आखिरी डाक :: आशा पांडेय ओझा

आखरी डाक

  • आशा पांडेय ओझा

पिछले एक सप्ताह से जीवन जी पोस्ट ऑफिस में इंतज़ार कर रहे हैं कि उस रास्ते की एक आध डाक और आ जाये तो त्रिलोक जी की डाक पहुँचा आऊँ, लेकिन हफ्ता भर से ऊपर होने पर उन्हें खुद ही शर्म आने लगी कि ” क्या पता कोई जरूरी समाचार हो और मैं देर कर रहा हूँ !” एक डाक पहुँचाने आठ किलोमीटर सायकल चलानी होगी, पर नौकरी है जीवड़ा जीवन करनी तो होगी ही!” मन को समझाते हुवे जीवन जी ने त्रिलोक जी के पत्ते वाला लिफ़ाफ़ा बैग में डाला
पोस्ट ऑफिस के ताला लगाया व एक आहः भरी दृष्टि पोस्ट ऑफिस की ज़र्ज़र होती इमारत पर डाली जिसका लगभग आठ सालों से तो रंग -रोगन ही नहीं हुआ।
दीवारों पर दरारों ने अपनी घुस-पैठ जमानी शुरू कर दी थी चूने की पपडियां एक के बाद उतर-उतर कर लगभग दीवार को पूरी तरह उघाड़ कर उसके मूल खण्डे(असली पत्थर) के स्वरूप में ले आई थी।
पपडियां हल्की सी आहट, हवा के दबाव या दरवाजे को बंद करने की खड़खड़ाहट पर ऐसे गिर-गिर जाती हैं जैसे पतझड़ के मौसम में हल्की हवा की चपत से भी पत्ते पेड़ को छोड़-जाते हैं।

जीवन जी ने सायकल उठाई व उदावतों की ढाणी की ओर चल पड़े,रास्ते में मिलने वाले सभी परिचितों को राम- राम ! नमस्ते! जय श्री कृष्ण! जय माताजी! खम्माघणी! दुआ सलाम! करते हुवे यह भी जरूर पूछते “आपरै डाक- वाक कोनी आवै आजकाले घर परिवार में सब राजी कुसी ?”सामने से लगभग एक ही जवाब आता कि “आजकल टाबर-टूबर रिस्तेदार, नातेदार दोस्त- भायला,परिचितां ऊं फोन, वीडियो कॉल, फेसबुक,व्हाट्स पर बात-चीत हु जावै है ,अठै तक कुं-कुं पतरी, चिट्ठी तक तो व्हाट्स अप पर आवण लाग गी.. फेर कागज पतर कुण लिखे?

यह बात जीवन जी भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि सदी के इस परम टेक्नोलॉजी वाले युग में पहले से लाख गुना परिवर्तन हो गया। पर इन सबके चलते पुरानी व्यवस्थाओं पुराने कारिंदों ने कितना भोगा है इस दौर में कोई क्या समझ सकेगा इस पीड़ा की गहन अनुभूति को। उन्हें पोस्ट ऑफिस बंद हो जाने, अपनी नौकरी सवालों के घेरे में आने,जाँच होने,सरकारी सवाल- जवाब होने , नोटिस मिलने की चिंता भी तो निरंतर लगी रहती है।
पिछले साल ही तो नोटिस आया था कि शाखा इस प्रकार निष्क्रिय रही तो इसे बन्द करके आपका तबादला भैंसेर शाखा में कर दिया जाएगा, और जब से यह शाखा सिंगल हैंडेड शाखा-डाकघर में तब्दील हुई सारी जवाब दारी भी तो मेरी है, एक-एक कर सारा स्टाफ टूटता गया था, पिछले पाँच साल से तो मात्र तीन लोगों पर निर्भर थी यह शाखा..शंकर जी के दो साल पहले हुई सेवानिवर्ती के बाद उनके स्थान पर किसी को लगाया भी नहीं, और ऑफिस में काम की कमी के चलते दौल जी का तबादला उमेदपूरा हो ही चुका।
पाँच साल में मात्र तीन पोस्ट के भी टूटते-टूटते थ्री हैंडेड यह शाखा आज सिंगल हैंडेड मात्र रह गई।
कहीं मेरा तबादला भी अन्यत्र हो गया तो कैसे सार सम्भाल होगी ढाँढ़ों की,बीमार घर आळी की,अर विधवा बेटी की..इस विचार भर से जीवन जी का काळजा पसीज गया।

ऊहापोह से घिरे जीवन जी सायकल चलाते हुवे इस डाकघर में अपनी 35 साल की नौकरी व इसकी व्यस्तता व रौनक से जुड़ी तमाम बातें याद करते जा रहे हैं, दिन भर कागजों की खुशबू, और आने-जाने वालों की भीड़.. आर डी खुलवाने वालों की लंबी कतार, इंदिरा विकास पत्र हो या किसान विकास पत्र, तार या पोस्टकार्ड,अंतर्देशीय या लिफ़ाफ़े, रजस्ट्रियां कितना सारा काम कितनी अलग-अलग कतारें कितना स्टाफ, कितने- कितने चाय के दौर.. चाय के दौर से जीवन जी को यकायक ऑफिस के बाहर चाय बनाने वाले गोपाल व उसकी लुगाई सरला की स्मृति हो आई उनकी थड़ी पर भी कितनी रौनक होती थी, दोनों धणी लुगाई को पल भर की फुर्सत नहीं थी ..पर डाक घर के साथ उनके भी तो दिन फिर गये थे,उनकी भी थड़ी एकाकीपन का शिकार होती गई और गल्ले से लिछमी नाराज़।

चिंता व अवसाद से घिरे जीवन जी के चेहरे पर अचानक खुशियों भरे कुम-कुम पगलिये मंड गये जब आज उन्होंने मन ही मन तय किया कि त्रिलोक जी के यहाँ डाक देकर लौटते हुवे आज पाँच-सात घरों से सम्पर्क जरूर करूंगा कि “क्यों इन दिनों डाक बिल्कुल नहीं आती.. ?वे भी किसी काम से पोस्ट आफिस क्यूँ नहीं आते ?”
जीवन जी को जिन-जिनसे मिलना था उनकी एक सूची मन ही मन में बनाते जा रहे थे, कि किन- किन से मिलेंगे, तेज प्रताप जी,राम लाल जी,सोहन जी,अणची बाई,दाखी बाई, बबली दर्जन ,नूर जी करीम खां सबका ध्यान आया। बीच- बीच में रेत के टिब्बे उतर -उतर कर पार करते हुवे कोई पच्चास मिनिट सायकिल चलाने की कड़ी मेहनत के बाद आखिर त्रिलोक जी की ढाणी आ ही गई साइकिल कच्ची दीवार के सहारे खड़ी कर जीवन जी ने त्रिलोक जी की साँकल बजाई, लगभग तीन बार सांकल बजाने पर त्रिलोक जी दरवाजा खोलने आये,जीवन जी को देखते ही खुश तो बहुत हुवे पर उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि महीनों बाद जीवन जी आये हैं.. क्या लाये होंगे ? “घणा दिनां ऊँ आया सा कँई लाया सा !”
जीवन जी मजाक करते हुवे बोले
” डाक रे सिवा कंई लाऊं हुकुम .. हलवाई तो हूँ कोनी जो मिठाई- नमकीन लावतो ।”
दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े
“अरे डाक तो लाया पण कुण ठालो-बुलो इत्तो निकेवळो है क हाल भी डाक भेजे ?.. फेर थें इतो कष्ट क्यां करियो ?.. फोन पर ई बता देता ” म्हे आतो-जातो ले लेतो!”
” हाँ पण म्हारी नौकरी है हुकम.. फेर कोई काम को जरूरी कागज हुवै तो?”
जीवन जी ने खाकी थैले से पत्र निकाल कर त्रिलोक जी की ओर बढ़ा दिया।
पत्र पकड़ते हुवे त्रिलोक जी बोले
“अरे जीवन जी आजकल कोई जरूरी कागज डाक ऊं कोनी भेजे ओ सब कोरियर ऊं आय जावै हुकुम ! ..
“खैर आवो मायनै चा-चू पीलो तावड़ो भी घणो तपण लाग ग्यो चेत में ए हाल है आगे राम ई धणी है।”
जीवन जी की उम्र,सायकल चलाने से हुई थकान व मार्च महीने की बढ़ती गर्मी को भाँपते हुवे त्रिलोक जी ने चाय के बहाने प्रेम पूर्वक थौड़ा सुस्ता लेने का आग्रह किया।
कोई और दिन होता तो त्रिलोक जी का यह नेह भरा आग्रह जीवन जी हरगिज नहीं टालते
पर आज जीवन जी एक अलग ही संकल्प लेकर पोस्ट ऑफिस से निकले थे
उन्होंने झोला वापस बन्द करके त्रिलोक जी से माफी माँगते हुवे कहा..
“फेर कदैई हाज़िर होऊं हुकुम ! आज तो
कीं जरूरी काम है..खम्मा घणी!”
कहकर विदा ली
जब वे अपनी सायकल की ओर बढ़े तो मन में एक और अलग क़िस्म की पीड़ा उठी कि आजकल उनकी सायकल भी एक ठौड़ ही पड़ी रहती है वरना पहले तो ढाणी के बच्चे भेळे होकर उनकी सायकल ही उठा ले जाते थे और सीखे हुवे बच्चे उसे चलाने व बिना सीखे हुवे उससे सीखने का प्रयास करते। एक दूसरे से खोसा- खासी करते.. जीवन जी उन बच्चों से सायकल देने की मनुहार करते,फिर भी बच्चे ध्यान नहीं देते, फिर घर वालों की झिड़की के बाद बच्चे जीवन को बड़े बेमन सायकल लौटाते .. ।इन पाँच सालों ने गाँव के उस मूल स्वरूप को कितना बदल दिया दुखी मन से सायकल उठाकर जीवन जी वापस मुड़ गये अपने संकल्प को पुनः मन मे दोहराते हुवे, जो आज उन्होंने तय किया हुआ था कि इन तमाम लोगों से हर हाल मिलकर डाक न आने व न भेजने का कारण पूछेंगे,व समझाएंगे की लेटर लिखने भेजने चाहिए। और अगर उनको पोस्ट ऑफिस आने में दिक्कत होती है तो मैं खुद उनसे इक्कठी करके ले लूँगा। वे उत्साह से पेंडल मार रहे थे।
पर जीवन जी की हर आशा की किरण आज पल-प्रतिपल निराशा के कुहासे में बदलती गई।
जीवन जी जितने भी लोगों से मिले,सबने यह कहकर निराश ही किया कि”अब वीडियो कॉल रो जमानो है अब कुण कागज लिखे?”

जीवन जी आज के तय शुदा नामों में से आखिरी नाम दाखी बाई के घर के बारणे बड़ी हसरत और उम्मीद से सायकिल से उतरे.. पर दाखी बाई ने चौथी बार साँकल बजाने पर दरवाजा खोल कर हसरत की कड़ियों को बारणे पर ही कमजोर कर दिया था । दाखी ने आगळ खोल कर मुस्कुराते हुवे
जीवन जी को हाथ से इशारा करके आँगन में पड़े माचे (चारपाई) पर बैठने को कहा। और खुद फोन पर लगी रही, अलबत्ता फोन पर लगे- लगे ही दाखी बाई ने ठंडे पानी का लौटा भर कर जीवन जी को पीने को पकड़ा दिया, एक हाथ में फोन पकड़े-पकड़े रसोई से एक कपड़े की थैली लाकर आँगन में दूसरे माचे पर ताज़ा -ताज़ा दो तीन दिन पूर्व बनी,सूखाने की प्रक्रिया में रखी राबोड़ी भर दी व जीवन जी के पास लाकर थैला रखते हुवे इशारे से बता दिया कि ये आपको ले जाना है।
लेकिन जीवन जी का मन न पानी पीने में था न राबोड़ी लेने में.. हताशा की काइयों पर फिसलता हुआ जीवन जी का मन बार- बार चोटिल हो रहा था,वे अपनी आखिरी उम्मीद को चूर-चूर होते देख रहे थे.. भीतर -भीतर टूट रहे थे, ऐसे लग रहा था भीतर कोई दरिया सूख रहा है और साँसे अंगार पर नाच रही है.. शायद इसी तरह किसी रोज रेगिस्तान बना होगा सरस्वती नदी का यह गीला घाट।
कोई पाँच मिनिट बाद दाखी बाई ने जीवन जी की तरफ रुख कर के हँसते हुवे कहा
“पूना ऊं टाबरां रो वीडियो कॉल हो.. दिन में तीन चार -बार बात हु जावै..मुंडो देख लां जीव सोरो हु जावै..
पण आ बताओ आज थें किकर रस्तो भूल ग्या।”
जीवन जी क्या बोलते..
बोले “इंया ई सोचियो मोकळा दिन हु ग्या थें दिख्या कोनी..
खैर-खबर लेतो जाऊं…
धके गयो हो त्रिलोक जी रे डाक देवण ने।”
त्रिलोक जी ने डाक देवण ने सुनते ही
दाखी बाई जोर से हँसी .. जैसे जीवन जी ने कोई चुटकुला सुना दिया हो
, “ओ बाई ई जमाना में भी डाक भेजे कित्ता भोळा मिनख हुवे।”
जीवन जी जिस उम्मीद से आये थे उस उम्मीद की आखिरी कड़ी मानो लोहे के गर्म बुरादे में बदल गई और व उड़ -उड़ उनकी इंद्रियों व धमनियों में उतर रही है । दाखी बाई वो दाखी बाई नहीं जिनकी डाक लाने के अलावा पढ़ कर सुनाने व बच्चों की स्मृतियों से गालों पर लुढ़के आँसुओं को अपने चुटीले मजाकिया अंदाज में पोंछने का काम भी जीवन जी करते थे।
दाखी बाई डाक के इंतज़ार में अब अपनी आंगळयों को कैलेंडर नहीं बनाती, क्योंकि उसकी आंगळयां मोबाइल के की पेड की आदि हो गई ,दाखी बाई की आँखे अब खतों की खुश्बू के इंतज़ार में इंतज़ार की दरी नहीं बिछाती..दाखी बाई अब डाक की बाट नहीं जोती ।अक्षरों की आस पर टिकी आंखों का घना इंतज़ार कानों के पर्दों ने थाम लिया, जिस उत्सुकता उमंग से जीवन जी दाखी से मिलने आये उतनी ही सघन निराशा ले कर दाखी की चौखट छोड़ी उन्हें मन ही मन एक शंका घेरने लगी है भगवान कहीं त्रिलोक जी की डाक आखिरी डाक तो नहीं? जीवन जी के सायकल चलाने की शक्ति क्षीण और क्षीण होती गई वे एक बरगद के नीचे चबूतरे से सायकल टिका कर खुद बरगद के मोटे तने के सहारे टिक गये।

…………………………………………………

परिचय : आशा पांडेय ओझा की कई कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. ये राजस्थान के उदयपुर में रहती हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Previous post ‘रूदादे-सफ़र’ में देहदान जैसे जटिल विषय का बखूबी चित्रण :: सुधा ओम ढींगरा
Next post ब्रज श्रीवास्तव की पांच कविताएं