विशिष्ट गीतकार :: अवनीश त्रिपाठी

अवनीश त्रिपाठी के आठ गीत

 

कब तक अपने दोष मढोगे

कब तक अपने दोष मढोगे

दूजे के ऊपर

प्रायश्चित का जिम्मा अपने

भी सर लो बाबू!

 

सदा मीडिया में छाए हो

लाइव आते हो

चक्रव्यूह उठने-गिरने का

रोज बनाते हो

 

सच कहने की कभी हिमाकत

भी कर लो बाबू!

 

बेढब है मुस्कान तुम्हारी

यह कब समझोगे

मन की गाँठें उलझ गईं हैं

कब पहचानोगे

 

छल के ऊपर जरा शराफत

भी धर लो बाबू!

 

अवसर समझ रहे हो जिसको

सिर पर चढ़ने का

उपक्रम है वह केवल अपने

मन को छलने का

 

जीवन में कुछ रंग नेह के

भी भर लो बाबू!

 

बातों की रेत

मुँह की मुट्ठी से फिसली है

फिर बातों की रेत।

 

जिह्वा के सब प्रश्न बाँचती

स्वर का हर अध्याय,

उठा-पटक का बदल दिया है

उसने हर पर्याय

 

केवल कहने को साँसों का

समझ गई संकेत।

 

मौलिक संवादों की सारी

सूखी पड़ी जमीन,

दाँव खेलतीं भाषाएँ अब

हैं संवेदनहीन,

 

जोत रही हैं उल्टे हल से

निरे समय का खेत।

 

अक्षर की धड़कनें तेज हैं

नीरस हर सन्दर्भ

नागफनी सी मर्यादा का

उजड़ गया है गर्भ

 

चढ़ा हुआ है उसके ऊपर

अब विभ्रम का प्रेत।

 

नवगीत

शब्द सभी कृष्ण हुए

अर्थ हुए पार्थ।

 

टूटी इच्छाओं पर

साँसों की थाप,

तिरछे संवेदन पर

करुणा की चाप,

 

जाग रहे बुद्ध मगर

सोया सिद्धार्थ।

 

आस्था के बीच खड़े

निर्झर संवाद,

संयम के साथ बहा

मोह का निनाद,

 

तिर आये प्रश्नों के

कितने अन्वार्थ।

 

साँसों के कुम्भज का

मिथ्या प्रारूप,

स्वर व्यंजन फटक रहे

पाप-पुण्य सूप,

 

कपिलवस्तु गौण रहा

लुम्बिनी यथार्थ।

 

धूप लगाकर नेह-महावर

धूप लगाकर नेह-महावर

उतर गई सागर के जल में,

फगुनाई फिर याद तुम्हारी

आकर बैठ गई सिरहाने।

 

फागुन-रंग,बसन्त-गुलाबी

पनघट,नदी,चाँदनी रातें,

भीग रहा मेरा मन हर पल

चाह रहा करना कुछ बातें।

 

पोर-पोर मथने को आतुर

हरसिंगार की खुशबू वाली

हौले से आकर पुरवाई

फिर से लगी मुझे बहकाने।

 

उठी गुदगुदी मन में तन में

मोरपंखिया नई छुवन से,

परकोटे की आड़ लिए जो

नेह-देह की गझिन तपन से,

 

सूरज की अनब्याही बेटी

आभा के झूले पर चढ़कर

कुमकुम रोली को मुट्ठी में

आकर फिर से लगी उठाने।

 

अधरों पर पलाश की रंगत

पिए वारुणी दशों दिशाएँ,

आगन्तुक वासन्ती ऋतु का

आओ अवगुण्ठन सरकाएँ।

 

किसिम-किसिम की मंजरियों पर

कनखी-कनखी दिन बीते हैं,

साँसें फिर से खोज रही हैं

बौराने के ढेर बहाने।

 

चादर कौन हटाये

सोई हुई बात के मुख से

चादर कौन हटाये?

दहशत में स्वर-वर्ण खड़े हैं

कैसे-कौन जगाये?

 

घटनाओं के चक्रव्यूह की

छेनी और हथौड़ी,

लेकर बैठी उहापोह में

पीड़ा की निमकौड़ी,

 

कानों में ठेंठी है सबके

किसको व्यथा सुनाये?

 

कई दिनों से जाग रही है

भूख अभागन घर में,

सर्पदंश का विष फैला है

रीति-नीति के स्वर में,

 

आँतों की ऐंठन को जाकर

कैसे किसे बताये?

 

पर्दे बोल रहे हैं केवल

दरवाजे की भाषा,

और आधुनिक हो जाने की

यह कैसी अभिलाषा,

 

देख इसे लाचार व्यवस्था

रोये या मुस्काये?

 

पौधों के हिस्से में टूटन

पौधों के हिस्से में टूटन

बड़े पेड़ को पानी देना,

अरसा हुआ,नहीं क्रम टूटा।

 

पूँजीवादी इच्छाओं के

त्रास अधिक हैं,व्यूह बड़े हैं,

गूँगी मर्यादा के कागज

चिथड़े होकर गिरे-पड़े हैं,

 

थेथर जन का जीवन है बस

बालू में नावों का खेना

अरसा हुआ नहीं क्रम टूटा।

 

संशय के खलनायक सारे

प्रतिबंधों के पार खड़े हैं

असमंजस के ब्लैकहोल में

मर्यादा के बीज पड़े हैं

 

रँगे सियारों को इन सबसे

रहा कहाँ कुछ लेना-देना

अरसा हुआ नहीं क्रम टूटा।

 

शर्म छोड़कर,नङ्गे होकर

अब हमाम में सभी खड़े हैं,

थूक रहे हैं,चाट रहे हैं

स्वाभिमान पर कहाँ अड़े हैं

 

कॉस्ट्यूम से संवादों तक

पश्चिम के अंडे का सेना

अरसा हुआ नहीं क्रम टूटा।

 

ऊँघ रहा इतवार

बालकनी में

आकर बैठा

चाय लिए अखबार

लेकिन अब तक

ऊंघ रहा है

बिस्तर पर इतवार।

 

झाँक रहा है घर के भीतर

आकर नया उजास

शांत पड़े है कम्बल तकिये

बिस्तर पर बिंदास

 

अलसाई चादर

के नीचे

सपनों का भंडार।

 

मंजन,साबुन,शॉवर,गीजर

सुस्त पड़े हैं आज

हैंगर से लिपटी टॉवल को

पता समय का राज

 

बाथरूम में

बदल गया है

पानी का व्यवहार।

 

आधे जगे हुए टेरेस पर

गमलों के सब फूल,

चुप्पी साधे पड़े हुए हैं

योगासन को भूल,

 

हौले हौले

सहला करके

जगा रही कचनार।

 

शब्द पानी हो गए

तुम सलीके

से उतर कर याद में

छंद नयनों से

नया लिखने लगी,

मैं अभी तक

अर्थ भी समझा नहीं

और वंचक

शब्द पानी हो गए।।

 

गुलमुहर सी

देह का सौभाग्य पा

मन पलाशी

झूमता ही रह गया,

स्वप्न में बाँधा

उसे भुजपाश में

चूमता बस

चूमता ही रह गया।

 

रातरानी

चाँदनी तारे सभी

आकलन

विश्वास का करने लगे,

नींद को छेड़ा

किसी ने भी नहीं

स्वप्न के अहसास

धानी हो गए।।

 

हाथ पकड़े आ

गए हम भी पुलिन पर

फिर नदी का

भाव भी पढ़ने लगे,

घाट झुरमुट

और पगडण्डी सभी

नेह का

पर्याय ज्यों गढ़ने लगे।

 

मन हुआ आषाढ़,

सावन तन हुआ

गुदगुदी पुरवाइयाँ

करने लगीं,

रातभर हमने

कथानक जो बुने

भोर तक पूरी

कहानी हो गए।

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परिचय : अवनीश त्रिपाठी चर्चित गीतकार हैं. इनकी ‘दिन कटे हैं धूप चुनते’ (नवगीत संग्रह), ‘सिसक रहा उपसर्ग’ (दोहा संग्रह) प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अलावा कई साझा संकलन है. साहित्यिक उपलब्धि पर कई संस्थाओं ने इन्हें सम्मानित भी किया है.

सम्प्रति : श्री बजरंग विद्यापीठ इंटर कॉलेज, देवलपुर सहिनवां, सुलतानपुर में टीजीटी के रुप में कार्यरत।

स्थाई पता : ग्राम/पत्रालय-गरएँ, जनपद-सुलतानपुर, उ.प्र., पिन-227304

चलभाष : 9451554243/9984574242

मेल आईडी : tripahiawanish9@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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