विशिष्ट गीतकार :: गरिमा सक्सेना
गरिमा सक्सेना के नारी विमर्श के पांच गीत
1
रिश्ता जीवन का पुनीत
आधी आबादी
ममता, त्याग, दुलार, मीत
आधी आबादी
तुलसी, आँगन,
घर की शोभा,
बरतन-बासन
पहली शिक्षा
जीवन का पहला
अनुशासन
चैता, लोरी, मिलन-गीत
आधी आबादी
आधी आबादी
जिससे
घर की खुशहाली
आधी आबादी
जिसके हिस्से
हर गाली
विज्ञापन से सजी-भीत
आधी आबादी
अधिकारों पर
कील सृदश
चुभती हैं आँखें
अँधियारे में
सड़कों पर
बिखरी हैं पाँखें
सिया, अहिल्या-सा अतीत
आधी आबादी
एक गर्भ में
नये गर्भ का
मरता हक़ है
दिन का
अँधियारा है,
रातों की रौनक है
एक दाँव है, हार-जीत
आधी आबादी
2
कब उजियारा आयेगा
कई उलझनें खोंप रखी हैं
जूड़े में पिन से
कब उजियारा आयेगा
वह पूछ रही दिन से
तेज़ आँच पर रोज़
उफनते भाव पतीले से
रस्सी पर अरमान पड़े हैं
गीले- सीले से
जली रोटियाँ भारी पड़तीं
जलते जख़्मों पर
घर तो रखा सँजोकर
लेकिन मन बिखरा भीतर
काजल, बिंदी, लाली, पल्लू
घाव छिपाते हैं
अभिनय करते होंठ बिना
मतलब मुस्काते हैं
कई झूठ बोले जाते हैं
सखी पड़ोसिन से
छुट्टी या रविवार नहीं
आते कैलेंडर में
दिखा नहीं सकती थकान
लेकिन अपने स्वर में
देख विवशता, बरतन भी
आवाजें करते हैं
परदे झट आगे आ जाते
वो भी डरते हैं
डाँट-डपट से उम्मीदें हर
शाम बिखरती हैं
दीवारें भी बतियाती हैं
चुगली करती हैं
रात हमेशा तुलना करती
रही डस्टबिन से
३
परदे
ग़ौर करो तो
सुन पाओगे
परदे भी क्या कुछ कहते हैं
खिड़की से ये
टुक-टुक देखें
नभ में उड़तीं कई पतंगें
अक्सर
नीदों में आ जाते
सपने
इनको रंग-बिरंगे
लेकिन
इनको नहीं इजाजत
खुली हवा में
लहराने की
बस छल्लों से
बँधे-बँधे ही
ये परदे रोया करते हैं
घर के भीतर
की सब बातें
राज़ बनाकर रखते परदे
धूप, हवा,
बारिश की बूँदे
बुरी नज़र भी सहते परदे
सन्नाटों में
मकड़ी आकर
जाले यादों के बुन जाती
अवसादों की
धूल हृदय पर
फिर भी ये हँसते रहते हैं
इन पर बने
डिज़ाइन सुंदर
चमकीले कुछ फूल सुनहरे
परदे ढाँपें
दर-दीवारें
और छिपाते दागी चेहरे
इन परदों ने
लाँघी है कब
मर्यादा की लक्ष्मण रेखा
आँख देखतीं,
कान सुन रहे
अधरों पर ताले रखते हैं
4
मुनिया
मुनिया अक्सर अपने में ही
रहती है कुछ खोई-खोई
जन्म लिया तो दुख छाया था
बोझ सदृश लगता था होना
विदा करो जल्दी अब इसको
वर्षों से है यह ही रोना
कब की खूंटे से बँध जाती
मिलता नहीं मेल है कोई
पढ़-लिख कर ज्यादा क्या करना
दादी ने शिक्षा को रोका
बाहर आया-जाया मत कर
माँ ने बार-बार है टोका
भैया को आजादी मिलती
सगी नहीं क्या? कह-कह रोई
करछी, कलछुल, चौका-बरतन
इन सबसे ही नाता जोड़ा
मुनिया ने अपने सपनों को
बिस्तर से उठते ही छोड़ा
सोच रही है सुता-भाग्य में
क्यों लिक्खी है सिर्फ रसोई
5
डर का लिबास
आज सुबह से
गुड़िया का मुखड़ा
उदास है
गुड़िया, गुड़िया
को सीने से
लिपटायी है
भींच रही
मुठ्ठी अंदर से
घबरायी है
स्मृतियों ने
पहन लिया
डर का लिबास है
छुवन-छुवन
का अंतर
उसको
समझ आ रहा
बार-बार
उसका घर
आना
नहीं भा रहा
डर से दूर
कहाँ जाए
डर आसपास है
सोच रही है
मम्मी को
सबकुछ
बतला दूँ
एक चोट
भीतर है
उसको भी
दिखला दूँ
पर क्या बोले
इस घर में वह
बड़ा खास है
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परिचय : गरिमा सक्सेना हिंदी कविता और गीत में अपना स्थान रखती हैं. इनकी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पुरस्कार सहित अन्य पुरस्कार मिल चुके हैं.्र