मृत्युंजया
– प्रतिभा चौहान
पहली मुलाकात के चंद महीनों बाद …एक जाड़े की अंधेरी रात; वैभवी बड़े बड़े कदमों से भागी थी, डर था कि कहीं उसे कोई देख न ले। तेजी कुछ इसलिए भी ज्यादा थी कि उसके पति की आत्मा का पिशाच पीछे दौड़ता सा नजर आ रहा था , अंधेरे में एक हाथ में एक कपड़े की अटैची जिसमें कुछ गहने कपड़े; उबड़ खाबड़ रास्ते पर नंगे पाँव, दिशाहीन सी आशाओं और उत्कंठाओं का ज्वार लिए चल दी थी वह लड़की, दिल की धड़कन थी कि कान के पर्दे पर धक-धक की दस्तक दे रही थी, दरवाजा खोल दे तो शायद अपने ही अतीत से मुलाकात हो जाए ; मन तार्किक हो चला ; समस्त सामाजिक बंधनों को जो अब उसे ज्यादा मलिन और कठोर लगने लगे थे, को तोड़ने को आतुर था। शायद आज से पहले जीवन में इससे बड़ा फैसला नहीं लिया होगा दोनों खानदानों में से किसी भी शख्स ने। वह किसी भी तरह अपने लिए गए निर्णय को सही ठहराने के लिए तरह-तरह के तर्क केतंतुओं से ताना-बाना बुनती और उसकी छत्रछाया में स्वयं को महफूज रखने का स्वांग रचती। परंतु वह करती भी तो क्या ; मां बाप की नन्ही सी दुलारी विवाह के पवित्र बंधन में बंधने के बाद ज्यादतियों की शिकार हो गई। पति आला दर्जे का अफ़सर, परंतु व्यवहार सूखे रेगिस्तान में किरकिरी आँधी और नागफनी जैसा। घोर उपेक्षा ,मारपीट, गाली-गलौज से बेहद तंग आ चुकी थी ; इसी शहर में पली-बढ़ी, खेली-कूदी; शहर की सरहदों को पार करना किसी उफनाई नदी की बीच धारा में से होकर गुजरना था।
उस दिन कोहरे की चादर बेतरतीब रुई के फाहों सी त्वचा को कार के शीशे की पतली सी सेंध से सहला रही थी. अंधेरी रात और कोहरे की सफेदी ने पूरे शहर को सुरमई बना दिया था। सिर पर एक नई जिंदगी के सपने और नई उड़ान का भूत सवार था। अतीत की तंग गलियों में खो जाने के दोहराव की डरावनी सोच उसको चुभती सी लगती। सोचना ही नहीं चाहती वह। भीतर ही भीतर मचे घमासान को अपनी मुस्कुराहट से दबा देती या दबाने का असफल प्रयास करती।
“तुम ठीक तो हो’’ मानिक ने उसके सिर को अपने सीने पर टिकाते हुए पूछा
“हम्म’’, उसने धीरे से सर हिलाया
कार से उन्हें रेलवे स्टेशन तक की यात्रा करनी थी। उसके बाद फिर दिल्ली। उसमें दो आदमी और बैठे थे, अन्जान लोगों के साथ अन्जान यात्रा। एक ओर अंतरमन के भीतर तक मचने वाली उथल पुथल में मानिक को किसी खांचे में फिट करने की नाकाम कोशिश तो दूसरी ओर अंग अंग से चिपकी दो मासूमों और मां-बाप की यादों को लहूलुहान करती बेहिसाब चीखें भीतर ही भीतर घुट-घुट कर ठहर जातीं।
एकबारगी एक भीतरी आवाज आई, जिसे अक्सर सही गलत का फैसला करते वक़्त इंसान दबा दिया करता है – “अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है दो मासूमों की जिंदगी बचा लो ; ऐसे रिश्तों को समाज की नफरत नसीब होती है ,तेरा खून तुझ से नफरत करेगा, तुझे कभी माफ नहीं करेगा। एक छोर से वैभवी विचारों के भंवर में डूबती चली जाती, और झट से फिर दूसरे छोर पर आ गिरती जिसमें पति और ससुरालिया खानदान की दर्जनों आंखें उसे घूरती , तो तीसरे सिरे पर मां बाप का विलाप मासूमों की मासूमियत और आँसू उसके मन को छलनी कर लहूलुहान कर देते।
एक यात्रा खत्म तो दूसरी शुरू। रास्ता उसी ने चुना था। कांटो वाला ,उबड़ -खाबड़ , पथरीला और अन्जान। जैसे ही मानिक ने उसकी नरम हथेलियों को अपने हाथ में लिया तो वह पलक झपकते ही भूत से वर्तमान में प्रवेश कर गई,
“किस उधेड़बुन में हो रेशमा” मानिक ने वैभवी का प्यार का नाम रेशमा रखा था। जब भी वे अकेले होते तो वैभवी को इसी नाम से पुकारा करता था।
मन का एक कोना शुष्क और घायल तो दूसरा फूलों सा रंगीन, नरम और नमी वाला लगता। दोनों एक दूसरे के धुर विरोधी। मानों दोनों आपस में मिल जाए तो दोनों खत्म। भविष्य किस ओर टिका था पता नहीं। दुनिया में हर आदमी भागता नजर आ रहा है। वैभवी ने कनखियों से मानिक के चेहरे की खुरदरी त्वचा पर अपनी निगाहें टिका दी जिसमें वह दुनिया की सारी नर्मआहट महसूसती थी। अपने हाथों की उंगलियों को उसकी उंगलियों के बीच फँसाया ही था कि मानिक ने उन्हें कस के भींच लिया। दोनों हाथों में हाथ लिए बैठे रहे , गाड़ी स्टेशन पहुंच गई।
मानिक ने पीछे की सीट पर से हाथ बढ़ाकर एक पॉलिथीन बैग उठाया जिसमें काले रंग की एक पोशाक थी ‘’इसे पहन लो”
कार के भीतर ही बुर्का पहनकर वह बाहर निकली और पीछे पीछे चल दी। कम घेरदार पोशाक में पाँव बार-बार लड़खड़ा जाते। रह रहकर वह खुद को संभालती , बुर्का घुटनों तक उठा कर चलने लगती , कभी नकाब हटाती तो कभी बुर्का उठाती। मानिक ने उसकी परेशानी का सबब जानते हुए उसे हाथ का सहारा देकर गाड़ी में चढ़ाया। सेकंड क्लास एसी में साइड बर्थ पर परदे के पीछे वह छुप गई। पोशाक उतारकर बगल में रख, बालों को करीने से लगाया। मुलायम बालों की लट चेहरे पर बार-बार झूल जाती। मुस्कुराते हुए वह हर बार उन्हें कान के पीछे कर देता। वह एकदम शांत चित्त अवस्था में बैठा था , वहीं वह संपूर्ण रूप से अशांत। डिब्बे की काफी सीटें खाली थीं , निगाह दौड़ाई तो दूर एक जोड़ा नजर आया जो अपने में ही रमा हुआ था. वह उसकी आखिरी मुस्कुराहट थी जब वह उस जोड़े की तरफ आंख से इशारा करते हुए मुस्कुराया था। रात काफी हो गई जागते जागते पता नहीं वह कब सो गई पता ही ना चला। सुबह चाय वाले की आवाज से आँख खुली। वह उठ बैठी , देखा मानिक पाँव के पास अधसोई हुई मुद्रा में दाहिनी तरफ सर टिकाये हुए बैठा था।
“अपनी सीट पर नहीं सोए”
“तुम्हें अकेले छोड़कर कैसे जाता”
वैभवी ने उसका हाथ पकड़ कर चूम लिया।
रेलगाड़ी सभी मानसिक भौतिक सरहदों से पार होकर नई दुनिया में आ चुकी थी। स्मृतियों को जमींदोज़ करते हुए अलसाई सी उठी। बाल ठीक किए ,चप्पल पहनी और बुर्का डालकर सामने अटैची लिए जाते हुए अपने स्वामी की अनुगामी बन गई। उसकी निगाहें मानिक के कंधों पर चली जाती तो कभी पीठ पर होती हुई पैरों पर और कभी स्टेशन के बाई या दाहिनी तरफ, सीधे उसके पीछे पीछे चलती रही। उतरते वक्त मानिक ने सीढ़ियों पर हाथों का सहारा दिया, फिर दोनों बाई तरफ की सीढ़ियों पर उतरते हुए दाहिनी ओर मुड़ी हुई पीली पट्टीद्वार रास्ते पर चलते हुए बाहरी द्वार पर खड़े हो गए। तभी एक आदमी आया उसने अटैची पकड़ी…
“अरे-अरे” वैभवी बोल पड़ी
मानिक ने बीच में टोका, “यह अपना आदमी है
वह चुप हो गई।
‘’खाओगी कुछ”
‘’ नहीं”
‘’कुछ खा लो”
‘’नहीं अभी भूख नहीं है”
‘’ ठीक है”
एक काली बड़ी सिक्स सीटर गाड़ी सामने आकर रुकी दोनों उसमें बैठ गए। वैभवी ने आरामदायक सीट पर अपनी पीठ टिकाई और एक गहरी सांस ली। उसे बहुत अच्छी तरह याद है कि पूरे रास्ते में वह एक बार भी नहीं मुस्कुराई थी और न ही उसने अपने होठों को खोला। जैसे ही वह स्मृतियों के भंवर में नीचे उतरती मानिक किसी न किसी हलचल से उसे उबार लेता । वह सारी यात्रा में अपनी आंखों का इस्तेमाल करती रही।
बैठे-बैठे उसने एक बार फिर गौर से मानिक की ओर देखा उसकी नजरों में प्रेम और संदेह का मिश्रण था . कहीं अपने प्यार को संपूर्ण रुप में जी लेने की ललक और तड़प तो दूसरी और संदेह के नुकीले दंश। विश्वास पर ही विश्वासघात होता है न ! संस्कारों की तिलांजलि देने का कुछ मूल्य उसे मिलेगा अथवा नहीं वह नहीं जानती थी,; उसके फैसले ने उसके चरित्र को दरकती हुई चट्टान बना दिया; सास ससुर की झिड़कियों, पति के रूखे व्यवहार और मां-बाप के लापरवाह नजरिए ने उसका जीवन सूखा हुआ दरिया हो चला था , जिस में नमी लाने का काम किया मानिक ने, बगल का पड़ोसी हट्टा कट्टा अविवाहित नौजवान ,जिनकी गुजर बसर छोटी सी सिलाई की दुकान से चलती थी। उसे कब, कैसे, कहां और क्या हो गया पता ही न चला… फिर अपने अतीत के समुंदर में गोते लगाने लगी…
बचपन की एक ग्रीष्म ऋतु में मां चल बसीं और अगले ही साल पिता का साया सर से उठ गया। बचपन में ही भाग्य द्वारा उसके सबसे अनमोल पल छीन लिए गए। पुराने घर में नीरस लंबे दिन काटे नहीं कटते, सारा वातावरण उदास और भारी लगता। विषाद के मौसम में लगभग सारा वक्त मुंह लटकाए गुजर जाता ,हालांकि घर में एकलौते भाई और भाभी ने उस का साथ कभी नहीं छोड़ा , पर माँ बाप की कमी तो भगवान भी पूरी नहीं कर सकते। समय के साथ उनको भी वह भारी लगने लगी। उस वक्त उसकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष की ही थी जब उसका विवाह एक दूरस्थ देहात में कर दिया गया संयोग से दो वर्ष बाद ही उसके पति सेना में एक बड़े अधिकारी हो गए। पूरा गांव खुशी से झूम उठा सास ससुर सारे नाते रिश्तेदार यह कहते नहीं थकते कि उनके पुत्र ने गांव का नाम रोशन कर दिया। अगले ही साल मार्च के महीने में आखिर वह दिन आ गया जब पति को बीवी और बच्चे को छोड़कर बाहर जाना पड़ा। परंतु वैभवी के विषाद में और अशांत हृदय में कोई भी खुशी की कोपल ना फूटी। लोग कहते वह सूख कर कांटा हो गई है। जब से वह अपने ससुराल आई किसी ने भी उसे प्यार न दिया। उदास बचपन से वह अवसाद की जवानी में पहुंच गई। न ही उसकी किसी को फ़िक्र थी ना ही कोई परवाह। उसके सपनों की दुनिया का गला उसी दिन घुट गया था जिस दिन उससे वर्ष बड़े व्यक्ति से उसकी शादी कर दी गई थी वह न इनकार कर सकी, न ही वर्षों तक स्वीकार ही कर सकी। चुपचाप जो कुछ हो रहा है उसे सहते जाना उसने अपनी नियति मान लिया और मां बाप का साथ ना होना उसका पुराना अनुभव था। दिन-महीने-वर्ष गुजरते गए इसी बीच वैभवी ने दो खूबसूरत जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया।
एक रोज अचानक शाम को मानिक वैभवी के पति से मिलने आया उसका चेहरा एक झलक देखने के बाद वैभवी के दिलों दिमाग में उथल-पुथल मच गई…
“परेशान लग रही हो”,उसने बड़े सधे अंदाज में पूछा
वैभवी जैसे नींद से जागी , नहीं के रूप में सर सिला दिया। गाड़ी हवा से बात कर रही थी , मानो वे अपराधी हों और पुलिस पीछे पड़ी हो। रात की ठंडी हवा को चीरती हुई कार न जाने कौन से लक्ष्य की ओर बढ़ी जा रही थी। कार में दो तीन लोग और बैठे थे दिखने में देहाती थे ; अजीबोगरीब लहज़ा था आपस में बात करने का।
हजार तरह के सवाल दिल में बार बार दस्तख़ देते ,अभी घर छोड़े हुए एक दिन भी न बीता था कि अपने किए पर पछतावा शुरू हो गया . बार-बार मन में ख्याल आता कि शायद बहुत बड़ी गलती कर दी। पर अब हो भी क्या सकता था जो होना था हो चुका। घर-बार छूट चुका था; दो छोटे बच्चे और मां बाप से नाता टूट गया था ; करती भी क्या घुटन भरी जिंदगी से घबराकर ही तो उसने ऐसा फैसला लिया था ; आखिर कौन था जो उसकी बात सुनना चाहता था ;सभी तो उसे नजर अंदाज किया करते थे। सालों साल उसने जहन्नुम से जिंदगी में बिता दिया। कभी दो मीठे बोल भी पति की तरफ से सुनने को न मिले। सास ससुर ने तो जैसे उसे अपनी बेटी समझा ही नहीं था कोई किराए की नौकरानी से ज्यादा तवज्जो कभी नहीं मिली। अगल बगल के लोग ताका झांकी करते और संवेदनात्मक नजरों से उसकी तरफ देखते और फिर अपनी राह चले जाते हैं उस चारदीवारी के भीतर उसकी इच्छाओं ने, अभिलाषाओं ने महत्वाकांक्षाओं ने हमेशा हमेशा के लिए दम तोड़ दिया था। वह आजाद होकर आकाश में उड़ना चाहती थी एक स्वच्छंद पंछी की तरह जिसे अपनी उड़ान अपनी सीमाओं अपनी दिशाओं सभी पर खुद का नियंत्रण होता है और वह स्वयं का निर्धारणकर्ता होता है। इन सभी बातों ने वैभवी को कहीं भीतर तक तोड़ दिया था वह एक अधिकारी की पत्नी होने के साथ-साथ दो मासूम बच्चों की मां भी थी ,परंतु मानसिक प्रताड़ना के कारण , वह शारीरिक रूप से भी वह स्वयं को एक कैदी के रूप में ही महसूस करती थी। साल में दो बार पति को छुट्टियां मिलती परन्तु सामने रहते हुए भी आपस में बात न होती,उसके समय पर उसके साथ ससुर का अधिकार रहता है बचा कुचा समय बच्चे बांट लेते हैं और वैभवी के हिस्से में आती सिर्फ पति सेवा और भीड़ की तन्हाई । एक पत्नी का सुख क्या होता है उसने कभी जान ही नहीं पाया। तभी तो बगल के एक नौजवान में उसने वह सब कुछ पा लिया जो कहीं न कहीं उस के मस्तिष्क और हृदय को शीतलता प्रदान करता था। वह पर पुरुष न ही उसके अपने पति से खूबसूरत और न ही उसके पति से ओहदे में ऊपर था परंतु उसके भीतर एक चीज थी वह थी वैभवी के लिए तड़प। उस नौजवान ने वैभवी को अपने व्यवहार से बस में कर लिया था वह उसकी इच्छाओं की कठपुतली बन चुकी थी किसी दबाव से नहीं बल्कि स्वेच्छा से। यही बातें वैभवी के दिमाग में लगातार चक्कर काट रही थीं कि अचानक से सड़क पर एक गड्ढे के कारण गाड़ी उछली और वैभवी की तंद्रा भंग हो गई। मानसिक विचरण से दूर हट यथार्थ में आ पहुंची थी गाड़ी अब रुकने वाली थी उस नौजवान ने वैभवी से सारा सामान संभालने को कहा।
गाड़ी रुकी ; दोपहर हो चुकी थी ,वह काले बुर्के में लिपटी हुई लड़खड़ाती हुई सी उतरी और झट से सामान सहित उतर कर मुख्य सड़क से निकली हुई एक पतली सड़क से आगे एक गली की ओर जल्दी जल्दी मानिक का पीछा करते हुए बढ़ने लगी। बड़ी ही तंग गली थी और बहुत पुराने मकानों की दीवारों की चिनाई और बसावट ऐसी प्रतीत हो रही थी मानों वे मकान सदियों पहले बनाए गए हों. उनके बाहर निकले हुए छज्जे जो मोटी लकड़ियों के सहारे टिके हुए थे और हर लकड़ी के मुंह पर किसी न किसी जानवर की आकृति बनी थी दरवाजों के ऊपर आले बने हुए थे। मोटी दीवारों में फूल पत्तियों की कारीगरी दिखाई दे रही थी ;पतली गलियां बीच में उभार लिये एक तरफ को ढलकी हुई सी कभी दाएं कभी बाएं तरफ मुड़ने वाली सर्पिलाकार गलियां ; एक अजीब सी महक उन गलियों में थी जो कहीं न कहीं उनकी उदासी और बासीपन जैसा अनुभव दे रही थी, मानों सभी नैतिक मान्यताएं यहाँ आकर दम तोड़ चुकी हों। इक्का-दुक्का बच्चे गिल्ली डंडा खेलते हुए उस गली में नजर आए गंदली गलियों में अर्धनग्न अवस्था में कुपोषण के शिकार जैसे बच्चे शोर शराबा मचाते हुए दिख रहे थे। खेल खेल में एक दूसरे को स्त्री सूचक गंदी गालियां दे रहे थे, जिससे उनके माहौल के स्तर का पता चल रहा था।
मानिक ने दो सीढियाँ चढ़कर एक घर के दरवाजे की कुंडी बजायी। पुराने जीर्ण शीर्ण दरवाजे के भीतर से एक अधेड़ उम्र की महिला निकली जिसने हरे रंग का सूट पहना हुआ था। पान चबाती हुई बेतरतीब बालों वाली अजीब सी लग रही थी। बाल बिखरे हुए तथा पेट निकला हुआ; बड़ी ही बेअदबी से हाथ बढ़ाकर वैभवी से बोली, ‘’ आजा बेबो तू तो करिश्मा कपूर है, चल अंदर चल’’
यह कैसा स्वागत है? विरक्ति के कसैले स्वादों से उसका मन भर गया
भीतर जाकर वैभवी के पैरों तले जमीन खिसक गई वहां बहुत सारी महिलाएं उस से छोटी -बड़ी उम्र की बैठी थी। वे अजीब दृष्टि से उसे देख रही थी उनमें से एक मुस्कुराते हुए अपनी उंगली से बालों की दाहिनी लट के छल्ले बनाती गुजर गयी, लहराती सी ,पूरी माहौल में रमी हुई सी।
सारे अजनबी चेहरे दो चार औरतें और बहुत सारी लड़कियां कुछ नाज़ुक तो कुछ भरे बदन की सब की सब इकट्ठी बैठी बैठी हंसी ठहाके मरती हुई , सारी दुनिया से बेखबर तमाम जद्दोजहद में जीतीं , एक नक़ली मुस्कुराहट के साथ , इक अलग सी नस्ल ईज़ाद करती हुई सी सजी धजी छबीलियाँ। एक चीज सब में समान रूप से थी वह था उनके चेहरों का मरा हुआ पानी। वे सब की सब लाज शर्म की उघड़ी हुई ओढ़निया थीं। वह मकान जिसमें वैभवी अभी-अभी प्रविष्ट हुई थी ,मकान वाली खूबसूरती को अपने कुकृत्य से पैरों तले रौंद चुका था। उसमें भीतर से अलग तरह से कंस्ट्रक्शन किया गया था शायद बार-बार बिना खिड़कियों वाले छोटे छोटे कमरे जिनमें दरवाजों की जगह मोटे मोटे पर्दे लगे थे। बाहरी तरफ एक अपेक्षाकृत थोड़ा बड़ा कमरा था, जिसमें शायद औरतों का मोल तोल होता होगा। घुटन भरा छोटा सा आंगन जिसमें जितनी औरतें उतनी ही मर्दो की आवाजाही जैसे दुनिया के भूखे यहीं पड़े हों , शराब की गंध पेशाब की गंध से कहीं ज्यादा खारी और उसमें रहने वाली ये लुटी पिटी नुची हुई औरतें, छिः शमशान भी ज्यादा अच्छा होगा यहां से…उफ़ !
मन की हुड़क , तुरंत यहां से भाग जाए ,परंतु वह करती भी क्या ? वहाँ के नज़ारे ने उसे समझा ही दिया, वह कहाँ है। आखिर उसने यह रास्ता खुद चुना था। उसने पीछे पलट कर देखा परंतु तब तक मानिक जा चुका था।
उस महिला ने वैभवी से बैठ जाने को कहा, ‘’ थक गई होगी कुछ आराम कर लो और कुछ खा भी लो’’ वैभवी ने लाल आँखों और गुस्से से सिर हिलाया। सब कुछ अजीब सा था ;घर के अंदर बैठी लड़कियां ;उनके हंसने का ढंग ;पोशाकें; हाव भाव सब कुछ। पर वह कुछ बोल न सकी। काफी देर चुपचाप बैठी रही। खाना पीना और आराम उसके लिए अब पाप था। वह अधेड़ महिला फिर से वैभवी के सामने मुखातिब हुई,’ ‘’कुछ खा लो कब तक भूखी बैठी रहोगी‘’ वैभवी ने बहुत ही धीरे से सर उठाया और उस महिला को घूरा और घूरती ही रही जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गयी।
परंतु वैभवी के दिल में बेचैनी का गजब आलम छाया हुआ था। अपने आपको उसने बहुत ठगा ठगा महसूस किया परंतु अब वह कर भी क्या सकती थी। आखिर आग में पावं पड़ ही चुका था, बस जलना बाकी था ,उसने देखा कुछ लड़कियां काफी सजी-धजी नए-नए गानों पर थिरक रही थी। ऐसा लगा जैसे कि किसी कार्यक्रम की रिहर्सल चल रही हो। वह अधेड़ महिला मुस्कुराते हुए बोली,’ बेबो, यही काम तो तुम्हें करना है। तुम यहां मर्दों का मनोरंजन करने के लिए लाई गई हो। समझी। ‘
वैभवी के दिमाग में लाखों सुईयां चुभने लगीं वह गश खाकर गिरने ही वाली थी की दीवार का सहारा लेकर टिक गई। ऐसी कहानियां तो उसने फिल्मों में और टीवी में देखी थी क्या पता था कि एक दिन उसकी भी कोई कहानी बन जाएगी।
पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी थी दिल जोर-जोर से धड़कने लगा था वह चाहती थी कि जमीन फट जाए और वह उस में समा जाए। पर अब ऐसा कहां होने वाला था न जमीन फटी ना वह उस में समाई। आंख में कोई आंसू भी नहीं आया ऐसा लगा कि जैसे इतनी बड़े धोखे और अंधविश्वास के लिए शायद उसके आंसू पर्याप्त न थे।
उसे एक बहुत छोटा सीलन भरा अजीब सी गन्दी महक वाला कमरा सोने के लिए दिया गया ,और एक प्लेट में खाना माहौल ने खाने को भी बदबूदार बना दिया था। वह यूं ही पड़ी रही ,घबराई , पछतायी सी… एकदम लाचार।
तभी कुछ लड़कियां उसके कमरे के बगल से जाती हुई नजर आयीं वह जानबूझकर दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई ताकि कुछ बात कर सके। लहराती लड़कियां ज्यों उधर से गुजरी दिल में एक हूक सी उठी कोई पूछ ले मुझसे,’’ तकलीफ तो नहीं’’, आंखों में आंसू आ गए, वह किस चीज को तकलीफ कहे और किस को ना कहें। उसकी परेशानी और मानसिक स्थिति को देखते हुए वे लड़कियां संजीदा हो गई ,’’ देखो जब हम यहां आए थे तब हमारा भी यही हाल हुआ था हमने यहां से भागने की बहुत कोशिशें की हम सफल भी हुए परंतु जब हम अपने घर पहुंचे तो हमारे परिवार वालों ने हमें पहचानने से इंकार कर दिया। नसीब की लाचारी ने हमें फिर वापस इसी दलदल में लाकर डाल दिया है, आगे तुम बहुत समझदार हो खुद समझ सकती हो’’ लड़कियां वहां से चली गई। वह जितना हाथ पांव मारती उतनी ही खुद को दलदल में घुसता हुआ महसूसती , सिर्फ गर्दन बची थी मरना बाकी था। अचानक कोख जाये मासूमों की याद आने लगी। वृद्ध सास ससुर को भी उसने आज बहुत याद किया। छोटे से बिस्तर पर सीधे औंधे मुँह गिर पड़ी। अंधेरे के आगोश में अपना मुंह छुपाए सिसकने लगी। पलंग के पैतियाने पड़ी चादर की ओर हाथ बढ़ाया तो याद आया कि वह कुछ सामान भी ले कर आई थी,हड़बड़ाई सी उठी और कमरे के बाहर भागी परंतु रात के अंधेरे में कुछ समझ में नहीं आया। अजीब सा ऊंची दीवारों वाला काल कोठरी का सागर इसमें शायद सभी लोग अपने दरबों रूपी कमरों में समा चुके थे। मनहूस सन्नाटा पसरा हुआ था बाहरी दरवाज़ा बड़ी झनझनाहट के साथ खुला और अंदर जाने के निर्देश के साथ ही बंद हो गया ,बेचारी उल्टे पांव बिस्तर पर आकर गिरी । कोई आँसू नहीं बहा। यह धोखा आत्मा पर खरोंच जैसा था, जिसने भीतर तक लहूलुहान कर पूर्णतः जख़्मी कर दिया था और वह तिल तिल मरने लगी; भौतिक वजूद पर वक्त की छुरी चल ही चुकी थी बस आत्मा का मरना बाकी था।
रात गहरा गयी ,चाँद दुनिया को रौशनी लुटा रहा था …पर नींद कहां !
रात्रि के शमशान से सन्नाटे में आग लग गयी , अचानक बहुत शोर गुल होने लगा, लोगों की भागने की आवाज़ें सुनाई देने लगी अचानक से बाहर मोटा परदा हटा कर देखा सभी छोटे छोटे लाल बत्तियों वाले कमरे खुले हुए हैं और बीच आंगन में पुलिस भद्दी भद्दी गलियां बरसाती हुई ; कुछ लड़कियां अपना दुपट्टे से मुंह बांधकर पुलिस के पास में खड़ी थीं और कुछ बाहरी दरवाजे से भागने में सफल हो गई। दो नौजवान भी पकड़े गए। पुलिस शर्ट का कॉलर पकड़कर थप्पड़ लात घूंसे मुक्कों की बौछार के साथ शिनाख्त-पूछताछ कर रही थी कि बता तेरे और साथी कहां है और कितने लोग तेरे साथ काम करते हैं ,तेरे धंधे का मुखिया कौन है बगैरह बगैरह। वैभवी घबरा गई अचानक से एक महिला पुलिस कांस्टेबल ने उसके बाल पकड़कर उसको आंगन की तरफ धक्का दिया।
‘’चल आगे चल कौन-कौन तेरे साथ है जल्दी सबके नाम बता”
बेचारी वैभवी तो उस इलाके से भी वाकिफ नहीं थी किसी का नाम जानना तो बहुत दूर की बात थी। वह रोने लगी , ‘’मुझे कुछ नहीं पता मुझे खुद धोखे में रखकर यहां लाया गया है”
‘’बहाने अच्छे बनाती है चल गाड़ी में बैठ थाने में तेरे नखरे देखेंगे” महिला पुलिस कांस्टेबल बोली
सभी पकड़ी गई लड़कियों को और उन नौजवानों को भेड़ बकरियों की भांति धक्का देते हुए गाड़ियों में भरा गया और उसके बाद उन्हें थाने लाया गया। काफी धुना गया पूछताछ से पूर्व। मारपीट मशक्कत के बाद भी वैभवी न कुछ जानती थी न कुछ बता पाई। अंत में थक हारकर महिला कांस्टेबल ने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया, ‘’सर बहुत मजबूत है ये छोकरी कुछ भी बताने की तैयार नहीं ;कुछ और तरीका इस्तेमाल करना होगा सर ‘’
‘न रहने दो , छोड़ दो ,’ दरोगा ने कहा
उसे शक हुआ अभी हाल ही में एक प्रतिष्ठित परिवार के व्यक्ति ने अपनी पत्नी के गुमशुदा होने का एक सनहा दर्ज कराया था। फटाफट दस्तावेज खंगाले गए, फोटो पहचान पत्र से मिलान कर वैभवी के घरवालों को टेलीफोन पर सूचना दी गई। घरवाले दौड़े दौड़े पुलिस स्टेशन की ओर पहुंचे। पहचान के लिए बच्चे भी साथ में लाए गए थे। परिवार के सभी व्यक्तियों को थाने में देखकर भैरवी मन ही मन घबराने लगी। दुपट्टे से मुँह छुपाते हुए दीवार के कोने में चिपक गयी। पति की बड़ी बड़ी घूरती हुई आंखों से वैभवी ऊपर से नीचे तक कांप गई। नजर नहीं मिला पाई। घबराहट और भय के कारण बेहोश होकर गिर पड़ी।
सारी प्रक्रियाओं को करने के बाद पुलिस ने तय किया कि वैभवी का बयान न्यायालय में होगा , तदनुसार अगली सुबह वैभवी को न्यायालय ले जाया गया। वह अकेली जज साहब के सामने मुखातिब हुई।
‘’क्या नाम है ?”
“वैभवी”
“उम्र क्या है ?”
“22 वर्ष”
“क्या अपनी मर्जी से बयान देने आयी हो ?”
“जी हाँ”
“क्या कहना है ?”
जी घटना दो दिन पहले की है…
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मैं मानिक के साथ जाना चाहती हूँ। उसने मुझे इस नरक से निकालने के लिए कई असफल प्रयास किए । मेरी उसके साथ शादी हो चुकी है, और अब वही मेरा पति है। वह मुझे बहुत प्यार करता है। उसके माता-पिता मुझे बहू के रूप में अपना चुके हैं। सब मुझे बहुत प्यार करते हैं, मुझे मेरे पहले पति और सास-ससुर से जान को खतरा है अतः मुझे सुरक्षा दी जाए…
न्यायलय द्वारा बालिग लड़की को अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी जाने हेतु स्वतंत्र छोड़ दिया गया…
वैभवी ने अपना बयान पलट दिया था। वह जीना चाहती थी। अपने दो मासूम बच्चों के लिए भले ही दूर से सिर्फ देखकर। पति के समक्ष जाने का साहस उस में नहीं था। अच्छी तरह जानती थी पति के पास जाने का मतलब है सीधा मौत। वैभवी द्वारा लिया गया निर्णय और उसके मन में चल रही उथल-पुथल एक जीवंत विरोधाभास था एक मौन द्वंद युद्ध भीतर ही भीतर चल रहा था वह नीले रंग के कपड़ों में थकी और कमजोर महसूस हो रही थी।बहुत सारे तर्कों के साथ स्वयं को सत्य के निकट खड़ा किया जा सकता है परंतु अब उसका क्या जो फैसला उसने अपने लिए प्राण दंड पाए अपराधी की भांति जीवन भर जलने के लिए ले लिया था, स्त्रियां अपना जीवन स्वयं नहीं चुनती बल्कि उनके जीवन के निर्धारक अन्य लोग हो जाते हैं…संपूर्ण जीवन अपने विरुद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने और बचाव पक्ष की भूमिका निभाते हुए गुजार देती हैं…काश वह पुरुष होती.,एक बड़ी गलती के बाद भी अपनी स्त्री द्वारा अपना ली जाती; पर समाज में स्त्रियों को कोई रीटेक नहीं मिलता…वैभवी का फैसला उसका अपना फैसला नहीं था बल्कि सामाजिक दबाव और पुरुष सत्ता के भय से उपजा हुआ एक द्वंद था।
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परिचय : प्रतिभा चौहान चर्चित कथाकार हैं. इनकी कई कहानियां प्रकाशित हो चुकी है