विशिष्ट गीतकार : संजय पंकज

रात चाँदनी चुपके आई
खिड़की से सिरहाने में!
सुबह सुबह तक रही सुबकती
लीन रही दुलराने में!

पता नहीं क्यों लापता रही
कितने दिन बेगानों-सी
इधर रही पर मेरी हालत
कुछ पागल दीवानों-सी

आते आते देर हुई कुछ
कुछकि और बतलाने में!

जगते जगते सोते रहना
मजा नहीं बतला सकता
कहने पर भी कुछ भावों को
कभी नहीं जतला सकता

प्यार सदा ही रहा अनाड़ी
जी भर जी बहलाने में!

प्रीत डगर पर थकन नहीं है
युगों युगों से चलकर भी
मौन मुखर मन रहे अधूरा
मन से मन भर मिलकर भी

लग जाती है आग तुरत पर
होती देर बुझाने में!

2
तुम आ जाओ
मुझ पर भारी यह घड़ी घड़ी
तुम आ जाओ !
छोड़ छाँव की नीली छतरी
तुम आ जाओ !

यहाँ हवा में नाखून उगे
लहू लहू सब घायल घायल
घुँघड़ू घुँघड़ू बिखर गए हैं
टूट गिरी किसलय की पायल

पलकों पर जलती लड़ी लड़ी
तुम आ जाओ !

डाल डाल तरुवर के पीड़ित
पात पात हैं सुलगे सुलगे
सूरज भी मुरझा झुलसा है
कदम कदम हैं सब दगे दगे

लड़ने पर आतुर कड़ी कड़ी
तुम आ जाओ !

जहाँ कहीं हो,जैसी भी हो
आ जाओ तुम दौड़ी दौड़ी
मंदिर मस्जिद हिंदू मुस्लिम
अपलक लोचन हरकीपौड़ी

पावनता की अमृत सुरसरी
तुम आ जाओ !

3
खुशबू खुशबू

यह कैसी खुशबू खुशबू है!
धड़कन साँसें और नजरिया
जिसमें क्या डूबू डूबू है!

बिना लगाए शीतलता है
बाहर भीतर चंदन चंदन
डूब गया है जिसमें मेरा
पूरा का पूरा संवेदन

चलती है दिन रात लिपट कर
रोम रोम सूबू सूबू है!
आखिर यह कैसी खुशबू है!

चाहे मौसम जैसा भी हो
हर ओर महज हरियाली है
स्मृतियों में पीलापन छककर
चेहरे पर फिर भी लाली है

होंठों पर मुस्कान मनोहर
निखरी क्या खूबू खूबू है!
आखिर यह कैसी खुशबू है!

इकधुन सुर इकतारा बजता
स्वर लय भी इक संधानी है
छंद गंध वन्दन जयकारे
सबके सब ही बेमानी है

चुभे हृदय में शूल न कैसे
अंतर्मन चूभू चूभू है!
कैसी खुशबू खुशबू है!

छोड़ हताशा फुदक रही है
पोर पोर में खंजन-आशा
खुले हृदय से बोल रहा हूँ
निर्मल निश्छल पावन भाषा

दुनियादारी से मन मेरा
जाने क्यों ऊबू ऊबू है!
आखिर यह कैसी खुशबू है!

4
तुम्हारी याद आई

फिर हवा ने पंख खोले
फिर तुम्हारी याद आई!
फिर घटा के शंख बोले
फिर तुम्हारी याद आई!

फिर उड़ी जुल्फें घनेरी
फिर घिरी बदरी अंधेरी
फिर विभा ने रंग घोले
फिर तुम्हारी याद आई!

गिरी बूँदें गगन से जब
उठी लपटें अगन से तब
फिर फिजाँ ने अंग तोले
फिर तुम्हारी याद आई!

धूप में चलता रहा हूँ
रूप में जलता रहा हूँ
फिर छलों में संग डोले
फिर तुम्हारी याद आई!

शिखर पर खोता गया हूँ
मैं मगर रोता गया हूँ
फिर धनी से रंक हो लें
फिर तुम्हारी याद आई!

One thought on “विशिष्ट गीतकार : संजय पंकज

  1. आपके गीत पढ़ने का अवसर मिला बहुत खूबसूरत हैं, जादू है आपके शब्दों में।

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