डॉ. मंजू लता श्रीवास्तव के पांच गीत
समय निरुत्तर
समय निरुत्तर
व्यक्ति निरुत्तर
उत्तर नहीं किसी के पास
जीवन की
अनबूझ पहेली
डिगा रही मन का विश्वास
कटे पंख
फिर उड़ना कैसा
बंँधे पाँव कैसा चलना
मन के घोड़े
हार मान कर
देखें सूरज का ढ़लना
पीड़ाओं की
पृष्ठभूमि पर
लिखा जा रहा है आकाश
हम पोखर
हमको मेघों के
जल ने दिया सदा जीवन
पर प्रचंड
सूरज किरणों ने
छीन लिया हमसे यौवन
तपा हृदय
अब धूल उड़ाता
छोड़ रहा केवल उच्छवास
कुंठाएँ
निर्मूल नहीं है
फैल रहीं मन के अंदर
जला रही हैं
अंकुर अंकुर
धरा हो रही है बंजर
एक विषम युग
की गाथा अब
रचने लगी नया इतिहास
अषाढ़ के मेघ
ओ,अषाढ़ के मेघ! आज बरसो।
खेत बेचारे तन झुलसायें,
पल्लव पल्लव मुँह लटकायें,
जल में बनते रजत व्याल अब,
स्वर्ण सर्प से बहते जायें।
हो किसान के भाग्य लेख सरसो।
भिनसारे अब ओस पड़े न,
अब पलाश मकरंद झड़े न,
तितली आँखिन पड़ी रतौंधी,
बाल सँग भगदौड़ करे न
नहीं लगाओ देर, झूम बरसो
रात चाँदनी झुलस रही है,
लपटों जैसी बरस रही है,
चाँद लगे सूरज के जैसा,
परिचय उसका पूछ रही है
शीतल हिम के मीत, आज हरसो
प्यासी चिड़िया परबिखराये,
दौड़ दौड़ हिरना मर जाये,
ताक रहे रसहीन नयन दो
आसमान, मुखड़ा मुरझाये
प्राण बचायें दीन, नेह परसो।
गाँव न जाना
बंधु !गांँव की ओर न जाना
वर्षों से जो बसा स्वप्न था
वह अब लगता है बेगाना
देहरी का आमंत्रण झूठा
रिश्तो से अपनापन रूठा।
आँगन का बोझिल सूनापन
मुँह लटकाए गुमसुम बैठा
चहल-पहल से भरे बरोठों
का यादों बसा ठिकाना
पलक पांँवड़े बिछा नहीं
अब कोई स्वागत करने वाला
माथा चूम पीठ सहलाकर
नहीं बाँह में भरने वाला
पलकों पर उमड़े बादल को
तो फिर पड़े बरस ही जाना
लहराते पीपल तरुवर को
जहाँ मिला है देश निकाला
निर-अपराध नीम-बरगद को
बरबस मृत्युदंड दे डाला
ऐसे निर्मोही अपनों के
बीच पहुंँच मन नहीं दुखाना
बंधु!गाँव की ओर न जाना
जीत लिखें
टूटे मन
बिखरे सपनों संँग
आओ गीत लिखें
पोर-पोर
पीड़ा फिर भी
मुस्कानें मीत लिखें
भय का
काला बादल
सिर ऊपर मंँडराता है
सावधान हो
हिम्मत छाता
रोज बचाता है
विपदाओं का
कोलाहल
फिर भी संगीत लिखें
मन में
पीड़ा के संवेदन
दया भाव के हों स्पंदन
विषम समय की
धारा में पतवारों
संँग हों कर्म समर्पण
मुरझाए
उदास आनन
पर मन से प्रीत लिखें
जीवन पर
संकट गहराया
तन मन बोझिल, दुख का साया
घूम रहा
चहुँ ओर जगत में
जन-जन को है ग्रास बनाया
फिर भी
नई ऊर्जा ले
दिनकर सी जीत लिखें।
शिकारी बैठे
मैना तुम मत शोर मचाना
चारों ओर शिकारी बैठे
गांँव-शहर बस्ती-बस्ती में
चापलूस ही चापलूस हैं
बाहर से दिखते बलशाली
भीतर खाली कारतूस हैं
अर्जी दे निश्चिंत न होना
घूसखोर अधिकारी बैठे
दिल से निकली पीर तुम्हारी
उनके लिए मनोरंजन है
अधिक कान से आँखें सक्रिय
स्वर से ज्यादा दृष्टि में तन है
गिद्ध-निगाहों से बच रहना
पग-पग काम-पुजारी बैठे
अल्हड़ भोलेपन के लोभी
तुम्हें समझते एक खिलौना
दुष्ट वृत्ति
खूनी आंँखों में
झलक रहा मंतव्य घिनौना
पंजों को खंजर कर लेना
मत डरना, व्यभिचारी बैठे
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परिचय : डॉ मंजु लता श्रीवास्तव के नौ काव्य-संगह सहित 15 से अधिक साझा संकलन प्रकाशित हो चुके हैं. इन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान सहित अन्य संगठनों से कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं. ,
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