काँधे,
कितने पर्वत ढोये हम।
तुम क्या जानों हमने कब-कब,
धूनी कहाँ रमाई है।
कितने मरुथल पार किये हैं,
कितनी रेत फँकाई है।
अपने कंधे पर ही सर रख,
कब-कब कितना रोये हम।
तुम क्या जानो चूते छप्पर,
हमने कैसी रात बिताई।
घर के किस-किस कोने हमने,
अपनी खटिया सरकाई।
कितनी – कितनी रातें जागे,
कितनी रातें सोये हम।
राम नहीं हम हमने हनु बिन,
अपने काज सँवारे हैं।
और राह में दुख के सागर,
अपने बल पर पारे हैं।
मिट्टी जैसे गल जाये जो,
नहीं कभी थे लोये हम।
4
मेरे हक में यह कोरट कब
बोलेगी ओ बाबूजी?
खेत बिके दो दौड़ कचहरी,
नहीं फैसला आया है।
मुनसिफ और वकीलों ने य्हाँ,
चूना खूब लगाया है।
न्याय की देवी पट्टी बाँधे,
तोलेगी ओ बाबूजी?
चार साल से रामदुलारी,
मैके में ही बैठ गई।
एल. ओ. सी. पर चाइना-सी
वह भी मुझसे ऐंठ गई।
क्या फिर दिल वह पहले जैसा,
खोलेगी ओ बाबूजी?
एक लाड़ला बेटा है पर,
उसने भी मुँह फेरा है।
लगता जैसे बिन बिजली के,
घर में बहुत अँधेरा है।
बहू जानकी प्रेम दुबारा,
घोलेगी ओ बाबूजी?
समय बुरा तो समीकरण सब,
मिलकर हमको ठगते हैं।
कर्णभुजा-समकोण-त्रिभुज सब,
उलझे – उलझे लगते हैं।
घर की पाइथागोरस प्रमेय ,
हल हो लेगी बाबूजी?
5
थाप ढोलकी की अब गुम है,
डी. जे. के कोलाहल में।
दादीजी के गीत – बधावे,
झेल रहे हैं निर्वासन।
मुम्बइया धुन पर अब बहनें,
मलतीं दूल्हे को उबटन।
साँस उखड़ती संस्कारों की,
इस बाजारू दलदल में।
चंग टँगी है दीवारों पर,
धूल फाँकता है बाजा।
अब दिल्ली की तर्ज यहाँ पर,
डी. जे. घोषित है राजा।
कान मरोड़े लोकगीत के,
त्योहारों की हलचल में।
फीके सारे रंग हुए हैं,
रिश्ते की तस्वीरों के।
बाज़ारों में काँच सजे हैं,
मोल नहीं अब हीरों के।
प्रेम हुआ सौदे की मंडी,
भाव बदलते पल-
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परिचय : गजल, दोहा और बाल साहित्य की तीन पुस्तकें प्रकाशित.
संपर्क : डी-48, गली नम्बर-3, दयालपुर ,करावलनगर रोड, दिल्ली–110-094