विशिष्ट गीतकार :: रामकिशोर दाहिया

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रामकिशोर दाहिया के सात गीत 

बन गए बम

नील नभ है
टोकरी भर
एक सूपा से धरा कम
नापना हो
नाप लें सच
है यही जो बोलते हम ।

तेज हैं
झोंके हवा के
सिर उठाकर दीप जलता
जोश काजर
पारता है
शीश पर
आकाश चौखट
बंदिशों का एक घेरा
ऱोज ठोकर
मारता है ।

घाव पर भी
घाव खाकर
दे गया दिन साध कर दम ।

नींद का
उसनींद खेमा
रीढ़ सीधी कर गया है
पांँव तक
माटी नहीं है ।
वर्जनाएँ
तोड़ सारी
व्यंजना की सांस खींचें
डोर है
पाटी नहीं है ।

राख में
चुप आग बैठी
नयन हों कैसे भला नम ।

हाथ में
अनुभूतियों के
कैमरे हैं बिम्ब भोगे
कैद करतीं
दृश्य सारे ।
बन्द मुँह के
फिर घड़े में
डूबता दिन कसमसा कर
उगते हैं
चांँद तारे ।

आत्मरक्षा
को फटेंगे
दर्द सारे बन गए बम ।।

चलो खंगालें 

भाई को भी
भाई समझें
चारा ठीक नहीं
ऊंँच-नीच
कुत्सा का
चलना
आरा ठीक नहीं ।

दशकों की
आजादी को सब
करते गौर रहे
आरक्षण था
नाम जाति के
खाते और रहे

देख आइना
ऊपर चढ़ता
पारा ठीक नहीं ।

जाति वर्ण की
संख्या देखें
किनमें लोग उठे
दफ्तर-दफ्तर
नजरें डालें
कितने कौन कुटे

जीवन कहीं
मौत को देती
धारा ठीक नहीं ।

जातिवाद के
फुग्गे पिचकें
ज्यादा तने हुए
छानें बिना
पसीना रबड़ी
दादा बने हुए

गाढ़ कमाई
वंदन पर
दुधारा ठीक नहीं ।

बहुजन रोधी
जंग छेड़ दी
घर-घर आग लगी
बीच हमारे
मानवता भी
सुबके देख ठगी

चाह गहन
वर्चस्व नीर का
खारा ठीक नहीं ।

चलो खँगालें
दफ्तर-दफ्तर
सर्वे कर डालें
बैठे उच्च
पदों पर देखें
काहे शंका पालें

गैर बराबर
शिक्षा, वैभव
सारा ठीक नहीं ।

कोई शेर नहीं है 

तालमेल बनाने
अपना
सबके संग हम
रह लेते हैं !
इसकी उसकी
चाहे जिसकी
सुनकर,
अपनी कह लेते हैं ।

अपने मतलब
सधने वाली
तिकड़मबाजी
जो करते हैं ।
वही अँधेरे में
खुद बिककर
सुबह उजाला
सिर धरते हैं ।

ऐसे लोग हमारे
लेकिन !
नहीं कभी
हम सह देते हैं ।

रंगे सियारों के
चोले में अन्दर
कोई शेर नहीं है ।
बेईमानों की
लफ्फाजी है
ईमानों का घेर नहीं है ।

ठन्डे वर्फ
सरीखे गलकर
लोहे को
भी दह लेते हैं ।

चोर-चोर
मौसेरे भाई
बिना पांँव के
धरती नापें ।
सांँच कभी न
झुण्ड बनाए
विपदा चाहे
जितनी ब्यापें ।

जुर्मों का
प्रतिकार न करते
अपराधी हैं
सह लेते हैं।

लैपटॉप की दुनिया

दो के दूने चार
नहीं होने के भाई
लिये पुराना
व्यर्थ पहाड़ा
रट्टा मारा करता है ।

पेनड्राइव की
धरती पर हम
लैपटॉप की
दुनिया देखे
मोबाइल को
पीछे छोड़े
कम्प्यूटर पर
रखते लेखे

सबके चित की
चोरी करता
काश्मीर भी
आफत झेले
आँसे पीर
हमारी फिर भी
जीता-हारा करता है ।

डिजिटल भारत
लगे बनाने
गाँव वहीं पर
खड़े हुए हैं
लाचारी का
खुला निमंत्रण
देकर आगे बढ़े हुए हैं

थ्री फोर जी की
दुनिया में
रोके रुका समय
कब किससे
पुरखों वाले
आदिम युग के
चित्र संवारा करता है ।

भुगतमान के भोग

तालाबंदी देख समय की
सहमे-सहमे लोग
चीन, ब्रिटिन, जापान घूमकर
लौट रहा संयोग ।

धारा एक चौवालिस खुद भी
मांँग रही कुछ ढील
चाह किसी की बन्द घरों में
चुभती जैसे कील

साँच दफन के बाद डरे हैं
लगने पर अभियोग ।

चांँदी वाली रोटी कुछ को
सोने वाला भात
बूँदी वाले मोदक जैसे
बंँधी-बंँधाई रात

सावन के अंधे को हरियर
आंँख दिखाये रोग ।

नीम-हकीमों के सुर बदले
अस्पताल की लूट
कंठी, माले, चंदन देते
बिना लगामी छूट

रोते हुए मिलन को लेकर
चलने लगा वियोग ।

उल्टे-सीधे पाठ पढ़े तो
समझ रहे चालाकी
बाबा की औरत को कहना
ठीक नहीं है काकी

फूट एक हो, नहीं भोगती,
भुगतमान के भोग ।

ढोंग-धतूरे

ऊंँच-नीच के भेद-भाव लिख
परम्पराओं में फिर ढोया
समता, न्याय, दया, करुणा का
बन्धु विरोधी मानव गोया ।

सोच कुलीनी ऊपर बैठी
नीचे तीनों वर्ण जमाया
आदि यथावत रखने वाला
जोड़ धर्म से तंत्र बनाया

गैर बराबर नीति जगत हो
शिक्षा में खुद जागा-सोया ।

कपोल कल्पना देव-देवियाँ
सबके जन्म कुदरती उलटे
आनन, बाँहीं, जाँघ, पाँव से
गर्भ धरा नर बालक सुलटे

घृणित जहाँ था आज वहीं है
डुबकी मार नहाया – धोया ।

पांँव प्रगति के तोड़ें चलकर
भेद-भाव के बुर्ज सनातन
आपस में सद्भाव बढ़ाकर
सबकी सोच करें अधुनातन

ढोंग – धतूरे हित में होते
तर्कों में सब जाता- बोया ।

पाँव जले छाँव के

हम ठहरे गांँव के ।
लाल हुए धूप में
पाँव जले छाँव के ।
हम ठहरे गाँव के ।।

हींसे में भूख-प्यास
लिये हुए मरी आस
भटक रहे जन्म से
न कोई आसपास ।

नदी रही और की
लट्ठ हुए नाव के ।
हम ठहरे गाँव के ।।

पानी बिन कूप हुए
दुविधा के भूप हुए
छाँट रही गृहणी भी
इतना विद्रूप हुए ।

टिके हुए आश में
हाथ लगे दाँव के ।
हम ठहरे गाँव के ।।

याचना के द्वार थे
सामने त्यौहार थे
जहांँ भी उम्मीद थी
लोग तार-तार थे ।

हार नहीं मानें हम
आदमी तनाव के ।
हम ठहरे गाँव के ।

……………………………………………….

परिचय : रामकिशोर दाहिया की दो नवगीत कृतियाँ प्रकाशित हैं- [1] ‘अल्पना अंगार पर’ नवगीत संग्रह 2008, उद्भावना दिल्ली। [2] ‘अल्लाखोह मची’ नवगीत संग्रह 2014, उद्भावना दिल्ली। सम्प्रति : मध्य प्रदेश शासन के स्कूल शिक्षा विभाग कटनी में प्रधानाध्यपक के पद पर सेवारत हैं।
पत्र व्यवहार : गौर मार्ग, दुर्गा चौक, पोस्ट- जुहला, खिरहनी, कटनी- 483501 (मध्य प्रदेश)
e-mail : dahiyaramkishore@gmail.com चलभाष : +91 97525 39896

 

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3 thoughts on “विशिष्ट गीतकार :: रामकिशोर दाहिया

  1. सम्पादकीय सामयिक,महत्वपूर्ण और चिन्ताशीलता से संयुत है।श्लाघनीय।
    विशिष्ट गीतकारों की रचनाएँ संवेदना व विचार के साथ उपस्थित हैं।
    हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ!

  2. आ राम किशोर दाहिया जी, नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे नवगीतों में अपने ताजे और तल्ख तेवर के लिए जाने जाते हैं। उनके पांचों उनकी लेखनी के इसी मिजाज को दर्शा रहे हैं। बहुत-बहुत बधाई पत्रिका के सम्पादक मंडल एवं दाहिया जी को।

  3. सभी नवगीत लाजवाब हैं , आदरणीय ।

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