काँपता है गाँव
गाँव में कुछ लोग
लौटे हैं शहर से!
हैं वही परिचित
वही अपने-सगे हैं
पाँव छूकर फिर
गले सबके लगे हैं
रोज के निर्देश से
कुछ बेखबर से!
कौन जाने, कौन क्या-
लाया कहाँ से
सोचने का हर सिरा
गुज़रा यहाँ से
काँपता है गाँव,
सहसा-एक डर से।
जैव-आयुध का निशाना
हर तरफ हैं
सिर्फ हत्यारी हवाएँ
और मजबूरी है अपनी
साँस लेना!
भोर से लेकर
अंधेरी रात तक बस
चीखना-रोना
सहमना-हाँफना है
जीन में है
आज तक परमाणु-हमला
यह अपाहिज देह-
अपनी जन्मना है
जैव-आयुध का
निशाना हैं, पता है-
क्या करें? जब भागना हो-
फाँस लेना!
आँख-ग्लूकोमा
जमी पुतली, सिकुड़ते
आदमी के स्वप्न
ठिगने और धुंधले
रोज के बढ़ते
गले से फेफड़े तक
क्रूर, शातिर सोच के
अदृश्य हमले
खून का बस
एक कतरा साथ कफ के
एक डर सा बो गया है
खाँस लेना!
ब्लैकआउट
शहर में ब्लैकआउट है!
बहुत नजदीक चीखें हैं
बगल में कान के तड़-तड़
खड़ी परछाईंयों का सच
अचानक टाॅर्च चेहरे पर
कहाँ हो कौन? डाउट है!
कई डीपो-कई स्टेशन
शरह के माॅल-कैफे-जिम
जहाँ जितना कड़ा पहला
वहाँ उतना बड़ा जोखिम
बड़ा खुदगर्ज़ स्काउट है !
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परिचय : कवि का एक नवगीत-संग्रह प्रकाशित. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन
संपर्क : मालवीयनगर, मकरीखोह, मिरजापुर, उ०प्र०-231001
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