विशिष्ट गीतकार :: यश मालवीय

यश मालवीय के पांच गीत
शरद का एक गीत

हंसी की चिठ्ठी ना आई,आई है पूनम

साँसों घुला शरद शहदीला
बर्फ़ानी मौसम
गर्म पुलोवर के भीतर भी
कितने भीगे हम

मन को अक्सर छू जाती हैं
कुछ यादें ऊनी
बाहर नहीं समझ आती हैं
चोटें अंदरूनी

ख़ुशबू छुई हवा का
कितना क़ातर है सरगम
हंसी की चिठ्ठी ना आई,आई है पूनम

ताल-कटोरी तिरा चंद्रमा
तारों की झिलमिल
सहला रही बहुत धीरे से
रात हुई स्नेहिल

गोद पहाड़ी की फूलों से
भरी-भरी हरदम
नहीं अघाएँ, इनको जितना देखें उतना कम

ठंडी-ठंडी हवा,
होंठ पर गीत गुनगुने से
सुनो ग़ौर से सुन पड़ते हैं
छंद अनसुने से

आँखों में मोती,
शब भर है पत्तों पर शबनम
स्वयं चाँदनी रखे चोट पर मलयागिरि मरहम

मन के मौसम का एक गीत

गिरती हुई बर्फ़ का मौसम…

बैठा रहता, कान लगाए
पर्वत,घाटी गाती
तुम हो साथ हर घड़ी फिर भी
याद तुम्हारी आती

गिरती हुई बर्फ़ का मौसम
बहुत गुनगुना होता
सुना सुना सा लगता,
कुछ भी नहीं अनसुना होता

ख़ुद को हवा रूह तक
ख़ुशबू में डूबा सा पाती

यहां वहां से रस्ते आकर
एक जगह पर मिलते
आँखें ही ज़बान हो जातीं
कब होठों को सिलते?

सौंपा करता समय सुबह से
खिली धूप की थाती

चल देते बीहड़ रस्तों पर
ख़ुशियों के चरवाहे
गीत बहुत से सच हो जाते,
हैं चाहे अनचाहे

भाप केतली की, चेहरे को
धीरे से छू जाती ।

तस्वीर भी सच की सनद

तुम्हें देखा तो लगा
तस्वीर भी सच की सनद है
कहीं दोहा बिहारी का,
कहीं गुरबानी सबद है

बोलते हैं होंठ,
आंखें भी बहुत कुछ बोलती हैं
धुंध में डूबी दिशाएं
खिड़कियों को खोलती हैं

नैन में है नदी कोई
बैन में भीना शहद है

एक मिसरे में लिखी है
उम्र की सारी कहानी
दिन गुलाबों की तरह हैं
जागती है रातरानी

मीर की ग़ज़लें कहीं हैं,
कहीं मीरा का दरद है

छंद पढ़ते हैं पखेरू
श्लोक पढ़ती हैं हवाएं
घाट पर आकार लेती हैं
बहुत उजली प्रथाएं

रूप की रोशनी रचता,
ये हमारा ही अहद है।

बेचेहरा समय

कुछ न सुनता
हो गया बहरा समय
देखिए,है
बहुत बेचेहरा समय

इक वही चादर बिछाता
ओढ़ता
बस नदी की धार उथली
मोड़ता

किसलिए कहिए
कि है गहरा समय

एक परछाईं सरीखा
डोलता
बहुत चुप चुप,बात करता,
बोलता

स्वयं पर ही दे रहा
पहरा समय

हर लहर में
छल लहरता दीखता
झूठ भी सच की तरह ही
चीखता

ताल में सूखा
कि है लहरा समय।

आज सुबह का पहर, हमारा शहर और ये गीत

अब किसे है फ़िक्र संगम की

व्यक्ति पूजा चल रही है
हम हुए अंधे पुजारी
क्या करे गंगा हमारी
क्या करे जमुना हमारी

कुम्भनगरी से अचानक
मोह सत्ता का जगा है
दूर तक चिड़िया न बोले
क्या अजब मेला लगा है

तुम्हीं माता,पिता तुम ही
तुम सनातन देहधारी

बन्द हैं स्कूल
दफ़्तर सा खुला है सियासत का
तोड़ता है दम सड़क पर
जश्न साझी विरासत का

अब किसे है फ़िक्र संगम की,
फिरे लज्जा उघारी

चाय की दूकान पर
मृत हो गए संवाद सारे
सब लगे हैं आरती में
कौन अब किसको पुकारे

कुछ नहीं है पास अपने,
हो गए हैं हम भिखारी

सिर्फ़ झाड़ू लग रही है
हम बुहारे जा रहे हैं
जिधर देखो,मूल्य
असमय ही सिधारे जा रहे हैं

लग रहा है वक्त ही को
हो गया है अधकपारी

बांस बल्ली आसमां तक
सल्तनत का ही नशा है
शहर पूरा लग रहा ज्यों
एक मुट्ठी में कसा है

हाथ जोड़ो आ रही है
महाराजा की सवारी।
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परिचय : यश मालवीय
जन्म : 18 जुलाई, 1962
शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक
साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन।
वरिष्ठ नवगीत कवि। कवि सम्मेलनों में भागीदारी के अतिरिक्त दूरदर्शन, आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से रचनाओं का प्रसारण, पत्र-पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन।

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