दरिद्र भोज :: डॉ अंजना वर्मा

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दरिद्र भोज
        – अंजना वर्मा

सीमा सवेरे से रसोई में व्यस्त थी। आज उसके पिता की पुण्यतिथि थी । साल में एक बार आने वाली इस तारीख को उसने कभी सामान्य दिन की तरह गुजरने नहीं दिया था। हर दिन तो भाग-दौड़ में गुजर जाता है ‌। कम-से-कम वर्ष का एक दिन तो वह अपने दिवंगत पिता को समर्पित करे ? उसने तय किया था कि दरिद्र लोगों को भोजन कराएगी‌। पहले सोचा कि पैकेट बनाकर बाँट दे। फिर निश्चित किया कि वह स्वयं ही कुछ बनाकर खिला देगी।  छोले और पुलाव बना लेना आसान था। इसलिए वही बना रही थी। साथ में मिठाई भी खिलाएगी । मिठाई मंगा कर रख ली थी उसने। खाना बनाते हुए उसे अपने पिता की कई बातें याद आ रही थीं। पिता ने ज़िंदगी की छोटी-से-छोटी बातों से लेकर बड़ी-बड़ी बातों तक का मर्म समझाया था। पिता के देहांत के बाद उसे लगा था कि वह अचानक बड़ी हो गई थी। उनके जीवित रहते हुए वह अपने को बच्ची ही समझती रही थी। यह कहावत उसे अधूरी लगती थी कि “गॉड कुड नॉट बी एवरी व्हेयर, सो ही क्रियेटेड मदर्स ।” इसमें पिता को भी जोड़ देना सही होगा – सो ही क्रियेटेड पेरेंट्स!
घर का माहौल आज अन्य दिनों से कुछ अलग था । उसका पति राहुल भी जान रहा था कि पुण्यतिथि है और सीमा गरीबों को खिलाने मंदिर जाएगी ,पर वह अपनी ड्यूटी से बँधा था ।उसे दफ्तर जाना था। उसका बेटा अक्षय बहुत उत्साहित था; क्योंकि उसे मम्मा के साथ मंदिर जाना था। वह सुबह से ही नहा-धोकर तैयार था। सीमा ने खिलाने के लिए पेपर प्लेट्स खरीदकर रख लिए थे। अक्षय ने कहा, “मम्मा! क्या मैं पेपर प्लेट्स गाड़ी में रख आऊँ?”
सीमा ने कहा , “तुम्हें पेपर प्लेट्स ही सबसे भारी लगते हैं क्या? छोड़ो, खाने के साथ ही ले चलना, पर भूलना मत।”
यह कहने के बाद कुछ सोच कर बोली, “अच्छा, रख आओ । क्या पता? कहीं छूट जाए तो?”
अक्षय पेपर प्लेट्स लेकर दौड़ता हुआ नीचे चला गया कार में रखने के लिए। राहुल ने रसोई में झाँका — सीमा मसाला भूनती हुई खाँस रही थी ।उसका ध्यान खींचने के लिए और उसे थोड़ा खुश करने के लिए राहुल ने गला साफ किया , “आह! बड़ी अच्छी ख़ुशबू आ रही है ।लेकिन यह हम लोगों के लिए नहीं है न?”
सीमा ने कड़ाही में कलछी चलाते हुए बिना उसकी ओर देखे कहा,” नहीं!”
सीमा को अपनी ओर मुखातिब न देख कर राहुल ने मुस्कुराते हुए कहा, “सुनो, तुम गरीबों को खिलाने जा रही हो न?”
“हाँ, तुम्हें मालूम नहीं है?” सीमा बोली। वह पसीने से लथपथ थी।
“मालूम है बाबा! फिर भी पूछ रहा हूँ कि खिलाने की क्या ज़रूरत है? इतना परेशान हो रही हो। तुम्हें विश्वास है कि गरीबों को खिलाने से पिताजी की आत्मा तृप्त हो जाएगी?”
सीमा ने कहा, “वह मैं नहीं जानती। बहुत सारी ऐसी बातें हैं, जिन्हें हम ना चाहते हुए भी निभाते हैं। आखिर इसमें लगता ही क्या है?ख़ैर, छोड़ो। तुम ऑफिस के लिए निकलो , नहीं तो तुम्हें देर हो जाएगी।”

राहुल चाह कर भी सीमा की कुछ मदद नहीं कर सकता था। उसने कहा, “सुनो, मैं जा रहा हूँ। तुम चली जाना अक्षय को साथ लेकर।”
यह कहते हुए वह दफ्तर के लिए वह निकल गया। अक्षय अब तक पेपर प्लेट्स रख कर आ चुका था। वह वहीं इधर-उधर घूम रहा था कि कब सीमा का खाना तैयार हो और वे दोनों भिखारियों को खिलाने के लिए निकलें। देर होती देखकर वह टीवी खोल कर बैठ गया । उसमें उसने अपना मनपसंद प्रोग्राम लगा दिया – रेस्लिंग देखने लगा। किस तरह एक पीटता है और दूसरा पिटता है। इतना पिटने के बाद भी रेस्लर को कुछ नहीं होता । बर्दाश्त करना भी शक्तिमान होने का सबूत है। पिटने वाले ने अपने सुनहरे लंबे बाल बढ़ा रखे हैं और उन्हीं बालों को पकड़कर उसका प्रतिद्वंद्वी उसे मनचाहे ढंग से खींचता है; क्योंकि बड़ी आसानी से लंबे बाल मुट्ठी में आ जाते हैं । आखिर रेस्लर बाल क्यों  लंबे कर लेते हैं ? यह बात उसकी समझ में आती ही न थी। इस पर वह अक्सर सोचता । शायद यह स्टाइल है।
सीमा ने खाना तैयार कर लिया था । वह अपने को इस धारणा से ग्रस्त होने से बचा नहीं पाती थी कि आत्माओं का भी अस्तित्व होता है। दूसरा चारा ही क्या है? यदि दिवंगत प्रियजनों की यादों को दुलारना है तो आत्माओं का अस्तित्व मानकर उनसे हमेशा एक सामीप्य और संवाद बनाए रखा जा सकता है। इसीलिए हाँ और ना के बीच डोलते हुए भी ऐसी धारणाएँ इतनी गहराई से ज़ेहन में घर कर लेती हैं — ईश्वर के अस्तित्व की तरह । प्रत्यक्ष अस्तित्व के बिना भी ये पूरे जीवन को अपनी गिरफ्त में रखती हैं । सब कुछ के बारे में तो हम नहीं जानते , बस एक बनी-बनाई लीक पर चलते रहते हैं। यदि उसमें नफा नहीं है, तो नुकसान भी नहीं है । सीमा ऐसा ही सोचती थी; बल्कि वह यह सोच कर बहुत संतुष्ट हो जाती थी कि दिवंगत लोगों के नाम पर ही सही, कुछ गरीबों को खाना तो मिल जाता है न ?  भुखमरी के रेगिस्तान को पार करते हुए कुछ लोगों की मौत कल या परसों के लिए टल तो जाती है न?  ज़िंदगी कुछ दिन ही सही , लंबी हो जाती है न? कुछ लोगों की खाने की इच्छा तो पूरी होती होगी न ?  लोग यह सब करना छोड़ दें तो यकीनन दुनिया कुछ और दु:खी और बेबस हो जाएगी। मन में वह सोच रही थी कि इससे दिवंगत पिता की आत्मा को तृप्ति मिले या न मिले,पर  कुछ भूखे और लाचार लोगों की क्षुधा तृप्त हो जाएगी। यही उत्साह उसे सवेरे से सक्रिय रखे हुए था।
खाना तैयार कर थोड़ी देर के लिए वह कुर्सी पर सुस्ताने के लिए बैठ गई। बैठते ही  परेशान होकर उसने पुकारा , “अक्षय…..।”
अक्षय ने टीवी बंद कर दी। पैरों में स्लीपर बिना पूरी तरह पहने हड़बड़ी में उठकर घिसटकर दौड़ता हुआ आया । बोला, ” हाँ मॉम!  बोलो!”

सीमा ने कहा, “देर हो रही है । मैं पतीली निकाल कर देती हूँ। तुम कार तक ले चलने में मेरी सहायता करो।”
सीमा ने पतीली उठाई। अक्षय ने तत्परता से वह पतीली थाम ली और उसे कार में रख आया।  फिर एक कैसरोल सीमा ने उठाया दूसरा अक्षय ने । दोनों कैसरोल भी कार में रख दिये गये।  खाना कार में रखवाकर सीमा ने कार स्टार्ट की और चल दी मंदिर की ओर। बगल में अक्षय बैठा हुआ था ।उसने अपनी पसंद का म्युज़िक लगा दिया।
मंदिर के पहले ही भिखारियों की कतार शुरू हो जाती थी । सीमा ने एक-दो भिखारियों पर नजर पड़ते ही सड़क के किनारे गाड़ी पार्क कर दी। सड़क की दोनों ओर छायादार पेड़ खड़े थे। कुछ गुलमोहर के , कुछ दूसरी किस्म के ।गुलमोहर तो आकाश में अपने लाल फूलों की चाँदनी तानकर खड़ा था। मई का महीना था। तेज सूर्य की किरणें कहीं पेड़ों की घनी डालियों पर और पत्तियों पर ही रुक कर कर बैठ गई थीं , तो कहीं चिलचिलाती सड़क पर उतर कर धूपछाँही छींटों की चादर बिछा चुकी थीं। दो कदम पर मंदिर था, जिसका गुंबज दिखाई दे रहा था।भिखमंगे सड़क के किनारे बैठे हुए थे। धूप तेज होने पर भी बाहर की दिनचर्या शिथिल होने वाली न थी । मौसम से बेहाल होकर भी लोग अपने-अपने कामों में लगे थे। दफ्तर जाने वाले अपने दफ्तर में थे। सड़क से जिनका रिश्ता था , वे सड़क पर। गर्मी के दिनों में कालोनियाँ जरूर कुछ शांत हो जाती हैं। लेकिन भिखमंगों का कार्यस्थल तो यही था। वे पेड़ों की छाया में शांतचित्त बैठे हुए थे — कोई गम न था , कोई चिंता न थी। शायद दुनिया का सबसे निश्चिंत वर्ग यही है। जो गिरा हुआ है, वह क्या गिरेगा ? इन्हें किसका डर? न ईश्वर का ,न समाज का ! अब जब भिखमंगी ही जीने की राह हो तो मुसीबत क्या होगी?
सीमा ने बैठे हुए भिखारियों की संख्या का अनुमान लगाया। खाना कम तो नहीं पड़ेगा;  बल्कि बच ही जाएगा। भिखमंगे ज्यादा नहीं थे।शायद देर होने से कुछ चले भी गए हों!
अक्षय ने लपक कर गाड़ी का बूट खोला तो सीमा ने पेपर प्लेट में खाना लगा कर एक भिखारी के आगे बढ़ाया। उसने आहिस्ता से ले लिया। फिर उसने दूसरी प्लेट लगाकर दूसरे भिखारी को बुलाया जो उसकी बगल में था। पता नहीं क्यों, उसने लेने से मना कर दिया। वह हाथ में प्लेट लिए आश्चर्य से भिखारी को देखती रह गई। अब वह क्या करे इस लगी हुई प्लेट का? तभी उसने देखा कि एक जवान औरत अपने तीन बच्चों को साथ लिये उसकी ओर चली आ रही थी।
सीमा के दिल में आशा जगी कि वह जरूर खाना लेगी। उसका सबसे छोटा बच्चा उसकी गोद में था। उसके कपड़े बता रहे थे कि वह भिखारी नहीं थी, लेकिन मजबूर ज़रूर दिखाई दे रही थी।लगता था बालों में कई दिनों से कंघी नहीं की गई थी। भूरे बाल बिखरे हुए थे। कपड़े मैले हो चुके थे। पास पहुँचते ही उस औरत ने अपने बच्चे को गोद से उतारा और खाना लेने के लिए दोनों हाथ आगे पसार दिए। सीमा ने प्लेट उसे पकड़ा दी। उसके खाना लेने के बाद उसके दोनों छोटे बच्चों ने खाना पाने के लिए अपने छोटे-छोटे हाथ ऊपर उठा दिए । सीमा के सामने थे हवा में उठे हुए चार गुलथुल हाथ, ऊपर की ओर उठे हुए दो मासूम चेहरे और चार खाली आँखें !
सीमा ने दोनों बच्चों के हाथों में प्लेटें थमा दीं। उस औरत का गोद वाला बच्चा माँ की प्लेट पर ही नज़र टिकाये हुए था। वह अपने  तीनों बच्चों के साथ एक ओर चली गई और जमीन पर बैठकर खाने लगी।
सीमा को कुछ दूर पर एक कुष्ठ रोगी दिखाई पड़ा। वह व्हील चेयर पर बैठा हुआ था और एक दुबली-पतली काली लड़की उसके पास खड़ी थी। सीमा ने एक प्लेट में खाना निकाला और उस ओर बढ़ चली। उसने कुष्ठ रोगी के पास पहुँचकर खाना आगे बढ़ाया तो उसने अपनी उजली पट्टी बँधी उंगलियों से नमस्कार किया और खाना लेने से मना कर दिया – बड़प्पन ओढ़ते हुए। सीमा के लिए यह अप्रत्याशित था। अब उसने जब वह प्लेट लड़की की ओर बढ़ायी तो उसने भी चेहरे को ना की मुद्रा में हिला दिया। सीमा गाड़ी के खुले बूट के पास लौट आई और उसने उस प्लेट को भीतर रख दिया‌। कुछ
भिखारी उसीकी ओर देख रहे थे। सीमा ने हाथ के इशारे से उन्हें बुलाया, लेकिन वे इस तरह ताकते रहे जैसे कुछ समझा ही ना हो। अब वहाँ के सभी भिखमंगों को भी लौटना था। लेकिन वे सभी दर्शक बने हुए थे और इस खेल को पूरा देख लेना चाहते थे कि अब इस नाटक के अगले दृश्य में क्या होता है?
धूप से सड़क अब तपने लगी थी। उस पर एक आइसक्रीम वाला अपनी गाड़ी   लुढ़काते हुए चला आ रहा था। व्हीलचेयर वाले कुष्ठ रोगी ने उसे रोका और उससे चाक-ओ-बार खरीदा। अब वहाँ अपने व्हील चेयर पर बैठा हुआ चाक-ओ- बार का आनंद लेने लगा। उसके साथ खड़ी लड़की ने भी आइसक्रीम का एक कप खरीदा और जीभ निकाल-निकाल कर चाटने लगी।

आइसक्रीम वाले की नज़र इधर पड़ी तो उसने देखा कि यहाँ तो आज भोज चल रह है। वह लपक कर गया और सीमा के सामने खड़ा हो गया। सीमा को अच्छा लगा कि चलो, कोई तो मिला खाने वाला! इतनी मेहनत की थी उसने सवेरे से! देशी घी का पुलाव बनाया था और स्वादिष्ट छोले, उस पर मिठाई! उसने आइसक्रीम वाले को खाना पकड़ा दिया। वह प्रेम से खाने लगा। सीमा सोचने लगी कि जो हाथ रोज सिक्कों के लिए सबसे आगे निर्द्वंद्व पसर जाते हैं, वे मोहताज नहीं हैं। मेहनत-मशक्कत करने वाले हाथों के लिए ही थालियाँ महंगी होती चली जा रही हैं।
धूप तेज होने लगी थी। सड़क से कई साइकिल सवार भी गुजर रहे थे। सब इस दृश्य को देखते हुए निकल जाते। कुरियर सर्विस के पत्रवाहक ने दूर से देखा तो समझते देर न लगी कि गरीबों को भोजन दिया जा रहा है‌। ऐसे भी इस सड़क के लिए यह नज़ारा आम था। उसने अपनी साइकिल धीमी की। एक मिनट तक खाते हुए इक्के-दुक्के लोगों को देखता रहा । उसकी आँखों में संकोच उभरा और मिट भी गया। दुविधा हट गई। अंत में खाना पाने के लिए वह सीमा की ओर बढ़ गया। सीमा के गले से जब तक यह बात नीचे उतरती कि यह भला-चंगा कुरियर वाला भी खाने के लिए आ पहुँचा है, तब तक उसके हाथ कुरियर वाले को पुलाव और छोले की प्लेट गाड़ी से निकाल कर थमा चुके थे। कुरियर वाला प्लेट लेकर पेड़ की छाया में चला गया और सड़क की ओर पीठ करके खाने लगा।
सड़क के किनारे कई कारें लगी थीं, जिनमें ड्राइवर बैठे हुए थे। सब अपनी ड्यूटी पर तैनात। कुरियर वाले को खाता देखकर एक ड्राइवर आया और नि:संकोच आगे बढ़कर खुले बूट के पास खड़ा हो गया। ‌ सीमा ने झट खाना निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया। फिर तो दो-तीन ड्राइवर और उतरे। ठक्-ठक् करके उन्होंने अपने पीछे कार के दरवाजे बंद किए और इस तरह खाना के लिए आकर खड़े हो गए जैसे इस खाने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया हो। आमंत्रित अतिथियों में भी कुछ संकोच रहता है‌। यहाँ तो सब जैसे अपना पुरस्कार प्राप्त करने के लिए आकर खड़े होने लगे थे । खाना मिला तो सब स्वाद ले-लेकर खाना खाने लगे ‌। उन्हें चाव से खाते देख थोड़ी दूर पर खड़े एक दो भिखारी धीमी चाल से चलते हुए पहुँचे – जैसे किसी मजबूरी में उन्हें खाना पड़ रहा हो।  उनके चेहरे पर आलस्य और अनिच्छा थी। भीतर-ही-भीतर कुढ़ती हुई सीमा ने उन्हें भी प्लेटें पकड़ाईं। खाना लगभग खत्म हो चुका था, पर थोड़ा बचा हुआ था, जिससे दो-चार जन अभी भी खा सकते थे। सीमा ने राहत की साँस ली कि चलो, किसी तरह आज का भोज खत्म तो हुआ। अब बचे हुए खाने को वह  डस्टबिन के हवाले करेगी। हो गया उसका शौक पूरा ! खिला चुकी वह भूखों को।अक्षय ने कार का  खुला बूट बंद कर दिया।
सीमा ने कार स्टार्ट की। थोड़ी ही दूर जाने पर एक बूढ़े ने हाथ देकर गाड़ी रुकवाई और लिफ्ट माँगी,” बिटिया, मुझे मालवीय नगर छोड़ दो।”
सीमा ने उस बूढ़े को ऊपर से नीचे तक देखा। गोरा चेहरा, चेहरे से वह अभिजात मालूम होता था । पर बदन पर पुरानी सफारी थी और पैरों में घिसी हुई चमड़े की चप्पल!  वाणी में शालीनता। बाल बेतरतीब।उम्र साठ से ऊपर ही होगी । शरीर की कद-काठी बता रही थी कि वह शरीर सुविधाओं में पल कर बड़ा हुआ होगा। पर विश्वास करना मुश्किल था। चेहरा हमेशा आचरण का आईना नहीं होता और आजकल तो इतने अपराध हो रहे हैं। कहीं यह अपराधी तो नहीं ? न जाने अपराधी किन-किन वेशों में घूमते रहते हैं ! गाड़ी में सिर्फ औरत और बच्चे को देखा तो लिफ्ट माँगने लगा। क्या पता गाड़ी में बैठने के बाद कनपटी पर रिवाल्वर तान दे ?
उसने कहा,”बाबा! मैं आपको पैसे दे देती हूँ। आप बस से चले जाइए।”
सीमा ने एक पचास का नोट उसकी और बढ़ा दिया। उसने अस्फुट स्वर में कहा , “छोड़ दो….।”
लेकिन उसका हाथ अनायास ही नोट के लिए आगे बढ़ चुका था। उसने नोट थाम लिया। सीमा इसे भी खाने के लिए पूछना चाहती थी, पर दूसरे ही क्षण सोचने लगी कि क्या पता यह अच्छे परिवार का हो और उसके प्रश्न से उसके स्वाभिमान को ठेस लग जाए? पर न जाने कैसे पूछ ही बैठी,”बाबा! खाना खाओगे क्या?”
अचानक इस अप्रासंगिक प्रश्न से वह चौंक गया। उसे लगा जैसे उसने कुछ गलत सुन लिया। बूढ़े ने पूछा , “क्या?”
“खाना खाओगे बाबा?”सीमा ने अपना सवाल दोहराया।
बूढ़े की आँखें इधर-उधर हवा में कुछ देख लेने और मामला समझ लेने की कोशिश करने लगी थीं। ओठ के दोनों तीखे कोनों में उजली-सी परत बैठी हुई थी ।ओठ सूखे थे। जीभ तालू से सटी-सी लग रही थी ।उसने अविश्वास में भरकर पूछा,”कहाँ ?”
“मेरे पास…गाड़ी में है ।… खा लो।” सीमा ने कहा।
सीमा ने देखा बूढ़े की बदरंग लज्जावर्त-सी पुतलियों वाली आँखों में खारे पानी की एक परत छा गई,जिसे छुपाने के लिए उसने आँखें दूसरी ओर फेर लीं। सीमा ने उतरकर खाना परोसा और उसके हाथों में थमा दिया। बूढ़े ने चुपचाप प्लेट थाम ली और खाना लेकर शांत कदमों से सड़क के किनारे चला गया । सिर झुकाकर खाने लगा।
सीमा के यज्ञ की पूर्णाहुति हो गई थी। यह कौन था? यह किसी का पिता होगा, जो सेवानिवृत्त तो हो चुका होगा ,पर स्वर्गवासी न हो सका होगा।

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परिचय : डॉ अंजना वर्मा की कहानियों की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियां निरंतर प्रकाशित होती हैं

संपर्क :  ई-102 ,रोहन इच्छा अपार्टमेंट, भोगनहल्ली, विद्या मंदिर स्कूल के पास
बेंगलुरु-560103
anjanaverma03@gmail.com

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