विशिष्ट कहानीकार :: काव्या कटारे

 कौन लिखेगा

                – काव्या कटारे

मैंने डायरी लिखना शुरू किया….

आज जब मैं उठी तो पाया कि मोहित जाग चुके थे. वह अपने मोबाइल में कुछ काम करते हुए बहुत व्यस्त मालूम पड़ रहे थे. पहले तो मैं अपनी आदत अनुसार उनसे चाय के लिए पूछने वाली थी. किंतु जब तक मेरे शब्द मेरे मुंह के आंगन से बाहर निकलते, मेरी आंखों ने पहले ही उनके पास टेबल पर एक चाय की प्याली को देख लिया. मुझे पहले तो कुछ समझ न आया पर उस चाय की प्याली ने मुझे यह याद दिला दिया कि कल कुछ तो हुआ था. शायद किसी के शब्दों ने एक प्यार भरे दिल को ठेस पहुंचाई थी. किसी ने अपने मन की व्यथा सुना कर किसी को यह एहसास दिलाया था कि वह बेरोज़गार है. शायद किसी ने, किसी अपने ने, किसी को आंसुओं से तकिया भिगा कर सोने पर मजबूर किया था. पर मैं भी क्या करती ? मैं भी इंसान हूं. बर्सों से घर की जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे आ रही हूं. परेशान हो गई थी इनकी हरकतें देखकर. मन ही मन व्याकुल हो रही थी अपने भविष्य के लिए. आखिर अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. उनकी ख्वाहिशें और जरूरतें दोनों ही दोगनी रफ़्तार के साथ बड़ी हो रही हैं. क्या करूं उन ख्वाहिशों का ? चलो, एक पल के लिए अगर मैंने उन ख्वाइशों का कत्ल कर भी दिया तो इनकी जरूरतों के लिए मेरे पास कोई उत्तर नहीं है……

बच्चों के स्कूल से एक सूचना आई थी. अब बच्चों को हफ्ते में निर्धारित दिनों पर तीन अलग-अलग ड्रेस पहननी हैं. जो भी बच्चा ऐसा नहीं करेगा, वह कक्षा में प्रवेश करने का अधिकार खो देगा. अब बोलो इन तीन-तीन सदमों का मैं क्या करूं ? बहुत कहा था मैंने प्रिंसिपल सर से, कि सर दो यूनिफॉर्म तक तो ठीक था पर तीन यूनिफॉर्म पेरेंट्स कैसे अफोर्ड करेंगे ? किंतु वह दुष्ट प्राणी सुने तब न. वह तो अमीर हैं. हर साल लाखों लोगों की बददुआएं खाते हैं फिर भी एक रुपए का नुकसान नहीं होता. वह नहीं जानते कि जब बच्चे नए खिलौनों की ज़िद करते हैं और जेब में पैसे नहीं होते, तो उन्हें चुप कैसे कराया जाता है. वह नहीं जानते जब घर में दाल खत्म हो जाती है, तो कैसे बच्चों को जबरदस्ती अचार के साथ रोटी खिलानी पड़ती है. वह नहीं समझते उस दर्द को जब बच्चे हमारे पास यह शिकायत लेकर आते हैं कि हम उनसे प्यार नहीं करते. इसलिए क्योंकि हर साल जब उनके दोस्त अपनी नई किताबें, नए बसते, नए लंच दिखाकर उन्हें चढ़ाते हैं, तब अपने छोटे-छोटे हाथों से अपनी उन पुरानी पुस्तकों को छुपाना पड़ता है. जिन्हें मोहित अपने दोस्त की बेटी, जो कि हमारे बच्चे से एक कक्षा आगे पढ़ती है, से मांग कर लाते हैं. और छोटी बेटी के लिए मैं अपने साथ काम करने वाली अध्यापिका से कहलवा कर किसी बच्चे से ले लेती हूं जो कि हमारी बेटी से एक कक्षा आगे हो. अब बच्चे भी क्या करें ? वे भी छोटे हैं. नहीं जानते कि हमारे घर की स्थितियां ठीक नहीं चल रहीं. वे तो इसी बात पर गर्व महसूस करते हैं कि उनकी मां उनके स्कूल में पढ़ाती है और उनके पापा बहुत मशहूर लेखक हैं. उनको क्या पता कि उनके पापा……. खैर छोड़ो. ऊपर से आज बिजली के बिल को पढ़कर दिमाग को, खासकर हमारे बजट को, झटका लग गया. दो हज़ार पांच सौ पचास रुपए……. अगर हर महीने इतने पैसे हम बिजली विभाग को देने लगे, तो फिर तो जल्दी ही सड़क पर कोई सुरक्षित जगह ढूंढने पड़ जाएगी. मैंने तो सोच लिया कि अब प्रिंसिपल सर से कहकर अपनी तनख्वाह बड़वा लूंगी. आखिर दस हज़ार में कैसे घर का खर्च चल पाएगा. दो हज़ार पांच सौ पचास रुपए तो बिजली ही अकेले ग्रहण कर लेती है. ऊपर से घर का राशन चार हज़ार से नीचे बात नहीं करता. पिछले महीने तो पूरे पांच हजार साठ रुपए देने पड़े थे. ऊपर से सब्जियों के बढ़ते दाम. और इन सब को पीछे छोड़ते हुए पेट्रोल. बड़ी मुश्किल से एक सेकंड हैंड स्कूटी खरीदने की जुर्रत की थी. पर इन दामों के चलते मुझे नहीं लगता कि ज्यादा दिनों तक मैं इसका उपयोग कर पाऊंगी. लेकिन क्या करूं ? मजबूर हूं. यहां से स्कूल बहुत दूर पड़ता है. पैदल जाने की कोशिश करी थी किंतु शाम आते-आते मेरे इरादों के पैर दुखने लगे. इसलिए दोबारा पैदल जाने की हिम्मत न जुटा पाई. आखिरी एक अकेला इंसान कब तक घर की जिम्मेदारियां उठा पाएगा. किसी न किसी को तो कंधा लगाना ही पड़ेगा वरना इन जिम्मेदारियों की डोली को तो मैं ज्यादा दूर तक नहीं उठा पाऊंगी.

मैं यह नहीं कहती कि मोहित का इस घर को चलाने में कोइ योगदान नहीं है. वे तो बेचारे मेरे पीछे पूरे घर की देखभाल करते हैं. बच्चों को तैयार करते, उनका बस्तर लगाते. मेरे लिए तो कई बार रात का खाना भी बनाया है उन्होंने. जब-जब मैं थक जाती तो कोई मजेदार कहानी सुनाते-सुनाते मेरा सिर भी दबाते. जब-जब बच्चों की परीक्षाएं आतीं तो मेरे साथ उनकी एगजाम कॉपियां जांचने में मदद भी करते. देर रात तक कभी जागना पड़ता अगर मुझे, तो अपने हाथों की गरमा-गरम चाय भी पिलाते. अगर सही मायने में कहूं तो मेरे मोहित बिल्कुल वैसे ही पति हैं जिसकी हर महिला को कामना होती है. हमेशा मदद करने वाले, हमेशा साथ देने वाले, हमेशा समझने वाले, और हमेशा ध्यान रखने वाले. बस एक चीज़ है जो मुझे परेशान करती है. और वह है इनका लेखन. इनके इस लेखन के कारण ही आज हमारी आर्थिक स्थितियां इतनी कमजो़र हैं. इसी लेखन के कारण ही मेरे पति किसी भी अन्य काम को करने में दिलचस्पी नहीं लेते. कभी-कभी तो लगता है कि यह लेखन नहीं, मेरी सौतन है. मानती हूं मोहित मेरी बेहद परवाह करते हैं. किंतु लेखन को तो वे पूजते हैं. जो इंसान भगवान को भी नहीं मानता, उसकी भगवान बन गए दिखाया है इस छोटी सी कलम ने. और तो और दोनों के बीच प्यार इतना है कि हर हफ्ते मुलाकात होती है. वह तो समय की मोहताज ही नही. हर समय दिमाग में कौतूहल मचाती ही रहेगी. जब पापा ने बताया था कि लड़के को लेखन में रुचि है, तब लगा था कि जो व्यक्ति समाज के नियमों को पग-पग पर चुनौती देता हो वह कितना हिम्मतवाला होगा. उसके पास अपनी बात को सबके समक्ष रखने की क्या ही कला होगी. जो धरती को स्वर्ग बनाने की इच्छा रखता हो, उसका तो घर ही क्या होगा. किंतु तब यह नहीं पता था कि लड़के को ‘केवल लिखने’ में रुचि है. यह तो मुझे आज ज्ञात हो रहा है. लेकिन ऐसी बात नहीं है कि उन्होंने काम ढूंढने की कोशिश नहीं की हो. किंतु देश में बढ़ती बेरोज़गारी के चलते इन्हें कई बार असफलता से रूबरू होना पड़ा. आज तो उन लोगों को भी काम मिलना मुश्किल है जिन्हें वास्तव में काम करने में रुचि है. मोहित तो फिर भी बेमन से काम ढूंढने गए थे, मजबूरी में. वह भी मम्मी के कहने पर. लेकिन इनकी कलम भी क्या चीज़ है. मोहित को काम करना अच्छा भी नहीं लगता और उनको काम मिलता भी नहीं है. सारी परिस्थितियां इस कलम के पक्ष में. मुझे तो अब इससे जलन भी होने लगी है. और तो और कल जिसके कारण हमारे बीच बहस हुई उसका नाम भी ‘कलम’ ही है.

कल जब बच्चों को सुला कर हम सोने का प्रयत्न कर रहे थे, तब मेरे मन में गुस्से के अंगारे उबल रहे थे. मेरे मन को बस यही चिंता सताए जा रही थी कि हमारा घर कैसे चलेगा  इस महंगाई की दौड़ में ? और तब मुझे बस यही भ्रम हो गया था कि इस घर को केवल मैं चला रही हूं. पर यह तो मैं भूल ही गई कि हर महीने इनकी भी कोई न कोई कहानी छपती  है और साथ में 2000 या 3000 का तोहफा भी अपने साथ लाती है. और तो और इनके सम्मान, इनके पुरस्कार की धनराशि से ही इस स्कूटी को हमने खरीदा था. इनकी कलम के कारण ही मैं स्कूल में सबके समक्ष मैसेज मोहित द्विवेदी के रूप में खड़ी हो पाती हूँ. इनके ही सहयोग से मैं स्कूल और घर को संभाल पाती हूं.

वरना क्या मैं सुनती नहीं अपने साथ काम करने वाली गृहणियों को. रोज़ शिकायत लेकर खड़ी हो जाती हैं जो उनके पतियों ने उन्हें तोहफे के रुप में दी होती हैं. तो क्या हुआ अगर मेरे मोहित आम आदमियों की तरह बाहर जाकर काम करने में रुचि नहीं लेते. मेरे पति के पास जो अपने विचारों को व्यक्त करने की क्षमता है न, वह किसी भी आम आम आदमी में नहीं मिलेगी. इसलिए तो लेखक सबसे अलग होते हैं. और शायद यही उनको सबसे अलग….. सबसे अनोखा बनाता है. यह समझाने के लिए तो मुझे रिया का आभार व्यक्त करना चाहिए. वरना मुझे कभी मालूम ही नहीं पड़ता कि शब्दों को सजाना भी किसानी होती है एक तरह की… कलम की किसानी.

 

बात उस दिन की है जब मैं हमेशा की तरह कक्षा में प्रवेश कर बच्चों को कुछ नया सिखाने जा रही थी. मेरे कक्षा में अंदर आते ही हल्ला मचाती क्लास एकदम शांत हो गई. फिर एकाएक बच्चों ने गाना गाना शुरू कर दिया…….

” गुगुगुगुडडडडड मॉर्निंगगगगगगग मैम ”

मुझे हंसी आ गई. पता नहीं क्यों जब इन बच्चों को यह गाते हुए सुनती हूं तो मेरे दांत मेरे होठों का पर्दा खोल देते हैं.

“अच्छा बच्चों, आपको पता चल गया कि आपके पेपर शुरू होने वाले हैं ?” मैंने पूछा.

“यस मैम.” मेरे पास उत्तर आया.

“अच्छा बच्चों . हमारा पूरा पोर्शन तो खत्म हो चुका है. जितना पेपर में आना है हमने सब पढ़ लिया है न. तो बस आप एक…..” मैं अपनी बात पूरी करती इससे पहले ही रिया ने कहा,

“मैम आपने हमें डायरी लिखना तो सिखाया ही नहीं.”

“डायरी…. मैंने नहीं करवाई ?” मेरे आश्चर्यचकित होकर पूछा.”….. मुझे तो ऐसा याद था कि मैंने करवा दी है.”

“नहीं मैम. आपने दूसरी कक्षा में करवाई होगी.” मनीष बोला.

“अच्छा कोई न. डायरी लिखना बहुत आसान है. आप लोग तो झट से सीख जाओगे. चलो, अपनी कॉपी निकालो.” मैंने आदेश दिया.

सभी ने अपने बसते खोले, कॉपी निकाली और अपने नन्हे-नन्हे हाथों में पेंसिलें पकड़कर लिखने के लिए तैयार हो गए.

“अच्छा, यह बताओ आप लोगों में से कौन-कौन रोज डायरी लगता है ?” मैंने प्रश्न किया जिसकी प्रतिक्रिया देते हुए सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे.

“क्यों ? कोई नहीं लिखता ? अरे…. रे… यह तो गलत बात है. अपनी रोज की दिनचर्या को अगर हम लिखते हैं तो यह बहुत अच्छी बात होती है.” मैंने थोड़ा समझाने की कोशिश की.

“कैसे मैम ?” रितिक ने पूछा.

“वह ऐसे कि अगर हम लिख कर अपनी बात सबके समक्ष लाते हैं तो यह हमारी भाषा और शैली दोनों को सुधारता है. जिससे हम सबके सामने अपने आप को अच्छे से प्रस्तुत कर पाते हैं. और अगर हम रोज़ अपनी दिनचर्या डायरी लिखते हैं तो कई दिनों के बाद उसे दोबारा पढ़ने से हमें यह भी पता चलता है कि हमसे कहां गलती हुई.” मैंने उत्तर दिया.

“फिर तो आप भी डायरी लिखती होंगी.” रिया ने पूछा. अब मुझे उत्तर देने से पहले सोचना पड़ा क्योंकि सच्चाई तो यह थी मैं डायरी नहीं लिखती थी. मुझे लिखना ज्यादा पसंद ही नहीं था. किंतु अगर मैं यह कहती तो बच्चों पर क्या असर पड़ता ?

“हां बिल्कुल.” मैंने झूठ कह दिया.

“वाह मैम, तब तो हमें आप की डायरी देखनी है. “रिया ने उत्साहित होकर कहा.

अब मैं क्या करूं ? वह तो भला हो उस चपरासी का जिसने सही समय पर लंच की घंटी बजा दी. मैं वहां से तो बच कर निकल गई पर रिया की बात मेरे दिमाग में ही रह गई. घर आने पर जब मैंने मोहित को यह सब बताया तो उन्होंने भी मुझसे कहा कि मुझे बच्चों को कुछ भी सिखाने से पहले खुद उस पर अमल करना सीखना होगा. बस उसी दिन से रोज अपने दिल को पन्नों में विस्तारित करती हूं और तब यह मालूम पड़ा कि शब्दों से खेलना बच्चों का खेल नहीं. और इसीलिए लेखक हम या आप से बहुत अलग होते हैं.

खैर इधर-उधर की बातें तो बहुत हो गई. किंतु मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि मैं मोहित को कैसे मनाऊं. मुझे अपनी गलती का एहसास है. इस बात को मोहित तक कैसे पहुंचाऊं ? काश हर बार की तरह इस बार भी वे मेरे मन को पढ़ लें. किंतु मैं उनसे कैसे कहूं कि मोहित आप तो मेरी ज़रूरत है. मुझसे ज्यादा देर तक अगर आप गुस्सा रहते हैं तो मुझसे सहन नहीं होता. प्लीज़ मुझे माफ कर दीजिए. मुझे अपनी गलती का पूरा एहसास है .सॉरी न यार ! अगर आप मुझे माफ कर देंगे न तो मैं आपकी माफी को अपने जन्मदिन का तोहफा मान कर रख लूंगी. मुझे आपसे और कुछ नहीं चाहिए, सिवाए आपके. तृषा. मैंने अपने दिल में उमड़ रहे हर भाव की तितली को कलम के जाल में फंसा कर पन्नों के पिंजरे में बंद कर दिया.

खटखट….. कि तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. जरूर मोहित होंगे. बच्चों के जिद करने पर उनको पार्क में घुमाने ले गए थे. शाम को ठंड पड़ना शुरू हो गई होगी इसलिए वापस आ गए होंगे. अभी जाकर दरवाजा खोलती हूं. मैंने कलम को इसी पेज पर रख दरवाजे की ओर कदम बढ़ाए.

जैसा मैंने अनुमान लगाया था वैसा ही पाया. ये दरवाजे पर बच्चों के साथ खड़े थे.

“मम्मा….” मुझे देखते ही बच्चे चहक उठे और मुझसे लिपट गए.

” आ गए आप लोग. चलो जाओ मुंह हाथ धो लो. फिर चुपचाप कमरे में होमवर्क करने बैठ जाना.” मैंने उनको बाथरूम की दिशा दिखाई.

“ओह नो !” बेटे ने मुंह बनाया.

“क्या बोला ?” मैंने आखें दिखाई.

“ओह यह! है न भैया.” छोटी बेटी ने बेटे को कोहनी मार दी.

“गुड गर्ल” मैंने कहा.

बच्चे बाथरूम की ओर दौड़ पड़े. ये तो पहले ही अंदर आकर सोफे पर बिराज चुके थे, जहां पहले मैं बैठी थी. मैं जानती थी कि उनको प्यास लगी होगी इसलिए उनके लिए पानी लेने किचन में घुस गई. मन में बस एक ही बात गोते लगाए जा रही थी कि इनको कैसे मनाऊं ? मैंने नल में से पानी भरा और हाथ में ग्लास को लिए पहले कमरे में गई ताकि बच्चों को भी पानी दे सकूं और यह सुनिश्चित कर सकूं कि दोनों पढ़ रहे हैं या नहीं. जब मैं कमरे में पहुंची तो मुसे तसल्ली हो गई. दोनों मन लगाकर पढ़ रहे थे. मैंने ग्लासों को टेबल पर रखा और कहा,

“पानी रख दिया है. जब प्यास लगे तो पी लेना. ठीक है बेटा.”

यह बोलकर मैं कमरे से बाहर आ गई और हॉल की ओर जाने लगी यह सोच कर कि मैं सीधे जाकर सॉरी बोल दूंगी. किंतु जब हॉल में पहुंची तो ग्लास टेबल पर रख कर आने के सिवा और कुछ न कर सकी. बहुत कोशिश की सॉरी कहने की पर अब क्या करूं ?

मुझे अच्छे से याद है जब मैं पिछली बार इनसे नाराज हुई थी तो कितने जतन किए थे उन्होंने मेरे मुंह पर हंसी बिखेरने के लिए. खाना बनाकर अपने हाथों से खिलाया था. जब मैं फिर भी नहीं मानी थी तो मुझे मनाने के लिए जो शेर उन्होंने लिखा था उसे जो़र-जो़र से पढ़ने लगे थे……

” जिंदगी रुठ जाए तो हमें कोई ग़म नहीं,

बस तुम मत रूठा करो, जान निकल जाती है.”

और तब मैं भला खुद को मानने से रोकने में कैसे सफल हो पाती. उस समय तो इन्होंने मुझे मना लिया था पर अब मैं ऐसा क्या करूं कि यह मान जाएं. इनके मन का खाना बना दूं क्या ? हां, यही तो मैं कर सकती हूं. इनके पास अगर इनकी कला है तो मेरे पास मेरी. बढ़िया आलू के पराठे बना कर उनके सामने रख दूंगी. यही सही रहेगा.

यह सोच कर मैंने कुकर उठाया. उसमें कुछ आलू डाले और उनको गैस पर उबलने रख दिया. अब बस मुझे इस बात का इंतजार था कि कब ये उबलें. तब तक मैंने सोचा कि आटा माड़ लेती हूं. मैंने आटे का डिब्बा खोला, कटोरी की मदद से आटा निकाला और उसे छानकर माड़ने लगी. कि तभी अचानक मुझे ऐसा लगा कि किचन में कोई आया है. किंतु मैंने यह सोचकर पीछे न देखा कि बच्चे मस्ती कर रहे होंगे. कि तभी,

” तृषा…” मुझे इनकी आवाज सुनाई दी.

मैंने पीछे देखा तो पाया मोहित खड़े थे.

“मोहित आप..”  मैं हैरान हो गई.

किंतु वह मुस्कुराते हुए मेरे पास आए और मुझे मोबाइल दिखा कर कहने लगे,

“देखो, तुम्हारी सौतन तो कमाल कर रही है.”

“मेरी सौतन…” मैं आश्चर्य में पड़ गई.

मोबाइल को देखने पर एक मैसेज का आंखों से सामना हुआ.

 

मिस्टर मोहित द्विवेदी,

आप की कहानी हमारी पत्रिका में स्वीकृत हो गई है. कृपया कर अपने अकाउंट की डिटेलस हमें भेज दीजिए.

 

मैंने खुशी प्रकट की. जानती हो यह पत्रिका पूरे 5000 का मेहनताना देती है. ये बताने लगे.

“वाह ! बधाई हो.” मैंने बधाई दी.

लेकिन मुझे एक बात समझ न आई. यह बिना मेरे माफी मांगे कैसे मान गए ? और इन्होंने सौतन…..  नहीं……. कहीं इन्होंने मेरी डायरी……. मैं हॉल की तरफ अपने भिड़े हुए हाथ लेकर भाग गई. वहां मेरी डायरी पहले की तरह खुली थी, जैसे मैंने उसको छोड़ा था. किंतु उसकी जगह बदल गई थी. अरे ! नहीं…. मैं तो डायरी बंद करना भूल गई थी. इन्होंने तो उस में लिखी हर बात को पढ़ लिया होगा. मैं चिंतित हो गई और पीछे मुड़ी तो पाया ये हॉल में आ चुके थे.

 

“यह तो गलत है. आपको ऐसे ही किसी की डायरी नहीं पढ़नी चाहिए.” मैं गुस्सा होने लगी.

 

“किसी की कहां ? मैंने तो अपनी डायरी पढ़ी है.” वह बोले. मुझे असमंजस में देख मोहित आगे बढ़े और उन्होंने डायरी बंद कर मुझे उसका मुख्य पृष्ठ दिखाया.

अरे…. रे यह तो इनकी डायरी का मुख्य पृष्ठ है. मतलब दोपहर में जल्दी-जल्दी में मैंने इनकी डायरी में लिखना प्रारंभ कर दिया था. अरे ! हां, दोपहर को यह डायरी मुझे खुली हुई ही मिली थी. मुझे लगा था कि बच्चों ने मेरी डायरी को यूंही खोल कर रख दिया है.

“अगली बार से डायरी का मुख्य पृष्ठ देख कर ही लिखना.” यह कह कर वे हंसने लगे.

पल भर की चिंता के बाद मुझे भी खुद पर हंसी आ गई. हम मियां-बीवी साथ में जो़र-जो़र से हंसने लगे. किंतु मेरे मन में एक बात भ्रमण कर रही थी……

इन्होंने तो मेरे मन की बात पढ़ ली पर इनके मन की बात का क्या ? जो सारे संसार की पीड़ा को अपने शब्दों में अभिव्यक्त करता है, उसके अपने दुख-दर्दों का क्या ? उन्हें ‘कौन लिखेगा’

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