चरित्र
- मो नसीम अख्तर
नौकरी मिलने के कुछ ही दिनों के बाद मेरा तबादला टीकमगढ़ हो गया था। जहाँ हर तरफ क़ुदरती ख़ुबसूरती बिखरी पड़ी थी। मै अचानक शहर की भीड़ भाड़ से निकल कर हरियाली और रंग बिरंगे फूलों की वादी में आ गया था। आसमान, धुले हुए ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और पहाड़ों के बीच बहती हुई नदियाँ। देवदार के लम्बे लम्बे पेड़। बड़ा ही दिलकश मंज़र था वहाँ का। चारों तरफ हरियाली और उन हरियाली के दामन में बहुत सुकून जो दिल ओ दिमाग को भी सुकून देते थे। लेकिन उसके साथ ही घर वालों से दूर होने का दुख भी हो रहा था। कुछ उदासी भी छाई थी मुझ पर।
नई जगह, नए लोग। आफिस से घर और घर से आफिस, मेरी ज़िन्दगी सिमट कर रह गई थी। घर आफिस के क़रीब ही था।
आफिस से घर आकर घंटों खिड़की के निकट बैठकर मैं प्राकृतिक दृश्यों को निहारता रहता था। जब अंधेरा छाने लगता तो घर वालों की बहुत यादें दिमाग में घुमने लगती। इस तरह मैं यादों के आगोश में सो जाता।
एक दिन आफिस से घर वापस लौट रहा था तो रास्ते में एक बहुत ही खुबसूरत औरत को देखकर मेरे क़दम रुक गए। गोरी रंगत, लम्बे लम्बे बाल और बड़ी बड़ी हिरणों जैसी आँखें। मैं तो बस देखता ही रह गया। फिर अचानक पल भर में वो न जाने कहाँ ओझल हो गई।
फिर एक दिन शाम को बाज़ार में घुमते हुए अचानक उसे एक दुकान पर बैठा देखकर पुरानी यादें ताजा हो गई। दिल की धड़कन बढ़ने लगी थी। यही कारण था कि मैं हर दिन बाजार का चक्कर काटने लगा था। उसके खुबसूरत चेहरे में वो दिलकशी थी कि मैं खिंचा चला जाता था। दिल के अंदर जज़्बातों के तुफान उमड़ने लगे थे। उसके सर पर सिन्दूर की हल्की सी लकीर देखकर मुझे कुछ मायूसी भी हुई थी। दिल ने कहा था कि – अरे ये तो शादीशुदा है। फिर भी न जाने क्यों मेरा दिल उसे देखकर मचलने लगता। शादीशुदा है तो क्या हुआ? उससे शादी करने के बारे में तो मैंने सोचा भी नहीं है।
“मेरे इस तरह बार बार ताकने झाँकने से वो क्या सोचती होगी? अगर उसने मुझसे बात करने से इंकार कर दिया तो? खैर ये तो बाद की बात है। पहले उससे बात करने की कोशिश तो कई जाए ” तरह तरह के ख़्यालात मेरे दिमाग में घुमने लगे थे। मैं कशमकश की हालत में पड़ गया था।
दिल में उठते हुए जज़्बात को जितनी बार भी दबाने की कोशिश करता, वो और भी भड़क उठते थे। खुशकिस्मती से एक दिन अचानक आफिस में हम एक दूसरे के आमने सामने हो ही गए।वो मेरे विभाग में किसी काम के सिलसिले में आई हुई थी। मैंने बड़ी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया। वो भी जवाब में मुस्कुराई थी। फिर काम खत्म होते ही वो वहाँ से चली गई थी। मेरे दिल में अरमानो का एक समुन्दर उमड़ने लगा था। न जाने उसमें कौन सा चुम्बकीय खिंचाव था, जो मुझे अपनी ओर खींच रहा था। जज़्बातों से बेकाबू होकर मैं उससे सम्पर्क कायम करने के बारे में सोचने लगा। मैं बार बार अपना मोबाइल हाथ में लेकर उसे कुछ मैसेज भेजने के बारे में सोचने लगा। लेकिन अफसोस उसका नम्बर तो मेरे पास था ही नहीं। शाम को बाजार घुमने निकला तो उसकी दुकान पर गया और कुछ सामान खरीदने के बाद उसका मोबाइल नंबर माँगा।नम्बर देते हुए वो कुछ घबराहट महसूस कर रही थी उसी वक्त किसी ने अंदर से आवाज दी और वो चली गई। मैं भी वहाँ से रफुचक्कर हो गया।मैंने अपनी जज़्बात को मोबाइल में टाइप करने के बाद उसे भेज दिया।
वो मेरा मैसेज पढ़कर क्या सोचती होगी? यही न कि ये किसी मनचले की शरारत है…..नहीं ……नहीं ……अब भी बेवकूफो की कमीं नहीं है । शायद उसने मैसेज पढ़कर डिलीट कर दिया होगा या दूसरे मैसेज का इन्तेज़ार कर रही होंगी। ओह… दिल में तरह तरह के ख्याल आते रहे।
आफिस में लंच के वक्त मैं कैंटीन की ओर जा रहा था, पीछे से किसी खातुन की आवाज़ सुनाई दी, मुड़कर देखा तो वो मुझे ईशारे से बुला रही थी। उस वक्त मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन सरकती हुई महसूस हुई। अब तो रुकने सिवा कोई चारा न था। वो बोल पड़ी।
“आप ही ने मैसेज किया था? ”
“जी हाँ ”
“तो फिर घबरा क्यों रहे हैं? ”
“नहीं……. नहीं ……..ऐसी कोई बात नहीं है ”
“तो फिर कैसी बात है? ”
“बात कुछ भी नहीं है ”
“कुछ तो ज़रूर है? ”
“बस आप मुझे अच्छी लगती हैं। ”
“अच्छा लगना कोई बुरी बात तो नहीं है? ”
“शायद आपको मालूम हो। ”
“अगर शरारत और बुराई मालूम हुई तो यक़ीनन आप क़सूरवार होंगे। ”
” आप यहाँ कितने दिनों से हैं? ”
“दो महीने से। ”
” घर की याद तो आती ही होगी? ”
” हाँ ”
उसके बाद वो घर की ओर चली गई और मैं भी अपने डेरे की तरह चल पड़ा। कमरे में आया तो दिल के अंदर एक तूफ़ान सा मचलने लगा था।कहीं कोई गलती हो गई तो फिर खैर नहीं। लेकिन मेरे उस मैसेज में कोई गलत बात नहीं थी।
किसी को चाहना या किसी की ख़ुबसूरती की तारीफ करना बुरी बात तो नहीं है। मगर दूनिया में किसी को किसी से लगाव न हो तो ये दूरियां बिल्कुल वीरान सी नज़र आएगी। परिंदे और जानवर भी एक दूसरे को चाहते हैं, आपस में मुहब्बत करते हैं। मैं तो इन्सान ठहरा।
हर दिन की तरह आज भी बाजार गया, उसकी दूकान से नज़र बचाकर निकलने की कोशिश कर ही रहा था कि अचानक आँखें चार हो गई और आहिस्ता से उधर ही चला गया।
“आईए…… आईए आप पिछले दरवाजे से अंदर आ जाईए, मेरा घर भी यहीं है। ” उसने कहा।
“ओ के “कहकर मैं घर में दाखिल हो गया। दूकान पर किसी लड़के को बैठाकर वो मेरे लिए चाय बनाने लगी। मैंने चाय के लिए मना किया फिर भी वो चाय लेकर आ गई।
“आप समझ ही गए होंगे कि मैं शादीशुदा हूँ। ” उसने चाय की प्याली मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा। “इसलिए आप किसी ग़लतफ़हमी में न रहें। हिन्दूस्तानी औरतों का पति और उनका परिवार ही उसकी दूनिया होती है। आपका यहाँ आना मेरे लिए खुशी की बात है, लेकिन सोच समझ कर क़दम उठाइएगा। ”
“मुझसे कोई ग़लती हो गई तो…. “मैंने घबरा कर पुछा।
“नहीं…. अभी तक तो सब कुछ ठीक है। मैं आपसे कुछ मदद चाहती हूँ। उसने कहा ”
” मुझसे? ”
” हाँ ”
” मैं क्या मदद कर सकता हूँ? ”
“बात ये है कि मेरे पति दूसरे मुल्क में नौकरी करते हैं, उन्होंने वहाँ किसी लड़की से सम्बन्ध बना लिया है। उन्हें छोड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं है। हाँ, मैं उन्हें सीधे रास्ते पर लाना चाहती हूँ। आपसे इसी सिलसिले में कुछ मदद लुँगी। “उसने पुरी बात बता दी।
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परिचय : मो नसीम अख्तर की कई कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है
संपर्क – मोग़लपुरा, जग्गी-का-चौराहा
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